पुलिस
"साप्ताहिक-अवकाश "
एक साहसिक मानवीय कदम
5 जनवरी को जनसत्ता में प्रकाशित यह व्यंग्य दशकों
बाद आई की पुलिसिया-व्यवस्था
में मानवीय-श्रम
की संवेदना के शोषण का एक गुदगुदा किंतु परंपरा से प्रथा बनी पुलिस
`व्यवस्था का
प्रमाण है. कि
किस प्रकार से भारतीय पुलिस व्यवस्था में एक शोषणकारी आंतरिक व्यवस्था ने अनुशासन
का नकाब पहनकर मानवीय श्रम को अपमानित किया था. मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री कमलनाथ अनुभवी राजनीतिक व्यक्ति होने के
कारण ही कांग्रेस के वचन पत्र की दमन व शोषणकारी पुलिस अनुशासन की व्यवस्था को
सर्वोच्च प्राथमिकता के काम पर सुधार करने का काम किया है, निश्चित ही वह पुलिस सुधार के कदम पर
बधाई के पात्र हैं.
( त्रिलोकीनाथ )
कम
वेतनमान पर 24 घंटे की ड्यूटी किसी बंधुआमजदूर की तरह
राजतंत्र में पनप रहे पुलिस व्यवस्था की याद दिलाती है. जिसमें उसे उस पुलिस कर्मचारी को
स्वतंत्र भारत में होने का एहसास सिर्फ इस बात पर नहीं हो जाता है कि वह अपनी
नौकरी और अनुशासन में सीखे हुए जीवनक्रम को भारत की शेष नागरिक सेवा में उसी नजरिए
से जीने का प्रयास करता था, स्वाभाविक
है कि व्यक्ति अपने अनुभवों को ही समाज में और परिवार में देखता है. यदि कोई पुलिस का सिपाही अपने जीवन
में बंधुआमजदूरी और शोषणकारी अनुशासनिक व्यवस्था का नकाब पहनकर व्यक्तिगत जीवन को
ही लोकतंत्र के रूप में देखता है तो वह समाज को भी वही सब कुछ बांटने का प्रयास
करता है जो उसके व्यक्तित्व का और चरित्र का हिस्सा बन जाती है.. फिर लोग कहते थे कि पुलिस बहुत खराब
विभाग है.. ?
सोशल
पुलिसिंग के बहुत से नवाचार हो रहे हैं, उसी में एक है महिला पुलिस की संख्या में बढ़ोतरी. किंतु जब तक नैतिक व मौलिक दायित्व पर
जाए तब बंधुआ या शोषणकारी व्यवस्था में महिलाओं की एंट्री एक खतरनाक खेल भी है. हाईटेक व्यवस्था ने इसमें अवरोधक खड़े
करने का काम सीसीटीवी के जरिए अथवा पारदर्शिता के नाम पर जरूर हुआ है किंतु वास्तव
में जैसा कि “मीटू
आंदोलन” जैसे नए घटनाओं
का सार्वजनिक कारण हुआ है उससे स्पष्ट है कि पत्रकारिता में ही जहां नैतिकता का
ठेका लिया गया था,
वहां पतन की पराकाष्ठा रही हो और जिसकी चरम स्थिति प्रमाणपत्र के रूप में आज हमारे
पास है कि एमजे अकबर जैसे वरिष्ठ पत्रकार को भी भारत की कैबिनेट मंत्रीमंडल से
अपमानजनक हालात में इस्तीफा देकर अपना पिंड छुड़ाना पड़ा. और कानूनी व न्यायालय के संरक्षण में
मुंह छुपाने का प्रयास हो रहा है.
ऐसे हालत में अनुशासन के नकाब पर पुलिस की व्यवस्था में महिला पुलिस बल को पुरुष
पुलिस बल के साथ कदम से कदम मिलाकर काम करना एक बड़ी चुनौती भी है. जिसमें मुख्यमंत्री कमलनाथ का पुलिस
व्यवस्था में साप्ताहिक अवकाश मील का पत्थर साबित होगा. बावजूद इसके बहुत कुछ है जो पुलिस
सुधार में एक लोकतांत्रिक पुलिस व्यवस्था को पारदर्शी तरीके से करना चाहिए.
शहडोल
के एक पुलिस कर्मचारी ने मुझे बताया कि किस प्रकार से अचानक पुलिस हेड क्वार्टर से
जानकारी मंगा ली जाती है और पुलिस कर्मचारी जब ट्रेन में जाता है तो कहने के लिए
उसे भलाई पुलिस की सीट एसी का टिकट मिला हो किंतु यदि ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं है
तो उसे खड़े खड़े ही भोपाल तक की लंबी यात्रा करनी होती है. यह भी पुलिस में सुधार का एक बड़ा
अवसर है.. तब जबकि पुलिस, रेल-पुलिस के रूप में अपनी सेवाएं देती है. वह अभी तक छोटी-छोटी तकनीकी सुधारों के लिए सोचने का अवसर भी नहीं
निकाल पाई है..?
जबकि स्वयं पुलिस को ही इन्हें ठीक करना है. इसका मतलब है कि बंधुआपन और शोषणकारी व्यवस्था में व्यस्तता अनुशासन
के नाम पर इस कदर हावी है कि वह अपनी आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठीक करने में
असफल रही है.
निश्चित तौर पर बंधुआ मजदूरी और शोषणकारी आंतरिक
अनुशासनिक व्यवस्था में बौद्धिक आईपीएस अधिकारी नए-नए नवाचार करके पुलिस की आंतरिक
लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ ज्यादा मजबूत और ज्यादा स्वस्थ इसलिए भी करेंगे कि
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए एक मजबूत अनुशासनिक संगठन, स्वस्थ विचारों वाला, नैतिक मापदंडों से भरा-पूरा होना ही चाहिए.
यह
इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मुझे याद है कि जब मैंने 1996-97 के दौर में अपने अखबार “विजयआश्रम” को शहडोल जिलापंचायत से जोड़कर प्रयोग
कर रहा था,
उसी दौर में मैंने पाया की पंचायतीराज व्यवस्था के आंतरिक भ्रष्टाचार ने किस
प्रकार से कई प्रकार की पंचायत प्रतिनिधियों में आत्महत्या, हत्या के मामले देखे गए. किंतु उनका निराकरण पुलिस ने मात्र
लीपापोती करके खत्म कर दिया.
मैं तो सिर्फ शहडोल में देख रहा था,
वास्तव में वह सब किसी “बटुआ
की भात” की तरह पूरे
मध्यप्रदेश में पंचायतीराज व्यवस्था में पंचायती प्रतिनिधियों खासतौर से महिला-प्रतिनिधियों के साथ हो रहा था. और जिस लाचार पुलिसविभाग पर यह अहम
जिम्मेदारी थी कि वह महिला-रिजर्वेशन
के तहत आई पंचायतीराज के प्रतिनिधियों विशेषकर अथवा अन्य पंचायती प्रतिनिधियों के
आत्महत्या अथवा हत्या के मामले लोकतंत्र की न्याय प्रक्रिया के साक्षी बनते..?, वे उसे विधायिका के दवाब में भ्रामक
तरीके से गायब करा दिए और यह इसलिए नहीं हुआ पुलिस सिर्फ भ्रष्ट थी, बल्कि इसलिए , कि वह अनुशासित रूप में एक बंधुआ-मजदूर की तरह अपनी पुलिस के सिपाही का
सदुपयोग और लोकतंत्र के हित में काम नहीं कर पाई..?
आशा
किया जाना चाहिए कि हफ्ते में एक बार पुलिस कर्मचारी जब अपने घर में अपने परिवार
के साथ बैठेगा तो स्वस्थ-चिंतन, नैतिक मापदंडों और सामाजिक दायित्व के
सामाजिक सरोकारों पर भी मंथन करेगा और सहजजीवन प्रणाली का भागीदार होगा. उसी उत्साह उमंग तथा खुशी के साथ
जिसके साथ अन्य भारतीय नागरिक शामिल होने का प्रयास करता है. तो पुनः बधाई, दशकों से बाद आई “सप्ताहिक अवकाश” की घोषणा की.
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