
पुलिस
"साप्ताहिक-अवकाश "
एक साहसिक मानवीय कदम

`व्यवस्था का
प्रमाण है. कि
किस प्रकार से भारतीय पुलिस व्यवस्था में एक शोषणकारी आंतरिक व्यवस्था ने अनुशासन
का नकाब पहनकर मानवीय श्रम को अपमानित किया था. मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री कमलनाथ अनुभवी राजनीतिक व्यक्ति होने के
कारण ही कांग्रेस के वचन पत्र की दमन व शोषणकारी पुलिस अनुशासन की व्यवस्था को
सर्वोच्च प्राथमिकता के काम पर सुधार करने का काम किया है, निश्चित ही वह पुलिस सुधार के कदम पर
बधाई के पात्र हैं.
( त्रिलोकीनाथ )
कम
वेतनमान पर 24 घंटे की ड्यूटी किसी बंधुआमजदूर की तरह
राजतंत्र में पनप रहे पुलिस व्यवस्था की याद दिलाती है. जिसमें उसे उस पुलिस कर्मचारी को
स्वतंत्र भारत में होने का एहसास सिर्फ इस बात पर नहीं हो जाता है कि वह अपनी
नौकरी और अनुशासन में सीखे हुए जीवनक्रम को भारत की शेष नागरिक सेवा में उसी नजरिए
से जीने का प्रयास करता था, स्वाभाविक
है कि व्यक्ति अपने अनुभवों को ही समाज में और परिवार में देखता है. यदि कोई पुलिस का सिपाही अपने जीवन
में बंधुआमजदूरी और शोषणकारी अनुशासनिक व्यवस्था का नकाब पहनकर व्यक्तिगत जीवन को
ही लोकतंत्र के रूप में देखता है तो वह समाज को भी वही सब कुछ बांटने का प्रयास
करता है जो उसके व्यक्तित्व का और चरित्र का हिस्सा बन जाती है.. फिर लोग कहते थे कि पुलिस बहुत खराब
विभाग है.. ?


निश्चित तौर पर बंधुआ मजदूरी और शोषणकारी आंतरिक
अनुशासनिक व्यवस्था में बौद्धिक आईपीएस अधिकारी नए-नए नवाचार करके पुलिस की आंतरिक
लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ ज्यादा मजबूत और ज्यादा स्वस्थ इसलिए भी करेंगे कि
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए एक मजबूत अनुशासनिक संगठन, स्वस्थ विचारों वाला, नैतिक मापदंडों से भरा-पूरा होना ही चाहिए.
यह
इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मुझे याद है कि जब मैंने 1996-97 के दौर में अपने अखबार “विजयआश्रम” को शहडोल जिलापंचायत से जोड़कर प्रयोग
कर रहा था,
उसी दौर में मैंने पाया की पंचायतीराज व्यवस्था के आंतरिक भ्रष्टाचार ने किस
प्रकार से कई प्रकार की पंचायत प्रतिनिधियों में आत्महत्या, हत्या के मामले देखे गए. किंतु उनका निराकरण पुलिस ने मात्र
लीपापोती करके खत्म कर दिया.
मैं तो सिर्फ शहडोल में देख रहा था,
वास्तव में वह सब किसी “बटुआ
की भात” की तरह पूरे
मध्यप्रदेश में पंचायतीराज व्यवस्था में पंचायती प्रतिनिधियों खासतौर से महिला-प्रतिनिधियों के साथ हो रहा था. और जिस लाचार पुलिसविभाग पर यह अहम
जिम्मेदारी थी कि वह महिला-रिजर्वेशन
के तहत आई पंचायतीराज के प्रतिनिधियों विशेषकर अथवा अन्य पंचायती प्रतिनिधियों के
आत्महत्या अथवा हत्या के मामले लोकतंत्र की न्याय प्रक्रिया के साक्षी बनते..?, वे उसे विधायिका के दवाब में भ्रामक
तरीके से गायब करा दिए और यह इसलिए नहीं हुआ पुलिस सिर्फ भ्रष्ट थी, बल्कि इसलिए , कि वह अनुशासित रूप में एक बंधुआ-मजदूर की तरह अपनी पुलिस के सिपाही का
सदुपयोग और लोकतंत्र के हित में काम नहीं कर पाई..?
आशा
किया जाना चाहिए कि हफ्ते में एक बार पुलिस कर्मचारी जब अपने घर में अपने परिवार
के साथ बैठेगा तो स्वस्थ-चिंतन, नैतिक मापदंडों और सामाजिक दायित्व के
सामाजिक सरोकारों पर भी मंथन करेगा और सहजजीवन प्रणाली का भागीदार होगा. उसी उत्साह उमंग तथा खुशी के साथ
जिसके साथ अन्य भारतीय नागरिक शामिल होने का प्रयास करता है. तो पुनः बधाई, दशकों से बाद आई “सप्ताहिक अवकाश” की घोषणा की.
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