बुधवार, 29 मई 2019

तालाब हैं-तो हम हैं....तालाबों के संघर्ष में हमारा क्या योगदान....जो दिखता है वही सच है.....( त्रिलोकीनाथ )

तालाब हैं-तो हम हैं....
 10 वर्ष में क्या खोया क्या पाया ....
क्या होगी समीक्षा...
 तालाबों के संघर्ष में हमारा क्या योगदान....
 जो दिखता है वही सच है.....

  (  त्रिलोकीनाथ  )
महात्मा गांधी के संदेश में तीन बंदरों का अहम रोल था ,भारत में तीन बंदरों का संदेश; बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो और बुरा मत कहो। 21वीं सदी में कम से कम शहडोल में तालाबों के मामले में खासतौर से शासकीय और अशासकीय तालाबों के मामले में इस संदेश को हमेशा याद रखना चाहिए।
 हो सके तो भाजपा नगरपालिका को इन तीन बंदरों का भी एक चौराहा बना देना चाहिए...... जो यह संदेश दे ,किंतु संदेश बदल देना चाहिए......
 तालाबों के संदर्भ में; अच्छा मत सुनो, अच्छा मत देखो और अच्छा मत कहो........ 
ससे फायदा यह होगा कि लोगों की धारणा में हृदय परिवर्तन होगा। क्योंकि जो व्यक्ति तालाब संरक्षण के मामले में जरा भी चिंतन-मनन करते हैं, उन्हें दुख होता है.... क्योंकि पालिका परिषद अथवा जिला प्रशासन इसे विषय ही नहीं मानता ....और कभी, कम से कम 10 साल पूर्व में तत्कालीन शहडोल कमिश्नर अरुण तिवारी जी के साथ जो बैठक हुई और जो निष्कर्ष निकले उसका अनुपालन के बाद कई तालाब कुछ तो लुकाछिपी करके, मिलजुल कर तो कुछ न्यायालय के आदेशों से मरने की कगार पर आ गए..... 
क्योंकि न्यायलीन आदेश तो सिर्फ कानून की त्रुटियों को तकनीकी रूप से ठीक करने का काम करते हैं..... उन्हें तालाब संरक्षण अथवा संरक्षण न देने की तकनीकी भाषा जब तक बताई ना जाए तब तक वह उस पर टिप्पणी नहीं करते.... क्योंकि उनकी आंख में पट्टी बंधी होती है वहां पर खुला संदेश है। एक महिला न्याय का तराजू पट्टी बांधकर आंख में अपना कर्तव्य करती दिखाई देती है .............. ।
विषय भटक ना जाए इसलिए हम सीमित रहेंगे.... विगत 10 वर्षों में तत्कालीन कमिश्नर के बाद उनके संभाग में कम से कम शहडोल जिले में और बहुत कम माने तो शहडोल नगर में प्रायोगिक तौर पर इस बैठक में शहडोल से तालाब संरक्षण यह समीक्षा 10 वर्षों बाद अवश्य करनी चाहिए...... कि 10 वर्ष पूर्व कितने तालाब चिन्हित हुए और उसमें सकारात्मक तरीके से बचाने के क्या प्रयास हुए.....,?
 "जब हम सकारात्मक तरीके की बात करते हैं तो तालाब के पास पड़ोसियों उन अतिक्रमणकारियों को भी जो मेड पर बंदरों की तरह बैठ गए हैं उनका हित भी तालाब हित में कैसे जुड़ सकता है...? उनका नहीं, जो तालाब के अंदर घुस गए हैं ....क्योंकि तालाब की अवधारणा में तालाब जल ग्रहण क्षेत्र तालाब का मेड़ और तालाब में आने वाला पानी का रास्ता भी, तालाब की मेड पर लगने वाले वृक्षों के संरक्षण से होता है। अब तालाब के मेड़ पर खासतौर से शहरी तालाबों में वृक्षों की जगह अतिक्रमणकारी बंदरों ने ले लिया है, जो मनुष्य के रूप में सभ्य नागरिक की तरह रहना चाहते हैं। तो इनका हित भी सुनिश्चित करना तालाब विशेषज्ञ को देखना चाहिए...... ऐसी अपनी आदिवासी अवधारणा है....., किंतु किसी भी कीमत में तालाब जल क्षेत्र का रकबा, अतिक्रमण करने वाले लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए .......।अथवा उनसे मिलकर कोई भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए.... कम से कम भू अभिलेखों में तो बिल्कुल नहीं.......?
 यह भाषण बाजी इसलिए जरूरी है क्योंकि कल ही हमने शहर के खाली होते तालाबों के बीच में एक भरे तालाब को भी दिखाया जो अपना जल क्षेत्र का रकबा इन अतिक्रमण कारी बंदरों के साथ लड़ता हुआ दिखता है .....और सभ्य नागरिक /सभ्य समाज का नकाब पहनकर  सब तालाब के जल क्षेत्र के रकबे पर उसे नष्ट करने का काम कर रहे होते हैं...........?
 तो जहां यह तालाब संघर्षरत हैं कम से कम जिला प्रशासन को या पालिका प्रशासन को उनके संघर्ष में साथ देना चाहिए... जो कमिश्नर की बैठक के 10 साल बाद भी होता नहीं दिखता ...? 
चलिए कुछ फोटो और डालते हैं.... इसी तालाब पर साथ ही. यह भी बताते हैं कि कैसे सुहागपुर के तालाब को बचाने के लिए जो करीब 25 एकड़ की जमीन पर अपना विस्तार चार-पांच तालाब समूहों ंंमग्रोहिहा तालाब , देवतरा , देवतरी , बड़ा तालाब , गुरु तालाब रूप में किए हुए हैं उन्हें नष्ट करने का काम हो रहा है, यह प्रशंसनीय है कि एक व्यक्ति लगातार इस लड़ाई को लड़ रहा है.... ऐसे संघर्षरत उस ब्राह्मण व डेली वेजेस पर अपनी आजीविका चलाने वाले व्यक्ति को हमारा नमन है..... यह भी एक तपस्या है, जो ब्राह्मण होने के कर्तव्य को करता दिखाई देता है।
 एक लड़ाई तो कम से कम जीत ली गई है.... ? 
कलेक्ट्रेट के ठीक सामने, आईजी हेड क्वार्टर के ठीक पीछे, और कमिश्नर ऑफिस के बगल में कहा जा सकता है..... जहां 2 तालाबों को निजी रखने में अभिलेखों में बदल दिया गया था ,वहां पर रखे पुरातत्व अवशेषों को नष्ट करने का काम हुआ .....माननीय न्यायालय मे जब याचिकाकर्ता ने बताया कि यह तालाब हैं.... तो पुनः शासकीय अभिलेख के रूप में तालाब संरक्षित करने का काम हुआ.... किंतु सिर्फ भू अभिलेखों में....?   बेहतर होता इस पर तत्काल अद्यतन स्थिति की तालाब-संरक्षण का काम होता है..... ताकि तालाब भी सुरक्षित रहें और उसके मेड पर बस चुके वृक्षों की जगह अतिक्रमण कारी बंदरों को भी कैसे सुरक्षित रखा जाए.....? यह भी देखना चाहिए। जो व्यावहारिक होगा ....और यह कैसे होगा.... मंथन करना चाहिए ....?  
सिर्फ कलाकार कलम चला कर, पिंड छुड़ा लेना कि यह तालाब हैं..., तालाब को, "पुनः मुसक: भव" के अंदाज पर श्राप देना, प्रशासन मे भी उस मूर्ति के प्रति प्रतिबद्धता दिखाता है... जो हमारी न्यायपालिका में "तराजू लेकर आंख में पट्टी बांध दी दिखती है"..,?
 इससे बचना चाहिए प्रशासन को व्यावहारिक पक्ष के साथ लोकहित सुनिश्चित करने का दायित्व निभाने का तरीका क्या आ सकता है.... यह हमारे लिए वर्तमान का बड़ा संघर्ष है.... फिर भी आशा पर आकाश टिका है की स्वास तंत्र कब टूटे.... जब तक तालाब की अंतिम सांस बची है तब तक प्रयास करने में कोई नुकसान नहीं है.....
 कम से कम हमारी आदमीयत..., हमारी इंसानियत और हमारी शैक्षणिक-दक्षता... अगर भ्रष्टाचार से पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो गई है....? अथवा हमने अपना ईमान पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में पूरी तरह से  बेच नहीं दिया है तो.... हमें जरूर थोड़ा सा ही सही, मंथन करना चाहिए..........?
 आखिर हम है तो आदमी ही, तालाब हैं-तो हम हैं.............. हो सकता है हमारा ट्रांसफर हो जाए ...,किंतु जहां भी जाएंगे हम हैं तो आदमी ही..... वहां हमारे जैसे ही लोग बसते हैं यह सोचना चाहिए............?
 फिलहाल तो हम अपनी आदिवासी स्तर की समझ में यही सोचते हैं ........।शुभम भवेत्....

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