क्या हम लोकतंत्र के
शीत युद्ध में जी रहे हैं..?-1
------------( त्रिलोकीनाथ )------------
इसे मान लेने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि गुजरात के जिस एकमात्र चुनाव जीतने के लिए चुनाव आयोग ,दिल्ली नगर निगम के चुनाव और हिमाचल के चुनाव को बलिवेदी में समर्पित कर दिया गया हो ताकि गुजरात इंडिया कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी नहीं) के गुजरात विधानसभा चुनाव का ब्रांड स्टेट बचाया जा सके और राहुल गांधी किसी भी पदयात्रा का भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा ब्रांड बनते हुए तथा गुजरात के चुनाव को नजरअंदाज करते हुए जिस प्रकार से नफरत और घृणा के धंधे को ध्वस्त करने का काम कर रहे थे, बावजूद इसके कि वे चुनावी राजनीति में परास्त हो जाएंगे इसके खतरे को भी वह नजरअंदाज कर रहे थे।
इसके बावजूद भी वे अपनी यात्रा के प्रति ज्यादा समर्पित रहे इसी दौर में राजनीति से हटकर विधायिका की पूरी ताकत न्यायपालिका पर हमला कर रही थी और न्यायपालिका बजाय रक्षात्मक व्यू रचना के आक्रामक शैली पर लोकतंत्र को और उसके बनाए कानून और संविधान की रक्षा के लिए जिस प्रकार से फैसले ले रही ... यह सब बेहद रोमांचकारी और एक गहन लोकतांत्रिक शीत युद्ध की घोषणा भी क्यों नहीं कहीं जानी चाहिए।
जिसमें लोकतंत्र की स्वतंत्रता कैसे बचे इस पर प्रयोग हो रहा है..
और इस प्रयोग में अचानक गुजरात चुनाव के पहले एनडीटीवी ग्रुप को हाई चेक करने का किसी पूंजीपति द्वारा जो प्रयोग किया गया वह पूर्ण सफलता तो नहीं कहा जा सकता था क्योंकि प्रणव राय ने देर से इस्तीफा दिया और स्वाभाविक है जब छत ही फट जाए तो उस ठिकाने को छोड़ देना चाहिए। उम्मीद तो यह थी की पत्रकारिता पर कड़ा प्रहार करके पूरा संदेश देना था ताकि लोकतंत्र में अधिपत्य की घोषणा हो जाए किंतु हुआ उल्टा,
जल्दबाजी में उनके अपने लोगों ने जिस प्रकार से करीब 3 करोड रुपए सालाना आय के जरिया को किक कर देने का काम पत्रकार रवीश कुमार ने जोखिम भरा उठाया वह किसी भी टूटपूंजिहे वाले पत्रकारिता का नकाब पहने किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं था। क्योंकि उसकी पूंजी टूट जाने का खतरा उसे भी सताता है।
और वैसे भी अगर कोई आम आदमी व्यक्ति कुछ करोड़ का मालिक हो जाता है तो वह मानसिक तौर पर तानाशाह सरकार का गुलाम बनना स्वीकार करता है बजाय इसके कि वह अपनी पूंजी खोने के डर को स्वीकार कर ले।
तो जब सब जगह अंधेरा था यूट्यूब चैनल में रवीश कुमार की एंट्री से उनके गुलाम सांसदों में एक ऋषिकांत दुबे का कहना छत फटने जैसा महसूस होता है
कभी-कभी ब्राह्मण होने पर गर्व नहीं होता जब ब्राम्हण का नकाब बनकर पतन की और देश की गद्दारी के प्रति समर्पण की तमाम सीमाएं टूट जाती है ,इन्ही नरेंद्र ने विदेश की धरती में लोकतंत्र का पांचवा स्तंभ कहा था सोशल मीडिया को। तब वे भारत के चौथे स्तंभ को नष्ट करने का संकल्प ले रहे थे..?
अन्यथा विदेश की धरती में पहली बार जब वे प्रधानमंत्री बने थे तो फेसबुक के कार्यालय में उन्हें जिस सोशल मीडिया की वजह से चाहे भ्रम ही क्यों ना रहा हो अंततः प्रधानमंत्री बना दिया, उसे कुकुरमुत्ता कहना या कहलवाना सिर्फ छटपटाहट का ही परिणाम है।
क्योंकि कुकुरमुत्ता का मुहावरा जब मुहावरा बना था तब यह बात ठीक लगती थी अब यही कुकुरमुत्ता जिससे मशरूम कहा जाता है कहते हैं लाखों रुपए का तो अपने नरेंद्र भाई ही खा गए हैं जिसके कारण चेहरे की चमक बरकरार है ।यह बात अलग है कि कुकुरमुत्ता विदेशी था। किंतु देसी कुकुरमुत्ता जब सोशल मीडिया पर फैलता है अगर एक भी सही ढंग से फैल गया उससे इतना डरना क्यों...?
आखिर सुब्रमण्यम स्वामी ने ही तो कहा था, जब एनडीटीवी में पहली बार छापा पड़ा था कि "डर कर भी रहना चाहिए"तो छोड़ो इन बातों को कुकुरमुत्ता की परिभाषा कुकुरमुत्ता की बात रही थी।
क्या भारतीय लोकतंत्र में शीत युद्ध चल रहा है क्योंकि 2016 के नोट बंदी का फैसला न्यायालय में करवटें बदल रहा है और न्यायपालिका उसी अंदाजे में बात कर रही है
जिस अंदाज में कभी तानाशाह बन कर जब इंदिरा गांधी उभरी थी तब किसी छोटे से कोर्ट में बैठा हुआ कोई छोटा सा आम आदमी उन्हें चुनौती दे रहा था क्या आज वही हालात बन गए हैं ..?
इसे और गंभीरता से समझे, जब पत्रकारिता के एक प्रश्न से हड़वड़ा जाने वाली सत्ता का कोई मुखिया उससे सालों साल स्वयं को अछूत बनाकर रखता है तो इस दौर में वह न्यायपालिका जिस
पर भारतीय संविधान को बचाकर रखने की जिम्मेदारी है अपने बुनियादी ढांचागत ताकत से जमीर पाकर इसी सोशल मीडिया के जरिए पारदर्शी बनाकर आम जनता और जनता जनार्दन को भी अपनी जवाबदेही दिखाने के लिए पारदर्शी होना चाहता है तब भी क्या यह शीत युद्ध नहीं कहलाएगा...?
(----जारी भाग 2)
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