मुखर होती, आदिवासी-राजनीति : भाग-1
======त्रिलोकीनाथ=========
1957: कमल नारायण सिंह / आनंद चंद्र जोशी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
1962: बुद्धू सिंह उटिया, सोशलिस्ट पार्टी
1971: धन शाह प्रधान, निर्दलीय
1977: दलपत सिंह परस्ते, भारतीय लोक दल
1980: दलबीर सिंह, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंदिरा)
1984: दलबीर सिंह, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
1989: दलपत सिंह परस्ते, जनता दल
1991: दलबीर सिंह, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
1996: ज्ञान सिंह, भारतीय जनता पार्टी
1998: ज्ञान सिंह, भारतीय जनता पार्टी
1999: दलपत सिंह परस्ते, भारतीय जनता पार्टी
2004: दलपत सिंह परस्ते, भारतीय जनता पार्टी
2009: राजेश नंदिनी सिंह, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
2014: दलपत सिंह परस्ते, भारतीय जनता पार्टी
2016: ज्ञान सिंह, भारतीय जनता पार्टी बीसवीं सदी के अंत में शहडोल संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल हुआ ।आदिवासी विशेष क्षेत्र के रूप में चिन्हित होने के बाद आदिवासी समाज मुखर हुआ प्रतीत होता है और अब तक जो चुपचाप सब कुछ से करता हुआ राष्ट्रीय मुख्य धारा की तलाश में संभावनाओं को टटोलता रहता था ।
यह पहला अवसर था 2016 में जब मध्य प्रदेश के एकमात्र आदिवासी संभाग शहडोल की शहडोल लोकसभा संसदीय चुनाव में शहडोल के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव भारतीय जनता पार्टी के नेता शिवराज सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया ।ना चाहते हुए भी विधायक ज्ञान सिंह को सांसद बनाया गया। यह अलग बात है कि हाईकोर्ट में सूचना को निरस्त कर दिया ।
इसी चुनाव में कांग्रेस नेता कमलनाथ के प्रस्ताव पर शहडोल के सांसद रह चुके पति-पत्नी श्रीदलवीरसिंह तथा श्रीमती राजेश नंदनी सिंह की पुत्री सुश्री हिमाद्री सिंह को चुनाव पर उतारा गया था ।कुछ भी हो आदिवासी संघर्ष कार्यकाल की राजनीति में मध्यप्रदेश में दलवीर सिंह का बड़ा नाम रहा ।।वे केंद्रीय मंत्री भी रहे और अर्जुन सिंह की राजनीति को अनुसरण करने वाले कुशल नेता भी रहे । दुर्भाग्य परिस्थितियों में दलवीर सिंह और उनकी धर्मपत्नी का निधन हो गया किंतु उनकी लोकप्रियता उनकी राजनीतिक मुखरता स्पष्ट होने के कारण शहडोल संसदीय क्षेत्र के लोगों में वे नेता थे ।इसकी कमी लगातार बरकरार रही।
कहने के लिए शहडोल क्षेत्र विंध्य प्रदेश का हिस्सा रहा किंतु विंध्य की राजनीति सिर्फ उपयोग करने की रही। तरह विन्ध्य का होते हुए भी वर्तमान शहडोल बिंध्य का नहीं रहा,महाकौशल का इसलिए नहीं था क्योंकि चंदिया के आसपास उसकी सीमा समाप्त हो जाती थी, छत्तीसगढ़ का भाग इसलिए नहीं था क्योंकि अमरकंटक में व सीमा बंद हो जाता था। बावजूद इसके आदिवासी क्षेत्र होने के कारण तीनों राज्यों के तीनों प्रांतों के बीच में विन्ध्य- मेंकल पर्वत की गोद में प्राकृतिक रूप से हरा-भरा प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण शहडोल क्षेत्र एक प्रकार का राजनीतिक संगम है, जहां छत्तीसगढ़ी , बुंदेलखंडी और बघेलखंडी की राजनीति अपना छाप रखती है।
शहडोल क्षेत्र का अपराध सिर्फ यह था कि यह आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र था, प्राकृतिक संसाधनों का धनाढ्य, वैभवशाली पुरातात्विक परिपूर्णता के कारण पूरे भारत से इस क्षेत्र में लोगों का जमावड़ा होने लगा ।इसके बावजूद भी आदिवासी नेतृत्व की मुखरता का अभाव शहडोल की कमी बन गई। बहरहाल 2016 में कांग्रेसी विरासत का प्रायः सर्वसंपन्न परिवार की सुश्री हिमाद्री सिंह पर भाजपा की नजर बनी हुई थी तब उसने संजय पाठक मंत्री को चौकीदार भी नियुक्त कर दिया था कि वह हिमाद्री सिंह को भाजपा से चुनाव लड़ामें।
किंतु जैसा कि आदिवासियों संस्कार-बस प्राथमिकता अपनी विरासत की राजनीति के लिए होता है उन्होंने थोड़ा सा जगह मिलने पर कांग्रेस पार्टी से ही चुनाव लड़ना सही समझा। और शायद यही समझ हिमाद्री सिंह की गलती थी...?, अपने विरासत की राजनीतिक पूंजी को लगाकर कांग्रेस से चुनाव तो लड़ गई किंतु जैसा कि तब उनके चुनाव में आई हुई पूर्व राज्यपाल श्रीमती उर्मिला सिंह ने कहा कि कांग्रेस ने सिर्फ चुनाव का टिकट दे दिया है चुनाव जिताने में शायद किसी भी नेता की रुचि नहीं थी। वह सब भगवान भरोसे सत्ता विरोधी हवा की लहर में सवार होकर आदिवासी क्षेत्र को जीतने का सेहरा अपने सिर में लगाने के लिए शहडोल शहर के बाहर एक होटल के अंदर बंद कमरों में एसी का आनंद लेते रहे। स्वयं कमलनाथ जिन्होंने कहा था की हिमाद्री सिंह और शहडोल उनकी जिम्मेदारी है उन्होंने भी जबलपुर के अधिवक्ता सांसद विवेक तंखा के भरोसे इस जीती हुई सीट को जीतने के लिए छोड़ दिया ..?
नतीजतन जहां एक और सर्व संपन्न साली मुख्यमंत्री शिवराज सिंह साम-दाम-दंड-भेद से सशक्त होकर अपनी इज्जत दांव में लगा कर लोकसभा उपचुनाव को जिताने के लिए लगने लगे थे, वही कांग्रेस के नेता एयरकंडीशन से बाहर निकालने में परहेज कर रहे थे.. बल्कि कहना ज्यादा उचित होगा बंद कमरों के अंदर किसी चुनावी कोष का इंतजार कर रहे थे.... ताकि उसका प्रबंधन कर सकें। और इस ऊहापोह में अंत अंत में चुनाव प्रत्याशी हिमाद्री सिंह की रिश्तेदार पूर्व गवर्नर उर्मिला सिंह ने किसी तरह अपने निजी कोष से चुनाव को संवारने का भी काम किया ।इन हालातों में जो होना था वह हुआ, जो तय था....? कुछ नाम मात्र के वोटों पर भाजपा के ज्ञान सिंह चुनाव जीत गए। यह कोई डेढ़-2 साल पहले की बात है।
किंतु कांग्रेस पार्टी ने इस घटना से कुछ भी नहीं सीखा ...? की किस प्रकार से बिखरते हुए आदिवासी-कांग्रेस-परिवार का ट्रस्ट जीता जाए...? बहरहाल चतुर-चालाक भारतीय जनता पार्टी इस भावनात्मक बिखराव पर नजर रखे रही , संयोगवश हिमाद्री सिंह की विवाह भाजपा नेता नरेंद्र मरावी के साथ हो गया। सोने में सुहागा के अंदाज में भाजपा, कांग्रेसी-विचारधारा परिवार के घर में घुस चुकी थी बस थोड़े से और अविश्वास की जरूरत थी।
जो सत्ता में आने के बाद कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व अपनी कबीलाई-राजनीति को मजबूत करने में ही जुटा रहा बजाए 15 साल कि भाजपा शासन से कुछ सबक लेने के...? यह भी हो सकता है की तब कांग्रेस प्रत्याशी हिमाद्री सिंह को किसी नूरा-कुश्ती के तहत कबीलाई राजनीति ने शिवराज सिंह के सम्मान को बचाए रखने के लिए जानबूझकर हराया गया हो...?
किंतु इन सब के पीछे राजनेता यह भूल गए की करीब दो दशक पूर्व पांचवी अनुसूची में शामिल और सात दशक से स्वतंत्र भारत में रहने के बाद आदिवासी समाज राष्ट्रीय मुख्य धारा में भी मुखर हो रहा है, बल्कि हो गया है । जिसको सिद्ध किया शहडोल के ही प्रभारी मंत्री डिंडोरी निवासी ओमकार सिंह मरकाम ने। जहां उन्होंने मध्य प्रदेश के राज्यपाल श्रीमती आनंदीबेन पटेल की कार्यप्रणाली जो डिंडोरी के दौरे पर देखी व पाई तो अपनी आसंतुष्टि जाहिर करने के लिए अंततः अपने समर्थकों के साथ कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद सर्किट हाउस डिंडोरी में गवर्नर के खिलाफ नारेबाजी करवाई और जब कलेक्टर द्वारा इस बात पर आपत्ति प्रकट की गई तो उन्होंने नारेबाजी को संवैधानिक अधिकार भी बताया। साथ ही स्वयं को आदिवासी बताते हुए बड़ी विनम्रता से अज्ञानी कहकर कानून का ज्ञान समझाने की बात भी कही..? जो नई पीढ़ी के आदिवासी समाज कि मुखरता प्रमाण भी है।
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