सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

नद्दिन में नद्द..., शोणभद्र ......भाग-2) trilokinath










नद्दिन में  नद्द

 शोणभद्र
......भाग-2)
नमामि देवी नर्मदे...... ,किंतु गंगा ,सोन और नर्मदा  अजीबोगरीब प्राकृतिक संयोग के साथ पवित्रतम संयोग भी है। 

  बावजूद इसके ,सोन नद को कोई महोत्सव इसलिए नहीं मनाया जाता क्योंकि उसका अपना वोट बैंक "टुकड़े-टुकड़े गैंग "में बटा है। या फिर कम है ....और इसलिए भी उसकी चर्चा नहीं होती ।क्योंकि वह 55 वर्षों से चलता फिरता प्रदूषण का प्रमाण पत्र है। माफियाओं के लिए शिवराज सरकार में वरदान जो बना,अब भी माफिया राज कायम है ।
किंतु "आग्नेय-पुराण "ने इसका माहात्म्य जो बताया है वह शहडोल क्षेत्र के लिए कम से कम वरदान है..... और लोकतंत्र आने के बाद पांचवी अनुसूची मैं  शामिल होने के बाद भी  सोन नद  की दुर्दशा दुखद यह है कि, जो आध्यात्मिक ऊर्जा का तीर्थ शहडोल बन सकता है..., पर्यटन का व्यापक भंडार जहां भरा पूरा है.... उसकी चर्चा भी नहीं होती ।आखिर किन कारणों  सोन नद के पौराणिक  माहात्म्य, उसकी वैभवता, और उसके इतिहास, उसकी प्राकृतिक संसाधन की परिपूर्णता से उसे सार्वजनिक क्यों न किया गया......? आज सोन के माहात्म्य को हम इसलिए प्रदर्शित करना चाहते हैं कि कम से कम शहडोल क्षेत्र की जीवन रेखा के बारे में यहां के निवासी जान सकें कि वह किस पवित्र धरा पर सांस ले रहे हैं..... और पवित्रता का केंद्र "सोन नद" की लगातार हत्या के प्रयास हो रहे हैं..... क्या हमें अपने विरासत के अधिकार सुरक्षित नहीं रखनी चाहिए.....? क्या यह योजनाबद्ध तरीके से हमसे किसी मनुवाद की नफरत की भूमि पैदा करके प्राकृतिक संसाधनों से हमारी दूरी बना दी गई....? कौन है वह अपराधी...?, क्या आप पहचानेंगे...?
 लेकिन पहले आप पहचानिए कि हमारी विरासत में "शोण-नद" का  जब आराधना की आध्यात्मिक कड़ी हमसे छूट गई ...,तो प्रदूषण के लुटेरों ने, खनिज माफिया के लुटेरों ने..... हम सब को लूटना चालू कर दिया......
 दोहन, अलग बात है.... ,शोषण ,अलग.... इस पर चर्चा फिर करेंगे, पहले जानिए क्या है 
कि, कौन है और कितनी आध्यात्मिक परमाणु ऊर्जा,  तथा वैज्ञानिक लाभ का केंद्र सोन नदी हम से कैसे दूर करके रख दी गई.............



.......शोण जहां गंगा में प्रवेश करता है, वहां स्वयं ब्रह्मा विराजमान रहते हैं । वहां यदि भूल से भी कोई स्नान कर लेता है तो वह किसी का पुत्र नहीं बनता।( अर्थात, पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।)
 पूरे कार्तिक महीने भर जो शोण में स्नान करता है, वह निष्पाप तो हो ही जाता है, करोड़ो-हजारों युगों तक विष्णुलोक में निवास करता है। माघ और वैशाख मास में युग (वर्ष) के आरंभ और पुण्यपर्व में जो शोण में स्नान करता, दान देता और हवन करता है उसे परम गति प्राप्त होती है। पृथ्वी पर अत्यधिक धन और सुख भोगकर विष्णुपद को प्राप्त करता है। सूर्य के कन्या राशि में स्थित होने पर श्राद्ध करने वाला व्यक्ति विष्णुलोक जाता है।


हे विप्र (विद्वन ),और दूसरा क्या कहा जाए; शोणनद आपके लिए सेवनीय है। इस प्रकार मैंने आपसे शोण का माहात्म्य का महत्व कह सुनाया।
शोण-माहात्म्य ब्रह्मवादी मनुष्यों के लिए पुण्य    और मुक्ति देने वाला है। कृष्ण पक्ष (पितृपक्ष)में शोण तट पर एक बार भी पितरों को जल दिया जाए तो उस पुण्य से तृप्त होकर पितर ब्रह्म लोग चले जाते हैं। इसलिए पुराणों में ब्रह्मा ने इसे पितृतीर्थ कहा है ।इसलिए; सब प्रकार प्रयत्न पूर्वक (यहां) पितरों का श्राद्ध करना चाहिए। मघा नक्षत्र में शोण जल से पितरों का श्राद्ध करना चाहिए। इससे हे विभोपाल, पितरों की  क्षुधा आदि को तृप्ति मिल जाती है । हे विप्र, श्राद्ध दान से मनुष्य अक्षय संपत्ति-लाभ करते हैं।
 अंत में, हे मुनिश्रेष्ठ, पितरों के साथ ब्रह्मलोक को जाते हैं। शोण जल से जो बराबर तर्पण करता है, उसमें हे प्रभो, उसके पितरों को अनेक वर्षों तक के लिए तृप्त जानना चाहिए। इस शोण क्षेत्र में वेदज्ञो के लिए दिया गया दान करोड़ गुना होकर वापस मिलता है। निश्चित समय जो एक बार भी यहां ब्रह्म गायत्री का जाप करता है, वह अक्षय लोक को प्राप्त करता है। यह सच्ची बात मैं बार-बार कहता हूं।
 वासुदेव आदि देवता शोण-जल में सदा वास करते हैं इसलिए, हे ब्रह्मन् ,शोण को मैंने पवित्रतम स्थान बताया है



यहां च्यवन मुनि नित्य जाते और विधिवत स्नान करते थे; तथा वहां तप करके अपने पाप-रूप राक्षसों का विनाश कर अपने स्थान को वापस जाते थे । (एक बार उन्होंने) सपत्नीक स्नान किया और फिर भी अपने आश्रम को लौट आए। अगस्त्योदय होने पर, अर्थात शरद ऋतु में जो शोण में स्नान करता है वह अश्वमेध यज्ञ का फल-लाभ करता है।

 इस प्रकार ,मनुष्यों के लिए पुण्य प्रद शोण का माहात्म्य आपके लिए मैंने कहा।( जो माहात्म्य सुनता है) वह भी स्वर्ग पाता है, यह मैं सच सच कहता हूं। शोण-गंगा-संगम पर रहने वाला ब्राह्मण पितरों और देवों का तर्पण करके अग्निष्टोम् यज्ञ का फल पाता है। हे कुरु नंदन व्यास जी, शोण-नर्मदा के विलग होने वाले स्थान (जहां वे एक-दूसरे से भिन्न दिशाओं में जाती हैं) पर जो, वंशगुल्म (बांस की झाड़ी) के बीच में आश्रय लेता है वह वाजपेय यज्ञ करने का फल-लाभ करता है ।              
                               (कुल 36 श्लोक)
 "आग्नेय पुराण" में शोण-माहात्म्य कथन का 37 वां अध्याय समाप्त
 इसका इस प्रकार से वर्णन किया गया है 2 मिनट के लिए हम इसे मनुवादी और झूठा ही मांन ले, किंतु जो बातें हजारों साल पहले लिखी गई हैं उसमें दो तथ्य मुझे बहुत प्रभावित करते हैं एक, तो सोन का गंगा से मिलना जिसे कविराज भट्ट ने बेहतर प्रस्तुति के साथ दिखाया भी है और दूसरा, सोनका नर्मदा से विलग होना जहां "आग्नेय पुराण" के अनुसार इन दोनों के बीच में जो बांस की झाड़ी का जिक्र है वह तो वर्तमान में हमारे औद्योगिक विकास ने खा लिया है...., शायद वहां अब बांस की झाड़ी नहीं है? यह देश की आजादी का अर्ध सत्य है.... जहां विकास ने विनाश का तांडव किया है.और यह तब है जब शहडोल संविधान की पांचवी अनुसूची में सुरक्षित है...? यह संविधान का घेरा बनाकर प्राकृतिक संसाधनों की जमकर हत्या हो रही है, और लूटपाट भी।

 क्या मूलनिवासी  विरासतदार उत्तराधिकारी सजग भी हैं...? या फिर वर्तमान बाजारवाद की व्यवस्था में बाजारियो के लूट के गिरोह में थोड़ा सा जूठन पाने को लालायित हैं ...? जिसे अजीबका, गरीबी और मनुवाद की नफरत वाली जमीन पैदा करके बाजारवाद के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों को बेचने का काम किया गया है, क्या बनवासी आदिवासी समाज अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सतर्क है....? अथवा लूटने और लुटाने के लिए बेसब्र है.... आरक्षण की दुकानदारी में भी ,हमें किसी भी कीमत पर सूर्य की रोशनी से, बरसात से ,वन संपदा से अथवा प्राकृतिक विरासत की बिक्री से समझौता क्यों करना चाहिए.....?
 जबकि आग्नेय पुराण झूठा ही सही प्रकृति से प्रेम करने का आश्वासन तो देता है ..।जिसमें जीवन है, सौंदर्य है ,और विरासत की गारंटी भी। क्या हम जागरूक होने के लिए तैयार हैं... क्योंकि सोन तट पर प्रकृति का, पुरातत्व का और लोक कला का, लोग ज्ञान का ,वन औषधियों का विपुल भंडार है... जिसे भी हम पहचान भी नहीं पाए हैं ....?
एक बात और कहें कि "रासायनिक औद्योगिक जैविक उत्पाद" का अमूल्य भंडार है.... क्या आपमे बचाने की चिंता है...
 सोचिए और सोचते रहिए🤔🤔🤔.....

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