मंगलवार, 12 मई 2020

कलयुग का कपट-अस्त्र, "कुत्ते की पूंछ" और "कपटी की मूंछ" (त्रिलोकीनाथ)

कोरोना का महाभारत
और कलयुग का
 कपट-अस्त्र

"कुत्ते की पूंछ"
      और
"कपटी की मूंछ"

(त्रिलोकीनाथ)

कोरोना महाभारत में कपट-अस्त्र, कपट-विद्या सिर्फ युद्ध क्षेत्र का ज्ञान नहीं है लोकतंत्र में कुछ हद तक यह पुरातन ब्रह्मास्त्र भी है। इसके लिए किसी डिग्री की, किसी तपस्या की या किसी गुणवत्ता की जरूरत भी नहीं है महाभारत का चरित्र नायक शकुनी जैसे यह वास्तव में जन्मजात अनुवांशिक ज्ञान है ।जिस व्यक्ति ने भी इस विद्या का अपने जीवन में प्रकट  किया है, वही उसका सच्चा उत्तराधिकारी होता है। और इसमें अनुसंधान की भी बहुत जरूरत नहीं रहती की अनुवांशिक-क्रम में अनुवांशिक-तौर पर व्यक्ति को यह उसकी मां से प्राप्त हुआ अथवा उसके पिता से......? या फिर उसके प्रारब्ध से.....?

अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग लोग कपट-स्वाभिमान के सहारे आधुनिक भारत में विकास के कीर्तिमान खड़े किए हैं । दुनिया और देश में कपट-विद्या का अमोघ शस्त्र हमें देखने और सुनने में आया है। जैसे वर्तमान में कोरोनावायरस को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से कपट-विद्या का खुला प्रयोग हो रहा है एक समय तक अपने देश में प्रस्तुत चीन द्वारा कोविड-19 को लेकर जैसे सिर झुका कर ....अन्य राष्ट्रों विशेषकर, अमेरिका की बातें सुनी जाती थी।  क्योंकि दुनिया में सर्वाधिक कोविड-19 के संक्रमित व्यक्तियों साथ ही, सर्वाधिक मृत लोगों के पीड़ा से पैदा क्रोध में अमेरिका न सिर्फ चिन्हित किया बल्कि संयुक्त राष्ट्रसंघ  की गैर जिम्मेदारी को चिन्हित करते हुए उसे अपने यहां से दिए जाने वाले आर्थिक मदद को बंद कर दिया । किंतु मौन धारण करने की और समय पर वार करने वाली कपट-विद्या का अस्त्र चीन उपयोग कर रहा था । अब वह इसी कपट-अस्त्र के भंडार से चोरी और सीनाजोरी की भाषा में अमेरिका से सबूत मांग रहा है ....,कि चीन कोविड-19 के लिए कैसे दोषी है......? याने चीन अपने द्वारा उत्पादित तथाकथित जैविक अनुसंधान रासायनिक हथियार कोविड-19 के पाप से मुक्त हो जाना चाहता है..... और वे इसके लिए कपट-अस्त्र का उपयोग कर रहा है ।

अब भारत देश में आते हैं जहां एक तरफ
लगातार लाखों की संख्या में अपने ही देश में अंदर और बाहर भी प्रवासी श्रमिकों की प्रताड़ना का, भयानक पीड़ा का और उससे कराहते संपूर्ण समाज का अनगिनत दृष्टांत हमें देखने को बस सुनने को मिल रहा है ,बावजूद इसके भारत के अद्यतन सत्ता का चरित्र मजदूरों के महापलायन के दौर में इसे देखना और सुनना ही नहीं चाहता ।
वह कपट-विद्या से सीखे अपने कपट-अस्त्र का प्रयोग करता रहता है।

 12 मई 20 को करीब डेढ़ माह बाद भारत के प्रधानमंत्री लोकप्रियनेता भी नरेंद्र मोदी जी समाचार माध्यमों से प्रकट होकर "लॉक डाउन-4" को किसी फिल्मी परिदृश्य की तरह लॉन्च किए । इस अवसर पर 20 लाख करोड़ रुपयों (जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने कहा भारत की जीडीपी का यह 10 परसेंट है) जारी करने की बात कही। इससे कोविड-19 से जनित समस्या का निवारण अलग-अलग क्षेत्र में होगा.... आशा जताई। साथ ही कहा जिसका विस्तार वित्त मंत्री जी बताती रहेंगी। लगे हाथ "लॉक-डाउन 4" को लांच कर के जारी रहने के तौर तरीके पर आने वाले समय पर बताने की बात कही।
           अंदाजा था कि जब प्रधानमंत्री जी संबोधन करेंगे वे वर्तमान 21वीं सदी के सर्वाधिक प्रताड़ित , पीड़ादायक दृष्टांत में जी रहे प्रवासी  लाखों की संख्या में श्रमिकों की तत्काल निदान पर कोई पैकेज बताएंगे....
. आशा विपरीत परंपरागत तरीके से वे सब्जबाग दिखाकर, किसी "धीमी गति के समाचार प्रसारण" की तरह चले गए।

 किंतु 12 तारीख का 8 बजे कुछ हद तक वैसा ही शॉकिंग रहा, जैसा कभी नोटबंदी में घोषणा करते वक्त प्रधानमंत्री जी रोमांच पैदा कर गए थे । तब के 8 बजे घोषणा और अब की 8 बजे के घोषणा में एक समानता है ,
और वह यह है कि लगातार लाइन लगाइए..... चलते रहिए....., प्रताड़ित रहिए ......,हो सके तो मर भी जाइए.....।
 यह कपट-शास्त्र का अचूक बाण की तरह  है । जैसे पौराणिक शब्दभेदी तीर की तरह जिसका संधान कभी त्रेता के राजा दशरथ ने अपने अंधे माता-पिता में सेवारत पुत्र श्रवण कुमार को नदी से, उनकी प्यास बुझाने के लिए पानी लेने गए श्रवण कुमार को हत्या करके पाप किया था। ऐसा नहीं है इस बात से राजा तत्काल मर गया हो, उनके यहां तो भगवान जन्मे थे.... फिर भी वे अंधे माता पिता  की सेवा में लगे  पुत्र  की  एक्सीडेंटल  मौत के श्राप से अपनी मौत मरे......, वह एक अलग कहानी है।
 यह उनका यानी राजा दशरथ का अनुवांशिक विरासत में प्राप्त कपट-शास्त्र नहीं था बल्कि वे एक्सीडेंटल प्रोडक्ट शिकार करने की लालच के शिकार हुए थे। क्योंकि वे शब्दभेदी तीर का दुरुपयोग किए थे। कलयुग के 21वीं सदी में हम राजाओं के शब्दभेदी कपट-विद्या का लगातार संधान देख रहे हैं.... और उसके प्रतिफल उनकी प्रजा भोग भी रही है... आखिर राजा का कर्म, प्रजा को भोगना ही पड़ता है.... क्योंकि राजा का पुत्र, प्रजा ही होती है ....।

यह हो गई देश की बात । मध्यप्रदेश तो भारतीय राजनीति के अद्यतन कपट-विद्या का प्रयोगशाला है। कोविड-19 कोरोनावायरस को लेकर जितना नंगा नाच न सिर्फ लोकतंत्र के विधायिका ने किया, बल्कि कार्यपालिका और न्यायपालिका ने भी अपनी सहभागिता प्रदान की, उतना महाभारत शायद देखने के लिए हमें किसी संजय की जरूरत नहीं है...। और अंधा होने के लिए धृतराष्ट्र बनने की भी जरूरत नहीं है, सब खुली आंखों से ,खुलकर होता रहा। पूरा पारदर्शी...., सत्ता की भाषा में कहें तो ट्रांसपेरेंट.....।
 अब इसे अपना सौभाग्य कहें, या दुर्भाग्य.... यह हमारे जीवन काल में हुआ, हम इस युग में जी रहे हैं।

 तो अपन छोड़े इसे, यहां कपट-ज्ञान के अनुवांशिक गुणों पर चर्चा करना हो तो हमें अपने आसपास देखना चाहिए। क्योंकि जीव ही ब्रह्म है, पिंड ही ब्रह्मांड है..। इसलिए कपट-ज्ञानियों का अनुवांशिक चरित्र और इसके नायक हमें अपने आसपास देखना चाहिए और इसमें आनंद भी लेते रहना चाहिए।

मशहूर उपन्यासकार ब्यूरोक्रेट्स रहे श्रीलाल शुक्ल ने "रागदरबारी" में एक से एक कपट-शास्त्रियों का वर्णन किया है, पंचायती राज व्यवस्था के जरिए लोकतंत्र पर प्रहार करना था कि शायद सुधार हो जाए, किंतु लोकतंत्र तो "कुत्ते की पूंछ" की तरह टेढ़ा है जब तक उसमें बीमारी नहीं लगेगी वह सीधा नहीं होगा। चाहे आप उसे कितनी भी सीधी पाइप में, कितने ही सालों तक क्यों ना डाल कर रखें..., जब भी निकालेंगे, कुत्ते की पूंछ को पाइप से तो टेड़ा हो जाता है.....
 यह उसकी अपनी जेनेटिक-प्रॉब्लम है या इसे अनुवांशिक-गुण कह सकते हैं। कुत्ते की पूंछ एक कपट-ज्ञान है, कपट-ज्ञान  पूरा कुत्ता नहीं है। वह सिर्फ "कुत्ते की पूंछ" है जैसे जूता और जूते की नोक ।
तो हम बात कर रहे थे कितने ही सालों कुत्ते की पूंछ को पाइप में डालकर रखें वह सीधा नहीं होता, क्योंकि कुत्ते का अनुवंश इसी पूंछ के लिए निर्धारित होता है। फिर जरूरी नहीं है कि हमारे आसपास विचरित कर रहे कुत्ते की प्रजाति, मानव रूप में किस चतुर्वर्ण व्यवस्था में पैदा है.... अगर वह अनुवांशिक तौर पर श्रेष्ठतम ब्राह्मण वर्ण में है तो वह उतना ही कपट-शास्त्री होगा जितना की उच्चतम कुत्ते की नस्ल की पूंछ....।
     हालांकि देश और दुनिया में हम देखते हैं तो कई ऐसे कुत्तों के बारे में भी हमें ज्ञान आता है जहां उनकी पूँछ नहीं होती। शायद अमीर घरानों में रहने वाले कुत्ते इतने ही विकसित होते हैं। इससे यह मतलब नहीं कि उनकी ब्राह्मण होने की गुणवत्ता खत्म हो जाती है। दरअसल वह पूंछ, उनके रीढ़ की हड्डी में छुपी रहती है।
कुछ ऐसे ही जैसे त्रेता-युग के परम ज्ञानी  और सबके पूजनीय हनुमान जी महाराज के अनुवंश में होता रहा होगा। तब उसका उपयोग धर्म की रक्षा और आध्यात्म की स्थापना के लिए अधर्मी रावण को चेतावनी देने के लिए, ज्ञान की देवी सरस्वती के कृपा से लंका दहन के वक्त हनुमान जी महाराज ने पूंछ लंबी करके सिद्ध किया था। हालांकि अंगद का भी जिक्र आता है कि वे भी अपनी पूछ लंबी कर लेते थे ।यह बात त्रेता युग की है। जब राम राज्य था।
 हम कलयुग में जी रहे हैं 21वीं सदी में यह कोरोनावायरस राज्य है, कलयुग का रामराज्य है। इसलिए रीढ़ की हड्डी के पूंछ छुपे कम रहते हैं। और ऐसे पूंछ, जो लंका का दहन कर सकें वे सिर्फ राम राज्य में प्रकट होते थे, सिर्फ विशिष्ट वानर प्रजाति में सुने जाते थे। तब भी किसी कुत्ते में हमने ऐसी पूछ के बारे में नहीं सुना था।
 भारत में वर्तमान रामराज्य का दावा करने वाली व्यवस्था में हमारे इर्द-गिर्द ऐसे कई मनुष्य हैं जिन्होंने कपट शास्त्र के "कुत्ते की पूंछ" को अपनी रीढ़ की हड्डी में छुपा रखा है। और कभी-कभी मूंछ बना कर उस पर ताव देते रहते हैं, वही उनका स्वाभिमान होता है। ऐसे व्यक्ति लगातार झूठ बोलते हैं.... लगातार चाटुकारिता करते हैं...... व हर बार जब नया करते हैं...., तो वे एक थीसिस लिख रहे होते हैं। उसमें उन्हें पीएचडी मिलती है,
जिसे वे खुद को बार-बार देते हैं । और बहुत कुछ भ्रष्टाचार का  धन भी पुरस्कार में मिलता है।
       फिर ऐसी प्रजाति के व्यक्ति किसी भी विश्वविद्यालय में, किसी भी पद पर, कहीं भी पहुंच जाते हैं.....  । किसी भी कार्य पालिक क्षेत्र में, किसी भी पद पर कहीं भी पहुंच जाते हैं। न्यायपालिका में हालांकि बहुत कम दृष्टांत पाए गए हैं। किंतु नहीं है,कि ऐसा भी नहीं है। यह कपट-ज्ञान की कर्मशीलता वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था का चरित्र बनता जा रहा है। लोकतंत्र के किसी भी तंत्र में, चाहे वह पत्रकारिता भी क्यों ना हो... कपट-शास्त्रियों की उपस्थिति बेहद खतरनाक है...... यह ठीक है कि, ऐसे चरित्र नायक जहां भी अपनी सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं वे अपने चरित्र को और अपने पूर्वजों को भी प्रमाणित करते हैं.... किन्तु दरअसल वह कपट-ज्ञान के ही अनुवांशिक से हैं। हो सकता है वह गौरवान्वित होते हैं। कपट ज्ञान तत्कालिक होता है और एक चरम में आकर, फिर वह चरम चाहे उनके विरासत में ही क्यों न दिखे, वह नष्ट हो जाता है।
  किंतु इससे समाज, को प्रदेश को देश को और दुनिया को मानवीय सभ्यता को बहुत कलंक लगता है। वह बहुत पतित होती है। जहां देश-दुनिया की बात है वहां इसे कुछ हद तक चाणक्य के कूटनीति के रूप में देखा जाता है।
 किंतु व्यक्तिगत जीवन सामाजिक परिदृश्य में में यह अति-निंदनीय घृणित और पतित उपलब्धि है। वैसे ही जैसे एक्सीडेंटल शब्दभेदी बाण चल जाने से राजा दशरथ का वर्तमान कष्टदाई दृष्टांत बन गया। व्यक्तिगत जीवन में दशरथ  पत्नीकृत्यों के कारण उनके पुत्रों ने एक कष्ट दाई जीवन जिया। फिर चाहे वे भगवान ही क्यों ना रहे हो ....?
     यह देखने में हमारे पास पुराणों में सिद्धहस्त अनुभव है।
   बावजूद, इसके हम पुनः आते हैं कि हम "कुत्ते की पूंछ" बनने का कामकरें..., क्यों किसी गौरव के साथ, "कुत्ते की पूंछ" को "अपनी मूंछ" बनाकर उस पर ताव देते रहते हैं......? क्या व्यक्तिगत मानव होने के कारण,
 और अगर हम ब्राह्मण हैं या फिर ठाकुर भी तो पूंछ और मूंछ में फर्क क्यों नहीं कर पाए...? यह हमेशा सोचना चाहिए।
 हो सकता है अनुवांशिक तौर पर हम पतित रहे हो, कर्मवीरता के हिसाब से हम कर्मयोगी ही हैं। अगर विश्वामित्र क्षत्रिय होकर ब्रह्मर्षि का अनुसंधान कर रहे थे, तो हम ब्रह्मर्षि या महर्षि होकर सिर्फ "कुत्ते की पूंछ" का कपट शास्त्र के ज्ञानी क्यों बनकर रहना चाहते हैं। राजनीति में हो सकता है "कुत्ता" या "कुत्ते की पूंछ" बना रहना उसकी गुणवत्ता की श्रेष्ठतम योग्यता हो। किंतु अगर आप विद्या के क्षेत्र में हैं.... कार्यपालिका के क्षेत्र में हैं...  या फिर अगर आप पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हैं तो कपट-ज्ञानी और कपट-अस्त्र का कम से कम प्रयोग करें..।
     आखिर कब तक कुत्ते की पूंछ बनकर.... हम क्या सिद्ध करेंगे..? यह ठीक है, मानव है तो मानव के बच्चे ही पैदा होंगे.. कुत्ते के बच्चे पैदा नहीं होंगे... लेकिन जब आप कपट-अस्त्र या इस कपट-ब्रह्मास्त्र का उपयोग करें तो मुस्कुराते हुए, अभिमान के साथ यह भी चिंतन रखें कि कहीं आपके घर में पालतू पफ तो नहीं पैदा हो रहा है....? जिसमें मानवीय गुण और मानव शास्त्र को दरकिनार रखने की क्षमता हासिल कर रखी हो..., जो लगातार झूठ बोलकर कोविड-19 का जन्मदाता होकर भी गर्व करें कि "सिद्ध करो मैंने कोविड-19 को जन्म दिया है...?
 तो मित्रों शुभम और मंगलम भी... हम श्रमवीर हैं, वक्त बुरा है ढल जाएगा... गुजर जाएगा... कोई तो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
हमें देख रहा है, जो कहेगा .....
"देखा मैंने उसे ,
इलाहाबाद के पथ पर,
वह तोड़ती पत्थर......"

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