आईएएस सूर्यप्रताप सिंह परिहार के साथ फोटोग्राफी
(त्रिलोकीनाथ)
बहुत कम ब्यूरोक्रेट्स और राजनीतिज्ञ के सानिध्य में फोटो खिंचाने का अवसर लगा ,सच पूछो तो इच्छा ही नहीं पड़ी। किंतु 2000 के दशक में शहडोल में कलेक्टर रहे सूर्य प्रताप सिंह परिहार हमारी शुरुआती पत्रकारिता के दिन में आकर्षण के केंद्र बने थे इसलिए नहीं कि वे कलेक्टर थे बल्कि इसलिए कि वे एक सहज स्वभाव के अधिकारी रहे वर्षों बाद मेरी यह फोटो उस वक्त की है जब शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में वे उनके स्टाफ में शहडोल में आए थे हेलीपैड पर हमने ध्यान नहीं दिया किंतु अचानक हेलीपैड से एक आवाज आई दो-तीन बार उन्होंने कहा त्रिलोकी...,त्रिलोकी। फिर मैंने देखा कि वहां तो सूर्य प्रताप सिंह परिहार थे। बेहद अपनापन, उनका वैसा ही था जैसा वर्षों पहले जब भी कलेक्टर थे।
यह मेरे साथ अकेले था, ऐसा नहीं था.. बल्कि सबके साथ ऐसे ही सहज थे ..। और इसीलिए वे हमारी स्मृतियों में आज भी वैसे हैं। उनको विनम्र प्रणाम , जहां भी हो देश की सेवा करें, स्वयं स्वस्थ सपरिवार रहें और हम जैसों का मार्गदर्शक भी बने।
तब जहां आज डीआईजी हेड क्वार्टर है, वही यातायात ऑफिस के पास एक कक्ष हुआ करता था ।किसी प्रकरण में मैं भी बैठा था सूर्य प्रताप सिंह कलेक्टर सामने । हम 2- 3 लोग बैठे थे और वे मेरा परिचय ले रहे थे। हम पत्रकारिता में नए थे, जैसे कि आदिवासी क्षेत्र की पत्रकारिता होती है, वैसे पत्रकार । किंतु तब भी यह महत्व नहीं था कि कौन कलेक्टर है और कौन है एसपी... क्योंकि विरासत में हमें इन्हें एक कर्मचारी के रूप में समझने का मौका लगा.. सिर्फ सेवक।
उन्होंने मुझसे कहा कि आप शहडोल के ही रहने वाले हैं या बाहर से आए हैं...?, मैंने कहा मेरा जन्म यहीं का है। और यहीं से हममें आपसी समझ विकसित हुई । उनके सानिध्यता में अपने लोकज्ञान से हमने पत्रकारिता के अपने शौक को गुणवत्तापूर्ण ऊंचाई चुना। यह उनकी ही ताकत थी जो मैंने पत्रकारिता के शौक में में थोड़ा बहुत कर पाया। आज हजारों-करोड़ रुपये सासन को जो मिल रहे हैं ,सोन नदी जल कर के रूप में प्राकृतिक जल स्रोत कर में जो कानून बना 1998 में।
इसकी पृष्ठभूमि मुझे बहुत एक्सरसाइज करने पड़े हालांकि गुस्सा इस बात पर भी था की कांग्रेस सरकार में वन मंत्री रहते हुए चुरहट के विधायक चंद्र प्रताप तिवारी जी ने अपनी पुस्तक "नासमझी के 40 वर्ष" में सोन नदी के व वन संपदा शोषण का जो वर्णन किया है साथ ही शहडोल की तमाम जंगलात वन संपदा उद्योगपति बिरला जी को उनके ओरिएंट पेपर मिल अमलाई के साथ जो सस्ते सौदे हो रहे थे।
उसने मुझे दवाब दिया, क्यों कर हम लोकतंत्र में हैं तो सामंतशाही का विरासत हमारी प्राकृतिक वन संपदा को इस प्रकार लूट क्यों बना रखी..... लोकतंत्र का नकाब सामंतवाद को जीवित क्यों रखा है... 1992 से सोन नदी जलकर हो या यूकेलिप्टस प्लांटेशन के मामले में अंततः 1998 में उद्योग पतियों के संरक्षण में पल रही राजनीति के न चाहने के बावजूद भी मेरे जैसा आदिवासी पत्रकार इतना दबाव बना पाया की दिग्विजय सिंह सरकार को 98 में अधिनियम बनाना पड़ा। आज हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम मध्यप्रदेश में प्राप्त हुई और काफी कुछ राजस्व का इसी मामले में बकाया होगा।
किंतु 25 साल बाद जब मेरी पत्रकारिता की रजत जयंती हो चुकी होगी इन्हीं सूर्य प्रताप सिंह परिहार के सानिध्य में काम कर चुके हमारे वर्तमान कलेक्टर डॉक्टर सत्येंद्र सिंह शहडोल में कलेक्टर हैं तो हमारी हिम्मत नहीं पड़ती कि हम किसी उद्योगपति के शोषण और उसकी लूट की नीति के खिलाफ उनसे लोकतांत्रिक साझेदारी कर सकें। यह आदिवासी क्षेत्र के विकास का एक दुखद पतन है .....। इसे राजनीतिक पतन नहीं कहा जा सकता है और अनुभव में पतित ब्यूरोक्रेट्स के कार्य प्रणाली का अनुभव भी नही कहा जा सकता है क्योंकि फिर कोई कलेक्टर सूर्य प्रताप की कार्यशैली और नीतियों का अनुगामी नहीं बन पाया।
क्योंकि हमें कोई धन तो मिला नहीं.. शासन को जरूर हजारों करोड़ों पर मिले, राजनीतिक को जरूर करोड़ों रुपए का चंदा मिला..., लेकिन बतौर आदिवासी पत्रकार हमें क्या मिला...? यानी कुछ नहीं मिला... यानी बाबाजी के ठुल्लू मिली.. ।
तो हम वर्तमान कलेक्टर से लोकतांत्रिक साझेदारी की उम्मीद करते हैं और ना ही वे हमसे कोई आकांक्षा रखते हैं । तब भी जब हमने यह फोटो खिंचवाई थी यह एक संयोग था उनका अपनापन का उसको स्मृतियों में बरकरार रखने का एक जरिया था उस वक्त उद्योगपति एचजेके पावर के मिस्टर राजू, हमेशा की तरह डॉक्टर जी एस परिहार , सूर्य प्रताप सिंह परिहार और मैं यानी त्रिलोकीनाथ मेरे साथी मित्र संजय मित्तल जी निश्चित तौर पर यह एक यादगार चित्र है।
हमेशा ऐसे किसी छायाचित्र पर गर्व करने का अवसर ढूंढता रहता हूं कि फिर शायद फोटो किसी ने अफसर के साथ जब खिंचवाई तो गर्व भी कर सकूं। बहुत अच्छी स्मृतियां कोरोनावायरस ने दिया है, नयाइंडिया भी ।हां एक बात को इसमें शामिल करना शायद अद्यतन होगा कि कुछ ही दिन पहले हमारे तब के सोहागपुर स्टेट के हर्षवर्धन सिंह जी से मुलाकात हुई मैंने उनसे प्रश्न किया कि इतना दर्द भरे माहौल में कोविड-19 में करोड़ों श्रमिकों की प्रताड़ना की परिस्थितियों और कई लोगों की मौतों के चल रहे सिलसिले के बावजूद भी आदमी ईमानदार बनने का प्रयास क्यों नहीं किया...?, कोविड-19 से हमने क्या सीखा... हम इमानदार क्यों नहीं बन पाए....?रजवाड़ों की विरासत की जेनरालाजी में जो उत्तर आया वह कई यक्ष प्रश्न खड़े कर गया... उन्होंने कहा "अभी कुछ और ज्यादा होना चाहिए था शायद कम था, इसलिए ईमानदारी जगह नहीं बना पाई...."
(त्रिलोकीनाथ)
बहुत कम ब्यूरोक्रेट्स और राजनीतिज्ञ के सानिध्य में फोटो खिंचाने का अवसर लगा ,सच पूछो तो इच्छा ही नहीं पड़ी। किंतु 2000 के दशक में शहडोल में कलेक्टर रहे सूर्य प्रताप सिंह परिहार हमारी शुरुआती पत्रकारिता के दिन में आकर्षण के केंद्र बने थे इसलिए नहीं कि वे कलेक्टर थे बल्कि इसलिए कि वे एक सहज स्वभाव के अधिकारी रहे वर्षों बाद मेरी यह फोटो उस वक्त की है जब शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में वे उनके स्टाफ में शहडोल में आए थे हेलीपैड पर हमने ध्यान नहीं दिया किंतु अचानक हेलीपैड से एक आवाज आई दो-तीन बार उन्होंने कहा त्रिलोकी...,त्रिलोकी। फिर मैंने देखा कि वहां तो सूर्य प्रताप सिंह परिहार थे। बेहद अपनापन, उनका वैसा ही था जैसा वर्षों पहले जब भी कलेक्टर थे।
यह मेरे साथ अकेले था, ऐसा नहीं था.. बल्कि सबके साथ ऐसे ही सहज थे ..। और इसीलिए वे हमारी स्मृतियों में आज भी वैसे हैं। उनको विनम्र प्रणाम , जहां भी हो देश की सेवा करें, स्वयं स्वस्थ सपरिवार रहें और हम जैसों का मार्गदर्शक भी बने।
तब जहां आज डीआईजी हेड क्वार्टर है, वही यातायात ऑफिस के पास एक कक्ष हुआ करता था ।किसी प्रकरण में मैं भी बैठा था सूर्य प्रताप सिंह कलेक्टर सामने । हम 2- 3 लोग बैठे थे और वे मेरा परिचय ले रहे थे। हम पत्रकारिता में नए थे, जैसे कि आदिवासी क्षेत्र की पत्रकारिता होती है, वैसे पत्रकार । किंतु तब भी यह महत्व नहीं था कि कौन कलेक्टर है और कौन है एसपी... क्योंकि विरासत में हमें इन्हें एक कर्मचारी के रूप में समझने का मौका लगा.. सिर्फ सेवक।
उन्होंने मुझसे कहा कि आप शहडोल के ही रहने वाले हैं या बाहर से आए हैं...?, मैंने कहा मेरा जन्म यहीं का है। और यहीं से हममें आपसी समझ विकसित हुई । उनके सानिध्यता में अपने लोकज्ञान से हमने पत्रकारिता के अपने शौक को गुणवत्तापूर्ण ऊंचाई चुना। यह उनकी ही ताकत थी जो मैंने पत्रकारिता के शौक में में थोड़ा बहुत कर पाया। आज हजारों-करोड़ रुपये सासन को जो मिल रहे हैं ,सोन नदी जल कर के रूप में प्राकृतिक जल स्रोत कर में जो कानून बना 1998 में।
इसकी पृष्ठभूमि मुझे बहुत एक्सरसाइज करने पड़े हालांकि गुस्सा इस बात पर भी था की कांग्रेस सरकार में वन मंत्री रहते हुए चुरहट के विधायक चंद्र प्रताप तिवारी जी ने अपनी पुस्तक "नासमझी के 40 वर्ष" में सोन नदी के व वन संपदा शोषण का जो वर्णन किया है साथ ही शहडोल की तमाम जंगलात वन संपदा उद्योगपति बिरला जी को उनके ओरिएंट पेपर मिल अमलाई के साथ जो सस्ते सौदे हो रहे थे।
उसने मुझे दवाब दिया, क्यों कर हम लोकतंत्र में हैं तो सामंतशाही का विरासत हमारी प्राकृतिक वन संपदा को इस प्रकार लूट क्यों बना रखी..... लोकतंत्र का नकाब सामंतवाद को जीवित क्यों रखा है... 1992 से सोन नदी जलकर हो या यूकेलिप्टस प्लांटेशन के मामले में अंततः 1998 में उद्योग पतियों के संरक्षण में पल रही राजनीति के न चाहने के बावजूद भी मेरे जैसा आदिवासी पत्रकार इतना दबाव बना पाया की दिग्विजय सिंह सरकार को 98 में अधिनियम बनाना पड़ा। आज हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम मध्यप्रदेश में प्राप्त हुई और काफी कुछ राजस्व का इसी मामले में बकाया होगा।
किंतु 25 साल बाद जब मेरी पत्रकारिता की रजत जयंती हो चुकी होगी इन्हीं सूर्य प्रताप सिंह परिहार के सानिध्य में काम कर चुके हमारे वर्तमान कलेक्टर डॉक्टर सत्येंद्र सिंह शहडोल में कलेक्टर हैं तो हमारी हिम्मत नहीं पड़ती कि हम किसी उद्योगपति के शोषण और उसकी लूट की नीति के खिलाफ उनसे लोकतांत्रिक साझेदारी कर सकें। यह आदिवासी क्षेत्र के विकास का एक दुखद पतन है .....। इसे राजनीतिक पतन नहीं कहा जा सकता है और अनुभव में पतित ब्यूरोक्रेट्स के कार्य प्रणाली का अनुभव भी नही कहा जा सकता है क्योंकि फिर कोई कलेक्टर सूर्य प्रताप की कार्यशैली और नीतियों का अनुगामी नहीं बन पाया।
क्योंकि हमें कोई धन तो मिला नहीं.. शासन को जरूर हजारों करोड़ों पर मिले, राजनीतिक को जरूर करोड़ों रुपए का चंदा मिला..., लेकिन बतौर आदिवासी पत्रकार हमें क्या मिला...? यानी कुछ नहीं मिला... यानी बाबाजी के ठुल्लू मिली.. ।
तो हम वर्तमान कलेक्टर से लोकतांत्रिक साझेदारी की उम्मीद करते हैं और ना ही वे हमसे कोई आकांक्षा रखते हैं । तब भी जब हमने यह फोटो खिंचवाई थी यह एक संयोग था उनका अपनापन का उसको स्मृतियों में बरकरार रखने का एक जरिया था उस वक्त उद्योगपति एचजेके पावर के मिस्टर राजू, हमेशा की तरह डॉक्टर जी एस परिहार , सूर्य प्रताप सिंह परिहार और मैं यानी त्रिलोकीनाथ मेरे साथी मित्र संजय मित्तल जी निश्चित तौर पर यह एक यादगार चित्र है।
हमेशा ऐसे किसी छायाचित्र पर गर्व करने का अवसर ढूंढता रहता हूं कि फिर शायद फोटो किसी ने अफसर के साथ जब खिंचवाई तो गर्व भी कर सकूं। बहुत अच्छी स्मृतियां कोरोनावायरस ने दिया है, नयाइंडिया भी ।हां एक बात को इसमें शामिल करना शायद अद्यतन होगा कि कुछ ही दिन पहले हमारे तब के सोहागपुर स्टेट के हर्षवर्धन सिंह जी से मुलाकात हुई मैंने उनसे प्रश्न किया कि इतना दर्द भरे माहौल में कोविड-19 में करोड़ों श्रमिकों की प्रताड़ना की परिस्थितियों और कई लोगों की मौतों के चल रहे सिलसिले के बावजूद भी आदमी ईमानदार बनने का प्रयास क्यों नहीं किया...?, कोविड-19 से हमने क्या सीखा... हम इमानदार क्यों नहीं बन पाए....?रजवाड़ों की विरासत की जेनरालाजी में जो उत्तर आया वह कई यक्ष प्रश्न खड़े कर गया... उन्होंने कहा "अभी कुछ और ज्यादा होना चाहिए था शायद कम था, इसलिए ईमानदारी जगह नहीं बना पाई...."
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