रविवार, 17 नवंबर 2019

ठगी हुई व्यवस्था का ठगा हुआ पत्रकार।( त्रिलोकीनाथ )

( त्रिलोकीनाथ )
ठगी हुई व्यवस्था का
 ठगा हुआ पत्रकार

16 नवंबर का दिन शहडोल के लिए सिर्फ इसलिए खास नहीं था कि शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय याने "शहडोल विश्वविद्यालय" का लोकार्पण होना था। वह इसलिए भी खास था कि शहडोल के पत्रकारों और पत्रकारिता के आय अवसर प्रदान करता था। जो उसी प्रकार से ठगा हुआ महसूस कर रहा है जैसे कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा स्वयं को "तथाकथित रूप से" ठगा हुआ महसूस किए जाने पर अंततः विश्वविद्यालय के कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया गया...?

भाजपा के पितरसंस्था के गिरफ्त में शहडोल विश्वविद्यालय

इसकी कथा भी रोचक है कि जो कुनबा शहडोल विश्वविद्यालय को नियंत्रित करता है, वह भारतीय जनता पार्टी की "पितर-संस्था" के नियंत्रण से कहीं ना कहीं चलती है। उसका प्रभुत्व अघोषित तौर पर ही किंतु घोषित है। क्योंकि अंतिम निर्णय उन्हीं करना होता है। इस पर चर्चा बाद में करेंगे... कि बावजूद इसके कि सब कुछ भाजपा के लोगों ने ही किया, किंतु भाजपा ने ही बहिष्कार क्यों किया....?

लोकार्पण ,बिल्डर ठेकेदार के कार्य पूर्णता का....

तो आते हैं "गरीब की जोरू-सबकी भौजाई" के तर्ज पर चल रही आदिवासी क्षेत्र शहडोल की पत्रकारिता और यहां के पत्रकारों के हालात पर, यह इसलिए क्योंकि एकल विश्वविद्यालय एक स्वतंत्र संस्था है.... उसे खुद निर्णय लेने होते हैं... उसका खुद का जनसंपर्क अधिकारी होता है... जिसके जरिए विश्वविद्यालय से इतर व्यक्तियों से संपर्क रखा जाता है आदि आदि.... इसके बावजूद की आदिवासी बहुल क्षेत्र में करीब 44 करोड़ रुपए की भवन का लोकार्पण किया जाना है, लोकार्पण का सीधा सा अर्थ बिल्डर ठेकेदार के कार्यों की पूर्णता का प्रमाण पत्र दिया जाना। ताकि उसे उसकी पूर्ण राशि मिल जाए, एक सामान्य सी अवधारणा यही है। अन्यथा शहडोल में तो कई ऐसे अवसर देखे गए हैं कि बिल्डर बिल्डिंग की उद्घाटन नहीं होने देता, अगर उसका भुगतान नहीं होता है। बहराल तमाम कमियों के बावजूद असुरक्षित विश्वविद्यालय सीमा के जल्दबाजी में लोकार्पण हुआ।

अधजल गगरी... बनता शहडोल विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालय का जनसंपर्क विभाग भी उसी प्रकार से जीवित नहीं हुआ पत्रिका की माने तो जिस प्रकार से अध्यापन कराने वाला लंबा चौड़ा160 स्टाफ वहां पदस्थ नहीं हुआ। जो 34पदस्थ हुए भी वे उधार की व्यवस्था है, जो नई व्यवस्था है उसमें अतिथि विद्वान के जरिए हायर किए जाने के अवसर हैं, इसी में है पत्रकारिता का एक विभाग जो शायद रिक्त होगा... क्योंकि अगर पत्रकारिता यानी जनसंपर्क विभाग के लोग होते तो उन्हें यह संज्ञान अवश्य होता कि पत्रकारों से संपर्क करने के प्रोटोकॉल किस प्रकार के होते हैं...? क्योंकि इसे भी मध्य प्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग के माध्यम से प्रबंध कराया गया याने उधार की व्यवस्था में। क्योंकि पत्रकारों की अपनी एक जिम्मेदारी है, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। किंतु पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने वाले संस्थान के विभाग की विशेष इकाई क्या इसी प्रकार से अपने आमंत्रित को आहूत करती है...? खासतौर से पत्रकारों को। इसकी भी कोई शिकायत नहीं की जानी चाहिए, जितना ज्ञान है उतना ही विश्वविद्यालय के लोग कर पाएंगे... शिकायत सिर्फ इस बात से है कि एक स्वतंत्र इकाई होने के बावजूद विश्वविद्यालय द्वारा इस महत्वपूर्ण लोकार्पण समारोह को किसी स्कूल की उद्घाटन की तरह संपन्न करा दिया गया। कोई विज्ञापन अथवा प्रस्तुतीकरण वैध तरीके से अखबारों को प्रस्तुत नहीं की गई, समाचार आए कि क्या है, शहडोल का शंभू नाथ शुक्ला विश्वविद्यालय....?
किंतु पेड न्यूज़ की तरह आया...। इसलिए विश्वविद्यालय की संपूर्ण रूपरेखा आमजन तक नहीं पहुंच पाई। जो विश्वविद्यालय का नैतिक दायित्व था।

कुनबे में पारदर्शिता का अभाव....?

कुछ मोटे-मोटे आंकड़े जैसे आदिवासी क्षेत्रों में समझा दिए जाते हैं.., कोई 44 करोड़, कहीं 43.5 एकड़ जमीन, आठ भवन50-50 सीटर होस्टल आदि आदि। किंतु इसकी उपयोगिता का अंदाज महामहिम राज्यपाल लालजी टंडन के भाषण में स्पष्ट दिखा जिसमें उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय में "आदिवासी कला एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए शोध पीठ स्थापित करें ",क्या इस दिशा में विश्वविद्यालय ने सोचा भी, अगर हां...., वह प्रस्तुति क्यों देखने को नहीं मिली...?लोकार्पण के पूर्व प्रस्तुतीकरण में निश्चित तौर से इसपर प्रश्न उठते...?

मारे गए गुलफाम

बहराल इन्हें भी छोड़ दें, पत्रकारिता जगत और उसकी अजीबका पर निर्भर शहडोल की पत्रकारिता के पत्रकार, मीडियामैन की आमदनी का वैध आमदनी का यह बड़ा अवसर था...।

हमने अक्सर देखा है कि जब भी बड़े नेता आते हैं तो बड़े-बड़े विज्ञापन के जरिए लोग उनका स्वागत करते हैं, किंतु शहडोल के में मेरे देखे हुए 16 अखबारों में एक भी विज्ञापन में किसी ने भी लोकार्पण के लिए राज्यपाल जी के आने के लिए, 2-2 मंत्रियों के आने के लिए और लगे हाथ फग्गन सिंह कुलस्ते केंद्रीय मंत्री के आने के लिए भी कोई विज्ञापन जारी नहीं हुआ.....?

ऐसे में पत्रकार समाज क्या नेताओं का विश्वविद्यालय का या अफसरों का अघोषित गुलाम है जो इन्हें कवरेज करने पहुंच गया...? शायद इस मानसिकता को लोकार्पण करने वाले उनके सलाहकारों ने उन्हें बताया होगा....?

इसलिए स्वतंत्र इकाई होने के बावजूद भी विश्वविद्यालय प्रबंधन ने पत्रकारिता को आमदनी का कोई अवसर नहीं दिया। यह तो हमारा आदिवासी-पन है या फिर व्यापक दृष्टिकोण की सीमित होती ताकत...., जिसे सिस्टम ने नियंत्रित करना सीख लिया है। हां शहडोल में कुछ होल्डिंग्स जरूर देखें, जो शायद मुख्यमंत्री कमलनाथजी के निर्देश का पालन करते हुए अनुमति से लगाए गए होंगे।

मुख्यमंत्री कमलनाथ भलिभांति जानते हैं कि पत्रकारिता के आर्थिक हालात अच्छे नहीं है, शायद वे पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से भी अनावश्यक होल्डिंग के पक्ष में नहीं है, शायद उन्हें ज्ञान हो की होल्डिंग के तत्कालिक कारोबार ने पत्रकारिता के "कुटीर-उद्योग" की हत्या का काम कर रहा हो रहा है, और प्रचार के वास्ते यह प्रचार के बहाने पत्रकारिता की आमदनी भी हो जाती है... इसलिए भी उन्होंने "यूज एंड थ्रो" के मटेरियल फ्लेक्सी से दूरी बनाने का काम किया।

किंतु उनकी मंशा को खुद कांग्रेस पार्टी के लोग क्रियान्वित करने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं... और यही कारण है कि पत्रकारिता व पत्रकारों की आमदनी के सभी अवसर प्राय: खत्म कर दिए जाते हैं।

लोक स्तंभ के लिए, शून्य बट्टे सन्नाटा

जैसा कि शहडोल विश्वविद्यालय के लोकार्पण समारोह में खुद विश्वविद्यालय प्रबंधन ने और कांग्रेस पार्टी के लोगों ने विज्ञापन के जरिए अपने नेताओं के शहडोल आगमन पर स्वागत करने का जहमत नहीं उठाया। बावजूद इसके हर वर्ग चाहता है कि अखबार और पत्रकार उसे अपने समाचार पत्र में जगह दे.... यह मजबूरी है कुछ विज्ञापन चाहिए वैध तरीके से। छपे हैं, पेड़ न्यूज़ के जरिए छपे।
किंतु इसमें न्याय पूर्ण बंटवारा नहीं हो पाता ।आदिवासी क्षेत्र के पत्रकारों की यह भी एक दुर्गति है।

हो सकता है हमारा दृष्टिकोण गलत हो..? दुनिया और हमारा देश मंदी के दौर से गुजर रहा है.., 44 करोड रुपए की भवन के उद्घाटन में भी मंदी आ गई हो...?, कांग्रेस के नेता भी मंदी के शिकार हो..? किंतु देख कर तो कहीं से भी ऐसा नहीं लगता...?

यही कारण है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ गुलाम होने की कगार पर है... क्योंकि अब लोकप्रतिनिधी, लोकसेवक लोकतंत्र के प्रति नजरिया नहीं रखते.…। बल्कि वे नौकरों की तरह अपने मालिक को अपने गिरोहों और उनके कुनबा का पालन पोषण करते रहते हैं। और यही एकमात्र योज्ञता है।
किसी भी कीमत पर हम और हमारा कुनबा सफल रहे। यही लोकतंत्र है, इसी सोच का प्रदर्शन 16 नवंबर को शहडोल विश्वविद्यालय के अवसर पर महसूस करने का अवसर मिला ।हो सकता है मुझे गलत महसूस हुआ हो.... दुर्भाग्य से यही सच है। कम से कम मेरे लिए...🇹🇯

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