आज डॉक्टर लोहिया का जन्मदिन है
और शहीद भगत सिंह का फांसी
का भी दिन.....
(त्रिलोकी नाथ)
मेरे घर में लगी यह तस्वीर इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि इस तस्वीर में खुद डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने हस्ताक्षर किए थे ... और हमारे पिता स्वर्गीय भोलाराम जी को प्राप्त हुई थी । इस तस्वीर में जैसे उनका स्पर्श हमें प्रेरित करता रहता है उन्हें विनम्रता पूर्ण श्रद्धांजलि देते हुए मेरा अंतर्मन विमर्श से प्रभावित है...
कहते हैं डॉक्टर लोहिया ने अपना जन्मदिन स्मृतियों में इसलिए ताजा रखना नहीं चाहते थे क्योंकि आज ही के दिन शहीद भगत सिंह को फांसी हुई थी और जब हम उन्हें याद करते हैं तो हमेशा भगत सिंह याद आते हैं। इसलिए हिम्मत भी नहीं पड़ती उनके जन्मदिन को हम ऐसे याद करें ।
शायद समाजवादी लोग अपने जन्मदिन को इसीलिए याद नहीं करते और उनका महत्त्व भी नहीं है क्योंकि आंदोलन समतामूलक समाज में न्याय की स्थापना हजारों साल की गुलामी के बाद "सबको न्याय" बहुत बड़ा मंथन है। यदि आपने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था दे दी तो वह किस प्रकार से वोट राजनीति का हिस्सा बन जाएगी अब बताने की जरूरत नहीं है.....
वर्तमान दिख रहे आरक्षण का भयानक शब्द नागरिक की गुणवत्ता पूर्ण जीवन के सामने अमीर और गरीब जैसी खाई पैदा कर दिया है... सबको न्याय यह उतना ही गरीब शब्द है जितना कि भारत में कभी वैचारिक गरीबी रही या अभी भी है ....
जब आरक्षण लागू किया गया था तब दलित और वंचित वर्ग को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने की कयावद थी और इसीलिए 10 वर्ष बाद पवित्र मंसा के लोगों ने समीक्षा की बात की थी..., 70 वर्ष बाद समीक्षा की बात करना एक पाप हो गया है.... इसलिए नहीं की न्याय हो गया है... बल्कि इसलिए क्योंकि अन्याय की स्थापना, अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को न्याय नहीं कर पाया है....
और विवाद के विषय "ऊंच-नीच, "छुआ-छूत" जैसे शब्दों से हटकर "आरक्षण और गैर आरक्षण" में जा समाया है। जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था को केंद्र में रखकर" ब्राह्मण भारत छोड़ो ...."जैसी गंदी मानसिकता अपनी-अपनी रोजगार और बाजार पैदा कर रहे हैं ...। वही डॉक्टर लोहिया ने स्पष्ट कहा था कि "ब्राह्मणवाद" याने की जैसे सनातन धर्म का "हिंदुत्व" पूरा सनातन धर्म नहीं, इसी प्रकार "ब्राह्मणवाद" अगर बाजार बन गया था शोषण का, तो उस बाजार को खत्म करना जरूरी था..... संविधान के जरिए वह प्रयास किए गए..। यहां तक कि उस दौर में डॉक्टर लोहिया ने कहते हैं जाति तोड़ो ...,जनेऊ तोड़ो... जैसे आंदोलन भी चलाएं।
आज तो हमें लगता है की आरक्षण की व्यवस्था ने" अन्याय की व्यवस्था का स्थापना किया। एक ही परिवार / एक ही प्रकार के वर्ग के आरक्षण के अंदर रजवाड़े पैदा हो गए ....उनके अपने ब्राम्हण पैदा हो गए, उनके अपने क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र पैदा हो गए हैं ....। कोई गैर आरक्षण वाला व्यक्ति चर्चा करता है तो उसे बस देशद्रोही की संज्ञा नहीं दी जाती बाकी सब कुछ कर दिया जाता है यह वैचारिक पतन की गलत निष्कर्ष था डॉक्टर लोहिया इस प्रकार का कोई सोच नहीं रखना चाहते थे याने मंथन बहुत था और यह एक सतत स्वतंत्रता का हिस्सा था..... जिससे भारत भटक गया .....
क्योंकि मल्टीनेशनल कंपनियां पूंजीवाद के सहारे भारत के संसाधनों को लूटने के लिए आरक्षण और गैर आरक्षण का सतत संघर्ष चाहते हैं ..वैसे कभी खत्म नहीं होने देना चाहते हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि आरक्षण के जरिए जो एक वंशवाद या कुछ मुट्ठी भर जातियां ऊपर आई हैं, उसके अलावा अन्य जातियों के ऊपर आयें।
दरअसल आरक्षण के अंदर ही जो चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई है पूंजीवादी ताकतें उसे संरक्षित करना चाहती हैं। यही कारण है कि वह पूंजीवाद के बाजार में उद्योगों में आरक्षण नहीं चाहते क्योंकि उन्हें मालूम है कि यह संपूर्ण न्याय नहीं है और बाजार को बनाए रखने के लिए इसी प्रकार का "आरक्षण और गैर आरक्षण" बरकरार रहना चाहिए।
याने "लूटो, फूट डालो और राज करो...." डॉक्टर लोहिया ऐसा समतामूलक समाज नहीं चाहते थे... डॉक्टर लोहिया को समझने के लिए जिस पवित्र मंसा की राजनीति की चाहत है, वह गंभीर रूप से बीमार है या मर चुकी है...? और इसीलिए चाहे डॉ राम मनोहर लोहिया हो या महात्मा गांधी अथवा अन्य कई बड़े दार्शनिक वे एक मिथक बनते जा रहे हैं एक नकाब के रूप में बाजार की प्रोडक्ट बनते चले जा रहे हैं....
और शहीद भगत सिंह का फांसी
का भी दिन.....
(त्रिलोकी नाथ)
मेरे घर में लगी यह तस्वीर इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि इस तस्वीर में खुद डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने हस्ताक्षर किए थे ... और हमारे पिता स्वर्गीय भोलाराम जी को प्राप्त हुई थी । इस तस्वीर में जैसे उनका स्पर्श हमें प्रेरित करता रहता है उन्हें विनम्रता पूर्ण श्रद्धांजलि देते हुए मेरा अंतर्मन विमर्श से प्रभावित है...
कहते हैं डॉक्टर लोहिया ने अपना जन्मदिन स्मृतियों में इसलिए ताजा रखना नहीं चाहते थे क्योंकि आज ही के दिन शहीद भगत सिंह को फांसी हुई थी और जब हम उन्हें याद करते हैं तो हमेशा भगत सिंह याद आते हैं। इसलिए हिम्मत भी नहीं पड़ती उनके जन्मदिन को हम ऐसे याद करें ।
शायद समाजवादी लोग अपने जन्मदिन को इसीलिए याद नहीं करते और उनका महत्त्व भी नहीं है क्योंकि आंदोलन समतामूलक समाज में न्याय की स्थापना हजारों साल की गुलामी के बाद "सबको न्याय" बहुत बड़ा मंथन है। यदि आपने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था दे दी तो वह किस प्रकार से वोट राजनीति का हिस्सा बन जाएगी अब बताने की जरूरत नहीं है.....
वर्तमान दिख रहे आरक्षण का भयानक शब्द नागरिक की गुणवत्ता पूर्ण जीवन के सामने अमीर और गरीब जैसी खाई पैदा कर दिया है... सबको न्याय यह उतना ही गरीब शब्द है जितना कि भारत में कभी वैचारिक गरीबी रही या अभी भी है ....
जब आरक्षण लागू किया गया था तब दलित और वंचित वर्ग को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने की कयावद थी और इसीलिए 10 वर्ष बाद पवित्र मंसा के लोगों ने समीक्षा की बात की थी..., 70 वर्ष बाद समीक्षा की बात करना एक पाप हो गया है.... इसलिए नहीं की न्याय हो गया है... बल्कि इसलिए क्योंकि अन्याय की स्थापना, अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को न्याय नहीं कर पाया है....
और विवाद के विषय "ऊंच-नीच, "छुआ-छूत" जैसे शब्दों से हटकर "आरक्षण और गैर आरक्षण" में जा समाया है। जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था को केंद्र में रखकर" ब्राह्मण भारत छोड़ो ...."जैसी गंदी मानसिकता अपनी-अपनी रोजगार और बाजार पैदा कर रहे हैं ...। वही डॉक्टर लोहिया ने स्पष्ट कहा था कि "ब्राह्मणवाद" याने की जैसे सनातन धर्म का "हिंदुत्व" पूरा सनातन धर्म नहीं, इसी प्रकार "ब्राह्मणवाद" अगर बाजार बन गया था शोषण का, तो उस बाजार को खत्म करना जरूरी था..... संविधान के जरिए वह प्रयास किए गए..। यहां तक कि उस दौर में डॉक्टर लोहिया ने कहते हैं जाति तोड़ो ...,जनेऊ तोड़ो... जैसे आंदोलन भी चलाएं।
आज तो हमें लगता है की आरक्षण की व्यवस्था ने" अन्याय की व्यवस्था का स्थापना किया। एक ही परिवार / एक ही प्रकार के वर्ग के आरक्षण के अंदर रजवाड़े पैदा हो गए ....उनके अपने ब्राम्हण पैदा हो गए, उनके अपने क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र पैदा हो गए हैं ....। कोई गैर आरक्षण वाला व्यक्ति चर्चा करता है तो उसे बस देशद्रोही की संज्ञा नहीं दी जाती बाकी सब कुछ कर दिया जाता है यह वैचारिक पतन की गलत निष्कर्ष था डॉक्टर लोहिया इस प्रकार का कोई सोच नहीं रखना चाहते थे याने मंथन बहुत था और यह एक सतत स्वतंत्रता का हिस्सा था..... जिससे भारत भटक गया .....
क्योंकि मल्टीनेशनल कंपनियां पूंजीवाद के सहारे भारत के संसाधनों को लूटने के लिए आरक्षण और गैर आरक्षण का सतत संघर्ष चाहते हैं ..वैसे कभी खत्म नहीं होने देना चाहते हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि आरक्षण के जरिए जो एक वंशवाद या कुछ मुट्ठी भर जातियां ऊपर आई हैं, उसके अलावा अन्य जातियों के ऊपर आयें।
दरअसल आरक्षण के अंदर ही जो चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई है पूंजीवादी ताकतें उसे संरक्षित करना चाहती हैं। यही कारण है कि वह पूंजीवाद के बाजार में उद्योगों में आरक्षण नहीं चाहते क्योंकि उन्हें मालूम है कि यह संपूर्ण न्याय नहीं है और बाजार को बनाए रखने के लिए इसी प्रकार का "आरक्षण और गैर आरक्षण" बरकरार रहना चाहिए।
याने "लूटो, फूट डालो और राज करो...." डॉक्टर लोहिया ऐसा समतामूलक समाज नहीं चाहते थे... डॉक्टर लोहिया को समझने के लिए जिस पवित्र मंसा की राजनीति की चाहत है, वह गंभीर रूप से बीमार है या मर चुकी है...? और इसीलिए चाहे डॉ राम मनोहर लोहिया हो या महात्मा गांधी अथवा अन्य कई बड़े दार्शनिक वे एक मिथक बनते जा रहे हैं एक नकाब के रूप में बाजार की प्रोडक्ट बनते चले जा रहे हैं....
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