----इति आदिवासी क्षेत्र ---
इसीलिए हम कहते हैं कि शहडोल विश्वविद्यालय में एक दोहरा चरित्र है और यह चरित्र उस कुनबे का है जिसने विश्वविद्या ( त्रिलोकीनाथ )
लय को अपनी निजी प्रॉपर्टी की तरह एनजीओ के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है उसकी कटिबद्धता शहडोल जिले क शैक्षणिक गुणवत्ता को उत्कृष्ट पैमाने में पहुंचाने की बजाय भ्रष्टाचार की तमाम चरम अवसरों को खोजने के लिए एक शोध पीठ की तरह नजर आता है। "राजएक्सप्रेस" में प्रकाशित समाचार ने "पूत के पांव पालने" में जैसी परिस्थितियों का उजागर करने का काम किया है। ऐसे में महामहिम राज्यपाल लालजी टंडन की विश्वविद्यालय से की गई सार्वजनिक अपील कि वह "आदिवासी क्षेत्र में आदिवासियों के लिए शोध पीठ" का काम करें..,क्या वह एक सपना ही रह जाएगा ?कम से कम इस अखबार ने यह उजागर करने का काम किया है कि विश्वविद्यालय की दशा और दिशा क्या है...?
वह क्यों सार्वजनिक पारदर्शिता से बचना चाहती है । बहरहाल "ठगी की व्यवस्था और ठगा हुआ पत्रकार" पर बात छूट गई थी की, आखिर कुनबा की सोच क्या है वह क्या कहानी है, तो चलिए उसे पूर्ण करते है
भारतीय जनता पार्टी द्वारा स्वयं को "तथाकथित रूप से" ठगा हुआ महसूस किए जाने पर अंततः विश्वविद्यालय के कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया गया...?
जो कुनबा शहडोल विश्वविद्यालय को नियंत्रित करता है, वह भारतीय जनता पार्टी की "पितर-संस्था" के नियंत्रण से कहीं ना कहीं चलती है। उसका प्रभुत्व अघोषित तौर पर ही किंतु घोषित है। क्योंकि अंतिम निर्णय उन्हीं करना होता है। बावजूद इसके कि सब कुछ भाजपा के लोगों ने ही किया, किंतु भाजपा ने ही बहिष्कार क्यों किया....?
यहा पर यह बताना इसलिए जरूरी है की जिन लोगों ने राज्यपाल का कार्यक्रम विश्वविद्यालय के लोकार्पण के लिए सुनिश्चित किया उन्हीं लोगों ने सहजता से भारत विकास परिषद का एक कार्यक्रम होटल ग्रीन पार्क में भी सुनिश्चित कर लिया ।
आमतौर पर यह माना जाता है कि महामहिम राज्यपाल का कार्यक्रम संवैधानिक मर्यादाओं के दायरे में रखा जाता है, शहडोल के संदर्भ में उन स्थानों पर भी रखा जाता है जिससे शहडोल जैसेे आदिवासी क्षेत्र में संदेश जाए की महामहिम की उपयोगिता आदिवासी अंचल में किस हेतु है...?
भारत विकास परिषद का कार्यक्रम यदि किसी स्कूल प्रांगण में रखा जाता , तो स्वरूप अलग होता, किसी ग्रीन पार्क या किसी होटल में रखना महामहिम की पद की मर्यादा के अनुरूूप नहीं ...?
कुछ मोटे-मोटे आंकड़े जैसे आदिवासी क्षेत्रों में समझा दिए जाते हैं.., कोई 44 करोड़, कहीं 43.5 एकड़ जमीन, आठ भवन50-50 सीटर होस्टल आदि आदि। किंतु इसकी उपयोगिता का अंदाज महामहिम राज्यपाल लालजी टंडन के भाषण में स्पष्ट दिखा जिसमें उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में "आदिवासी कला एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए शोध पीठ स्थापित करें ",क्या इस दिशा में विश्वविद्यालय ने सोचा भी, शायद नहीं और और विश्वविद्यालय कर भी कैसे सकता था उसके लिए उसकी कोई तैयारी नहीं थी, ना हुई.., क्योंकि पूरी हड़बड़ाहट 44 करोड रुपए के भवन को जल्द से जल्द अपने हितों के लिए अपने स्वार्थ के लिए या जैसा कि कथित तौर पर कहा गया, भ्रष्टाचार के लिए समर्पित करना था... यह लोकार्पण जल्दबाजी का लोकार्पण था.
,अन्यथा पूर्व डिग्री कॉलेज जो वर्तमान का शंभू नाथ शुक्ला विश्वविद्यालय का अंग है इस के अनुभव से सीखा ही जा सकता है... की विश्वविद्यालय में यदि उत्कृष्ट स्तर के प्रोफेसर, उत्कृष्ट स्तर की सामग्री, उत्कृष्ट स्तर का प्रबंधन नहीं होगा तो किसी छोटे से आदिवासी छात्रावास में हो रहे नियमित भ्रष्टाचार के अलावा और कुलपति सिर्फ उठा हुआ हॉस्टल अधीक्षक के अलावा कुछ नहीं होगा..… तो हमारा इस्तर क्या था ...., पूरी शैक्षणिक योग्यता उसके पीछे स्थानीयता कि होने की योग्यता, हमारा संपूर्ण ज्ञान, शंभू नाथ विश्वविद्यालय को किस हेतु समर्पित हुआ.....? ऐसा नहीं है शहडोल डिग्री कॉलेज में उच्च स्तर के प्रबंधन के लोग नहीं है, किंतु उन्हें नहीं पूछा गया शायद इसलिए क्योंकि कुनबे को यह मंजूर नहीं था । कुनबे के स्वार्थ के भ्रष्टाचार के स्कूल में वे कोई ग्रहण नहीं लगना देना चाहते थे। और यदि पृष्ठभूमि में स्वार्थ का, भ्रष्टाचार का निर्माण है तो क्या होता है..
कुलपति जी जो कभी कन्या महाविद्यालय में प्राचार्य थे अनुभव किया होगा..., मुड़नानदी के किनारे किस प्रकार से बीटीआई के पास झाड़ियों के आस-पास छात्र-छात्राएं विवादित रूप से सामने चर्चित हुए थे...., यदि विश्वविद्यालय कैंपस सुरक्षित नहीं है तो भारतीयजनता पार्टी की ही नगरपालिका के परिषद ने सरफा नाला में अपने परिसर पर जो अस्थाई कॉटेज बना रखे हैं, उसका उपयोग पिकनिक के रूप में अपनी विलासिता के रूप में विश्वविद्यालय परिसर से जुड़े होने के कारण हमारी नई पीढ़ी गुमराह पूर्ण जीवन से में उपयोग करेगी। क्या उसके नियंत्रण के लिए कुनबे ने सोचा, शायद नहीं...., क्योंकि कुनबा कतई पसंद नहीं करता कि उसके सोच में कोई दखलंदाजी करें....
यह उसी का परिणाम है उसे भारतीय जनता पार्टी जो उनके ही परिवार का हिस्सा है, उसके लोग दखलअंदाजी करें... उसने "दूध में पड़ी मक्खी" की तरह लोगों को निकाल कर फेंक दिया।
दरअसल कुनबा तो है एक ही पितर-संस्था का सदस्य किंतु वह पूंजीवादी व्यवस्था की ओर विकास कर रहा है, उसे स्थानीय आदिवासी गंध पसंद नहीं है.. ,आदिवासी पन उसके व्यक्तिगत उत्कृष्टता को अछूत करता..? शायद यही कारण हैै कि कांग्रेस पार्टी के अंदर भी जो एक पूंजीवाद है और पितर-संस्था् का जो एक पूंजीवाद है जिसके माई बाप भ्रष्टाचार ही होते... उन्हीं की अघोषित सत्ता के कारण उसने अपने पितर-संस्था को "उपयोग करो और फेंक दो...". के अंदाज पर भाजपा की विकासवादी "विकास मॉडल" को ध्यान में रखकर लोकार्पण का कार्य कराया।
बिल्डर और ठेकेदार का भुगतान अन्य अपारदर्शी क्रय प्रणाली निजी जागीरदारी का हिस्सा मात्र है और ऐसी जागीरदारी में शहडोल के आदिवासी सांसद श्रीमती हिमाद्री सिंह अथवा आदिवासी विधायकों या फिर आदिवासी स्तर के पत्रकारों के लिए वक्त कहां है..? यह कुनबा क्यों तवज्जो देगा, कल के लिए इन की सलाह पर कहीं ऐसा ना हो कि मनमानी तौर पर अतिथि विद्वानों की नियुक्ति की दुकान ना बंद हो जाए....? भ्रष्टाचार के अवसर भाजपा के भाई-भतीजा वाद बंटवारे में खत्म ना हो जाए ... ,इसलिए उसने भाजपा से दामन छुड़ा कर कांग्रेस की पूंजीवादी दामन को पकड़ना अपने "विकास मॉडल" का हिस्सा माना। और यही कारण है कि महामहिम राज्यपाल जो उनकी उंगली के इशारे पर किसी ग्रीन गार्डन में जा बैठते हैं.. उन्हें शहडोल विश्वविद्यालय के लिए उपयोग कर लिया गया।
हो सकता है यह मेरी सोच गलत हो किंतु आंख भी बंद करता हूं तो यही दिखता है क्योंकि "अंधा क्या चाहे सिर्फ दो आंखें"...? हमें ध्यान रखना होगा शहडोल विश्वविद्यालय ही हमारी प्रशासनिक क्षमता और योग्यता का पैमाना है... आपका कंपटीशन अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय से होने वाला है, आपकी प्रतियोगिता अमरकंटक विश्वविद्यालय से होने वाली है, किंतु यदि अमरकंटक विश्वविद्यालय के कुलपति पर किसी महिला को गैरकानूनी संरक्षण देने का भ्रष्ट आरोप लग रहा है आपको उसे मॉडल के रूप में नहीं स्वीकार करना चाहिए...., अन्यथा आप जल्द ही शहडोल विश्वविद्यालय को बदनाम मुन्नी की तरह बदनाम कर देंगे.... और फिर कहेंगे "मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए.."
तो उचित नहीं होगा अगर "पूत के पांव पालने में" मेले हो रहे हैं तो मेल साफ करिए, जनाब साफ-साफ कपड़े पहनने से आपकी आदिवासी संस्कृति और स्थानीय झलक नष्ट नहीं होने वाले, गर्व करिए कि आप आदिवासी क्षेत्र की उत्कृष्टता के लिए चुने गए हैं, और उसी के लिए हमारा समर्पण होना चाहिए.... यही हमारे लिए और महामहिम राज्यपाल का संदेश भी है... मंगलम, शुभम..
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