"चौकीदार-कुरान"-भाग 2
=========त्रिलोकीनाथ=========
ऐसे ही कुछ हालात भारत की राजनीति में अब दिख रहा है जिसमें जुए की चाल की तरह, शतरंज की चाल की तरह नहीं ...,जुए की चाल की तरह है नहले पर दहला फेंकते हुए अक्सर नरेंद्र मोदी अपने पत्ते खोलते रहे हैं । इसी दौर पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वह "देश के चौकीदार हैं" ,प्रथम सेवक हैं तो राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि "चौकीदार चोर है" क्योंकि उसने उद्योगपति अनिल अंबानी को रफाल डील में नाजायज लाभ पहुंचाया । नरेंद्र मोदी ने मौन व्रत साधे रहे, हालांकि मोनी बाबा के नाम से पूर्व प्रधानमंत्री कांग्रेस के ही डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रचारित रहे बावजूद इसके मौन व्रत नरेंद्र मोदी ने साधा और जब चुनाव नजदीक आया तो उन्होंने अपना मुंह खोला और "चौकीदार चोर है" के जवाब में उन्होंने अपना पत्ता फेंका और एक कैंपेन चालू किया जिसका नाम था "मैं भी चौकीदार"।
उन्होंने शायद सोचा रहा होगा इससे बात बनेगी किंतु उन्हें नहीं मालूम अपने भाई को इस प्रकार पराजित नहीं देखने वाली प्रियंका गांधी प्रयागराज से जब गंगा का आशीर्वाद लेकर अपनी वोट यात्रा प्रारंभ की, एक बड़ा बयान दिया तथा ताश के पत्ते की तरह फिर नहले पर दहला फेंका और कहा कि "चौकीदार तो अमीरों के होते हैं", गरीब किसान अपने खेतों की चौकीदारी खुद करता है ।
इस तरह प्रधानमंत्री पर निशाना साध राजनीति की जुए का पत्ता फेंकते हुए जवाब दिया कि वह कुछ चुनिंदा उद्योगपति अमीरों के चौकीदार हैं .....? ,गरीबों को चौकीदारों की जरूरत नहीं पड़ती । स्वाभाविक है यह देश किसानों और बहुतायत गरीब परिवारों का देश है जहां चौकीदार की जरूरत नहीं है। ऐसे में अगर चौकीदारी के रिक्त पद पर भर्ती भी की जाए तो भी मैं भी चौकीदार की योग्यता रखने वाले भाजपा कार्यकर्ता के लिए रिक्त पद ही नहीं है ....? तो फिर उनकी नियुक्ति क्यों होगी..?
यह प्रश्न लोकसभा के आम चुनाव में अभी कितना अहम होगा यह कहना जल्दबाजी होगी की जनता अपने नए चौकीदारों को जो योग्यता का प्रमाण पत्र लेकर मतदाता के पास पहुंच रहा है कि "मैं भी चौकीदार" , उन्हें नियुक्ति देती है या नहीं...? क्योंकि वह स्वयं देखेगी कि रोजगार का वादा 5 साल में 10 करोड़ रोजगार के अवसर पैदा करने का काम क्यों नहीं हुआ...? या नहीं। और ऐसी स्थिति में आज स्वयं "मैं भी चौकीदार" की योग्यता का प्रमाण पत्र लेकर अगर आप मतदाता के द्वार पर पहुंचते हैं तो वह आप को रोजगार क्यों देगा..... आदि आदि।
इस प्रकार भारत की राजनीति में यह मनोरंजक होगा कि अगर राजनीति और संसदीय प्रणाली जुआ घर की तरह निर्वाचन की प्रक्रिया को बदलने का प्रयास करती है वास्तविक मुद्दों से किनारा काटती है तथा ताश के पत्तों में निर्वाचन के अवसर देखती है तो क्या मतदाता ऐसे वातावरण को भारतीय राजनीति में जगह भी देता है अथवा नहीं...? क्या वह इसे कि "चौकीदार चोर है " अथवा "मैं भी चौकीदार " या फिर "चौकीदार अमीरों के होते हैं" की जरूरत होती है आदि आदि निर्वाचन का मुद्दा बन पाएगा....?
फिलहाल "चौकीदार-कुरान,भाग 2 में यहीं पर समापन करते हैं। उम्मीद करते हैं चौकीदार पुनह कोई नया अध्याय लिखने का अवसर देंगे, क्योंकि कहने सुनने और देखने के लायक क्या है यह स्वयं मतदाता या मत-मालिक तय करेगा ; सिर्फ चौकीदार नहीं ........?
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