जाति न पूछो....... भाग 2
कमिश्नर के चाहने के बाद भी मंडल संयोजक कैसे सहायक आयुक्त को नचा रहा है....?
छात्रावास अधीक्षकों की भर्ती सिर्फ एक प्रोपेगंडा...... (त्रिलोकीनाथ)
तो चलिए भारतीय संविधान के पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र शहडोल के आदिवासी विभाग कि कुछ विज्ञप्तियों को टटोलना के प्रयास करें। क्या इन विज्ञापनों का समुचित पालन हुआ अथवा यह दिखाने के दांत थे और खाने के दांत और..।
किस प्रकार से माफिया अपने हितों को और भ्रष्टाचार का नेक्स्स पैदा करता है, देखने लायक है। क्योंकि विकास के भ्रम का धुंआ और भ्रामक तस्वीर भ्रष्ट कर्मचारियों के लिए वरदान बनी हुई है। कम से कम आदिवासी विभाग में ऐसे विज्ञापनों जिसमें की छात्रावासों में अधीक्षकों की भर्ती के लिए बनाए गए अधिनियम के अधीन पुराने छात्रावास अधीक्षकों को हटाकर नए अधीक्षकों की नियुक्ति एक आवश्यक प्रक्रिया है। किंतु जब भी यह विज्ञप्ति प्रकाशित की गई हैं कभी भी उसके अनुपालन में कार्यवाही जमीन पर होती नहीं दिखाई दी बल्कि होता यह रहा की आदिवासी विभाग में इन विज्ञप्ति ओ के जरिए यह चेतावनी छात्रावास अधीक्षकों को दी जाती रही है।
भ्रष्टाचार के कारोबार में नियत समय में माफिया के मंथली आदेश को नाफरमानी करते थे जैसी ही ऐसी विज्ञापनों की सूची जारी होती तो अथवा तमाम छात्रावास के अधीक्षक स्वयं पहुंचकर के भ्रष्टाचार के मजार में अपने को सुरक्षित रखने का चादर चढ़ाते थे अथवा मजार के देवता अधीक्षकों के पास स्वयं उपस्थित होकर मंथली फतवा का उन्हें स्मरण दिलाते थे, कि क्यों ना उन्हें छात्रावास अधीक्षक के पद से परिवर्तित कर दिया जाए और कोई दूसरा अधीक्षक नियुक्त करा दिया जाए....? और इस भय से कि भ्रष्टाचार की धारा उसे मोहताज कर देगी वह संपूर्ण समर्पण के भाव से हिंदुत्व की सांस्कृतिक वैभव का यानी कि भ्रष्टाचार को आत्मसात करते थे और यह समरसता ही विज्ञापन की उद्देश्य होता था।
जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करता था और यह व्यवस्था किसी 1 साल की नहीं बल्कि एक भाजपा की 15-16 साल की सत्ता में स्थापित व्यवस्था होकर सफलता से चल रही है। यह बात इसलिए भी कही जा रही है कि भाजपा की सत्ता में एक संगठन मंत्री होता है जो इन्हीं कार्यों को नियंत्रित करता है, यदि कोई जांच कमेटी इस बात की सूचना से जांच करेगा तो वह देखेगी और पाएगी कि किस प्रकार से आदिवासी विभाग में छात्रावास अधीक्षकों की नियुक्ति के लिए बनाए गए नियमों के तहत सिर्फ विज्ञापन जारी होते थे उसका अनुपालन कभी नहीं हुआ। कम से कम आदिवासी विभाग शहडोल में यह चरितार्थ हुआ है। हालात तो इस कदर खराब है कि यदि सहायक आयुक्त कार्यालय में भी विभागीय है परिवर्तन होते हैं तो हिम्मत नहीं सहायक आयुक्त की कि वह छात्रावास संबंधी मराबी नाम के व्यक्ति से उसका प्रभाव छीन सकें क्योंकि यही तो है जो अन्य व्यक्ति से मिलकर अपने षड्यंत्रकारी मनसा को अंजाम देता रहा खुद कार्यालय मैं शाखा परिवर्तन के आदेश कचरे में चले गए
क्योंकि जब कोई अदना सा कर्मचारी मंडल संयोजक , सहायक आयुक्त स्तर के काम को गैरकानूनी तरीके से अंजाम देता हो और वह सफलता के साथ इस बात पर भी अपने खंभे गाड़ देता है की जब तक आदिवासी विभाग उसकी उंगलियों पर नाचने की क्षमता रखेगा तब तक कोई दूसरा जिम्मेदार स्थाई रूप से उसके पद पर आने की हिमाकत भी ना करें.... इसलिए यदि कोई अधिकारी कभी इस प्रभारी को हटाकर आना भी चाहता है तो उसे अपनी भ्रष्टाचार की क्षमता से वह उसे दूसरे जिले में नियुक्त करा देता है। और इस प्रकार भ्रस्ट माफिया की सल्तनत आदिवासी विभाग में अपना रुतबा बनाए रखती है। जिसके अधीन स्वयं सहायक आयुक्त अथवा संभाग आयुक्त अपनी सुरक्षा तलाशता है अन्यथा कोई कारण नहीं है एक मामूली से मंडल संयोजक को सहायक आयुक्त के तमाम अहम कार्यों की जिम्मेदारी दी जाए।
जिसके लिए वह कमिश्नर शहडोल द्वारा अयोग्य घोषित किया जा चुका हो, ऐसी कार्यालय नोटशीट को दबाकर कोई गैर हिंदू यानी भ्रष्ट मुस्लिम कर्मचारी यदि सफलता से हिंदुत्व की सरकार में अपना रुतबा बनाकर रखता है तो यह सिर्फ इस बात को सिद्ध करता है कि माफिया का कोई जाति नहीं होती माफिया का सिर्फ एक धर्म होता है भ्रष्टाचार की रिश्तेदारी होती है और वह हिंदू और मुसलमान के बीच में समरसता बरकरार रखती है यही बात आदिवासी विभाग में डंके की चोट में अपना झंडा लहरा रही है। तो कुछ प्रेस विज्ञप्तिओ को भी हम दिखाना चाहेंगे अगर आपके समझ में आए किन का अनुपालन हुआ है तो जरूर हमें सूचित करिएगा ताकि हम अपने आलेख में संशोधन या सुधार कर सकें वैसे इसमें इस बात की गुंजाइश कम ही है क्योंकि भ्रष्ट माफिया कभी चूक नहीं करता। क्योंकि जब भी हम सांप्रदायिकता के धंधे में आमतौर पर स्वस्थ नागरिक लोगों को सफलता पूर्वक लड़ते हुए देखते हैं, तो गर्व करने को जी चाहता है कि यह भ्रष्टाचार की दुनिया में भी ऐसा क्यों नहीं होता....? जिसमें हम गर्व कर सकें । शायद इसी बहाने कुछ भ्रष्टाचार चर्चित होगा और कुछ भ्रष्टाचार ही मर जाएंगे ।
क्योंकि जाति न पूछो साधु की समस्या का हल नहीं करता तो शायद जाति न पूछो शैतानों की या भ्रष्टाचारियों की शायद कोई समाधान कर सके, गोहपारू जनपद में भ्रष्टाचार का गौरवशाली उल्लेख होता है जिसमें यदि कोई पिछड़ी जाति का हितग्राही है तो उससे ₹2000 और यदि अगड़ी जाति का है तो उससे ₹5000 प्रीति प्रकरण निराकरण का रास्ता बनाया गया है जो व्यवस्था हो अघोषित तौर पर प्रबंधन देता है और यह सब कुछ छुपा नहीं है पूरी तरह से पारदर्शी ही है कोरोनावायरस की तरह जो अदृश्य है किंतु लॉक डाउन को बाध्य भी कर देता है
हर्ज क्या है क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं हर चुनौती एक अवसर प्रदान करती है क्या भ्रष्टाचार के मामले में ऐसा संभव है...? क्या सिर्फ भ्रष्टाचार ही इनके गठबंधन का एकमात्र जरिया है......? ( जारी 3)
कमिश्नर के चाहने के बाद भी मंडल संयोजक कैसे सहायक आयुक्त को नचा रहा है....?
छात्रावास अधीक्षकों की भर्ती सिर्फ एक प्रोपेगंडा...... (त्रिलोकीनाथ)
तो चलिए भारतीय संविधान के पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र शहडोल के आदिवासी विभाग कि कुछ विज्ञप्तियों को टटोलना के प्रयास करें। क्या इन विज्ञापनों का समुचित पालन हुआ अथवा यह दिखाने के दांत थे और खाने के दांत और..।
या भ्रष्टा-माफिया के किसी को दिख नहीं रहे थे, हमें शायद इसलिए दिख रहे थे, क्योंकि कहीं ना कहीं हमारी नीतियों और उन मापदंडों को भी चलाया जा रहा था जिनके लिए लोकतंत्र का निर्धारण भारत के आजादी के लिए नेताओं ने अपने जान देकर बलिदान किया है ।तो क्या आजादी का बलिदान भ्रष्टाचार के इन्हीं कुकुरमुत्तों के लिए किया गया था..? जो आज मशरूम बनकर कीमती बाजार में भारी कीमत वसूल रहे हैं।
किस प्रकार से माफिया अपने हितों को और भ्रष्टाचार का नेक्स्स पैदा करता है, देखने लायक है। क्योंकि विकास के भ्रम का धुंआ और भ्रामक तस्वीर भ्रष्ट कर्मचारियों के लिए वरदान बनी हुई है। कम से कम आदिवासी विभाग में ऐसे विज्ञापनों जिसमें की छात्रावासों में अधीक्षकों की भर्ती के लिए बनाए गए अधिनियम के अधीन पुराने छात्रावास अधीक्षकों को हटाकर नए अधीक्षकों की नियुक्ति एक आवश्यक प्रक्रिया है। किंतु जब भी यह विज्ञप्ति प्रकाशित की गई हैं कभी भी उसके अनुपालन में कार्यवाही जमीन पर होती नहीं दिखाई दी बल्कि होता यह रहा की आदिवासी विभाग में इन विज्ञप्ति ओ के जरिए यह चेतावनी छात्रावास अधीक्षकों को दी जाती रही है।
भ्रष्टाचार के कारोबार में नियत समय में माफिया के मंथली आदेश को नाफरमानी करते थे जैसी ही ऐसी विज्ञापनों की सूची जारी होती तो अथवा तमाम छात्रावास के अधीक्षक स्वयं पहुंचकर के भ्रष्टाचार के मजार में अपने को सुरक्षित रखने का चादर चढ़ाते थे अथवा मजार के देवता अधीक्षकों के पास स्वयं उपस्थित होकर मंथली फतवा का उन्हें स्मरण दिलाते थे, कि क्यों ना उन्हें छात्रावास अधीक्षक के पद से परिवर्तित कर दिया जाए और कोई दूसरा अधीक्षक नियुक्त करा दिया जाए....? और इस भय से कि भ्रष्टाचार की धारा उसे मोहताज कर देगी वह संपूर्ण समर्पण के भाव से हिंदुत्व की सांस्कृतिक वैभव का यानी कि भ्रष्टाचार को आत्मसात करते थे और यह समरसता ही विज्ञापन की उद्देश्य होता था।
जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करता था और यह व्यवस्था किसी 1 साल की नहीं बल्कि एक भाजपा की 15-16 साल की सत्ता में स्थापित व्यवस्था होकर सफलता से चल रही है। यह बात इसलिए भी कही जा रही है कि भाजपा की सत्ता में एक संगठन मंत्री होता है जो इन्हीं कार्यों को नियंत्रित करता है, यदि कोई जांच कमेटी इस बात की सूचना से जांच करेगा तो वह देखेगी और पाएगी कि किस प्रकार से आदिवासी विभाग में छात्रावास अधीक्षकों की नियुक्ति के लिए बनाए गए नियमों के तहत सिर्फ विज्ञापन जारी होते थे उसका अनुपालन कभी नहीं हुआ। कम से कम आदिवासी विभाग शहडोल में यह चरितार्थ हुआ है। हालात तो इस कदर खराब है कि यदि सहायक आयुक्त कार्यालय में भी विभागीय है परिवर्तन होते हैं तो हिम्मत नहीं सहायक आयुक्त की कि वह छात्रावास संबंधी मराबी नाम के व्यक्ति से उसका प्रभाव छीन सकें क्योंकि यही तो है जो अन्य व्यक्ति से मिलकर अपने षड्यंत्रकारी मनसा को अंजाम देता रहा खुद कार्यालय मैं शाखा परिवर्तन के आदेश कचरे में चले गए
क्योंकि जब कोई अदना सा कर्मचारी मंडल संयोजक , सहायक आयुक्त स्तर के काम को गैरकानूनी तरीके से अंजाम देता हो और वह सफलता के साथ इस बात पर भी अपने खंभे गाड़ देता है की जब तक आदिवासी विभाग उसकी उंगलियों पर नाचने की क्षमता रखेगा तब तक कोई दूसरा जिम्मेदार स्थाई रूप से उसके पद पर आने की हिमाकत भी ना करें.... इसलिए यदि कोई अधिकारी कभी इस प्रभारी को हटाकर आना भी चाहता है तो उसे अपनी भ्रष्टाचार की क्षमता से वह उसे दूसरे जिले में नियुक्त करा देता है। और इस प्रकार भ्रस्ट माफिया की सल्तनत आदिवासी विभाग में अपना रुतबा बनाए रखती है। जिसके अधीन स्वयं सहायक आयुक्त अथवा संभाग आयुक्त अपनी सुरक्षा तलाशता है अन्यथा कोई कारण नहीं है एक मामूली से मंडल संयोजक को सहायक आयुक्त के तमाम अहम कार्यों की जिम्मेदारी दी जाए।
जिसके लिए वह कमिश्नर शहडोल द्वारा अयोग्य घोषित किया जा चुका हो, ऐसी कार्यालय नोटशीट को दबाकर कोई गैर हिंदू यानी भ्रष्ट मुस्लिम कर्मचारी यदि सफलता से हिंदुत्व की सरकार में अपना रुतबा बनाकर रखता है तो यह सिर्फ इस बात को सिद्ध करता है कि माफिया का कोई जाति नहीं होती माफिया का सिर्फ एक धर्म होता है भ्रष्टाचार की रिश्तेदारी होती है और वह हिंदू और मुसलमान के बीच में समरसता बरकरार रखती है यही बात आदिवासी विभाग में डंके की चोट में अपना झंडा लहरा रही है। तो कुछ प्रेस विज्ञप्तिओ को भी हम दिखाना चाहेंगे अगर आपके समझ में आए किन का अनुपालन हुआ है तो जरूर हमें सूचित करिएगा ताकि हम अपने आलेख में संशोधन या सुधार कर सकें वैसे इसमें इस बात की गुंजाइश कम ही है क्योंकि भ्रष्ट माफिया कभी चूक नहीं करता। क्योंकि जब भी हम सांप्रदायिकता के धंधे में आमतौर पर स्वस्थ नागरिक लोगों को सफलता पूर्वक लड़ते हुए देखते हैं, तो गर्व करने को जी चाहता है कि यह भ्रष्टाचार की दुनिया में भी ऐसा क्यों नहीं होता....? जिसमें हम गर्व कर सकें । शायद इसी बहाने कुछ भ्रष्टाचार चर्चित होगा और कुछ भ्रष्टाचार ही मर जाएंगे ।
क्योंकि जाति न पूछो साधु की समस्या का हल नहीं करता तो शायद जाति न पूछो शैतानों की या भ्रष्टाचारियों की शायद कोई समाधान कर सके, गोहपारू जनपद में भ्रष्टाचार का गौरवशाली उल्लेख होता है जिसमें यदि कोई पिछड़ी जाति का हितग्राही है तो उससे ₹2000 और यदि अगड़ी जाति का है तो उससे ₹5000 प्रीति प्रकरण निराकरण का रास्ता बनाया गया है जो व्यवस्था हो अघोषित तौर पर प्रबंधन देता है और यह सब कुछ छुपा नहीं है पूरी तरह से पारदर्शी ही है कोरोनावायरस की तरह जो अदृश्य है किंतु लॉक डाउन को बाध्य भी कर देता है
हर्ज क्या है क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं हर चुनौती एक अवसर प्रदान करती है क्या भ्रष्टाचार के मामले में ऐसा संभव है...? क्या सिर्फ भ्रष्टाचार ही इनके गठबंधन का एकमात्र जरिया है......? ( जारी 3)
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