यात्रा के मामले में गांधी का पुनर्जन्म...
2022 से 2023 तक
का एक सुखांत यात्रा
नफरत से मोहब्बत की यात्रा
--------------( त्रिलोकी नाथ )------------------
2022 की अगर
सबसे बड़ी घटना के रूप में कोई चीज दर्ज की जाएगी तो शायद वह किसी सबसे बड़े
लोकतांत्रिक राष्ट्र में किसी बड़े राजनीतिक दल की नेता के रूप
में राहुल गांधी की पदयात्रा नफरत के खिलाफ मोहब्बत के रूप में दर्ज की जानी चाहिए. क्योंकि जिस प्रकार से 1947 के बाद
भारत की स्वतंत्रता के बाद दलित उत्थान के लिए भारत ने आरक्षण का प्रयोग किया कहते हैं कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भी
इसका विरोध किया था क्योंकि यह दूरियों को बढ़ाने
वाला था. किंतु सिर्फ 10 वर्ष
के लिए प्रयोग के रूप में किया गया.अब यह कार्य इस लोकतंत्र की वोट बैंक की राजनीतिक मजबूरी बन गया और अब भस्मासुर बन कर के वोट बैंक के
स्वार्थी राजनीतिक तुष्टि का कारण बन रहा है.
इससे
दलित उत्थान के दायरे में कुछ नए सामंतवादी पैदा हो गए और उन्होंने अपने ही दुनिया में इसे लगातार
बढ़ाते रहने के अनेकानेक कारण होने लगे .नतीजतन सर्वांगीण दलित उत्थान तो
हुआ
नहीं बल्कि आरक्षण के नए नए वेरिएंट विकसित होने लगे .आर्थिक आरक्षण, पिछड़ा वर्ग का आरक्षण, फिर जातिगत आरक्षण, मराठा ,जाट आरक्षण अनेक
प्रकार के आरक्षण राजनीतिक वोट बैंक के बड़े हथियार के रूप में प्रयोग किए जाने लगे .यह अलग बात है जैसा कि
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक व्यक्ति राजभर कहते हैं कि बाकी जातियों का क्या हुआ..? क्या
उन्हें लाभ मिला, सिर्फ यादव जाति को
ही पिछड़ा वर्ग का लाभ मिला.
यही
परिस्थिति जो हालात स्वतंत्रता के बाद आरक्षण के प्रयोग में आज राजनीतिक मजबूरी
बनकर वोट बैंक का सबसे बड़ा धंधा बन गई है. जबकि स्पष्ट है कि इससे सर्वांगीण विकास नहीं हुआ है .अनुसूचित जाति और जनजाति में ही कई ऐसी
जातियां हैं जो आज भी उतनी ही गरीब और उससे भी ज्यादा
मानसिक रूप से भिखारी बन गई हैं और उसकी याने उस ऐसे
नागरिकों
की भिखारी होने की प्रवृत्ति राजनीतिक दलों के वोट डालने यानी वोट का धंधा करवाने
और उसके जरिए सत्ता में बने रहने का बड़ा राजनीतिक हथियार
प्रमाणित हो गई है .इन नागरिकों को वास्तव
में बहुत विशेष लाभ नहीं हुआ ,कुछ परिवार जरूर उठ गए हैं वह भी अपनी जाति में उन गरीबों
से उतनी ही दूरियां बनाकर रखते हैं जितनी दूरियां
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस दलित आरक्षण का कारण बनी थी.
दूसरे नागरिकों के साथ यही आरक्षण का कड़वा सच है अन्यथा जिसे एक बार आरक्षण मिल गया उसे दोबारा
आरक्षण देने पर भी इस छोटी सी नीति पर भी विचार
नहीं हुआ, क्योंकि राजनीतिक हवस
जानती है आरक्षण से निकला सामंतवादी परिवार उसका सबसे बड़ा
हथियार
है. इसलिए आरक्षण
भस्मासुर भारतीय नागरिकता में पैदा प्रमाणित हो रहा है .
यह बीसवीं
सदी की
दुखांत वायरस रहा है तो 21वीं सदी में राजनीतिज्ञों के सत्ता में बने
रहने के लिए नए वायरस का निर्माण किया गया. राजनीत की प्रयोगशाला में जानबूझकर इस वायरस
को पैदा किया गया इसका नाम था “नफरत का धंधा” और यह धंधा लोकतंत्र में कानून बनाकर तो किया
नहीं जा सकता इसलिए इसे इवेंट के जरिए लगातार प्रयोगशाला में
प्रयोग
किया जाता रहा है .
हालांकि इस धंधे को आजादी के पहले से ही प्रयोग किया जाता रहा है जो भारत में तालिबानी संस्कृति के रूप में राजस्थान की धरती में इस नारे के साथ अपने खौफनाक चेहरे के रूप में देखा गया की नवी से गुस्ताखी यानी सर धड़ से अलग और सामान्य भारतीय परिवार में जहां की गाली देना भी कलेवा का कारण माना जाता था, यानी बारात किसी परिवार में आती है जिसे गारी कहते हैं एक आवश्यक परंपरा होती थी यह वह मीठी परंपरा होती थी जिसका परिणीति जिसे गारी दिया जाता था वह ढेर सारे मेवा और कुछ पैसे गाली देने वाले को देता था .इस महान परंपरा वाले देश में किसी व्यक्ति के खिलाफ बोलना एक भयानक य सूचना या फिर उसके बारे में अफवाह फैलाने पर उसकी हत्या कर देना एक भयानक सच्चाई के रूप में गौरव का कारण बना है .और यह पागलपन इस्लाम धर्म के प्रवर्तक अनुयायियों ने नफरत के कारोबार से सीखा. जो भारत में पिछले 8 साल में धीरे- धीरे पनपा . नफरत से डर और डर से हत्या, नफरत के धंधे की परिणीति होती है और यह धंधा आधुनिक राजनीति की सबसे बड़ा हथियार है.
पहले
भी कांग्रेस पार्टी पर इस धंधे को धीरे-धीरे चलाने का
कारोबार
का आरोप लगता रहा है तब की विपक्षी राजनीतिक दल इसे महसूस करती रही किंतु वर्तमान
का विपक्षी कांग्रेस इससे ज्यादा महसूस किया और समझ गया
कि यह एक बड़ा कारोबार नफरत के इस कारोबार को समझने और जानने की चाहत उस युवा कांग्रेस नेता के समझ में आया जो जिस पर यह आरोप
लगते रहे कि वह सोने की चम्मच लेकर पैदा हुआ था. यानी राहुल गांधी को इस बात के लिए सलाम करना
चाहिए कि उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया कि वह
दुनिया की सबसे बड़ी लंबी दूरी की राजनीतिक यात्रा नफरत के खिलाफ मोहब्बत के रूप
में किया.
शायद राहुल गांधी को महसूस हो गया रहा होगा लोकतंत्र का मीडिया जब हाईजैक हो जाता है सत्ता के संरक्षण में प्रदेश में गांधी का प्रयोग करना ही चाहिए सिर्फ गांधीगिरी ही इस देश को बचा सकती है इसमें कोई शक नहीं कि ढेर सारी तुष्टीकरण की नीतियों के कारण गलतियां हुई है उससे जिनको पुष्टि करने का काम किया गया. उनका विकास तो समता पूर्ण तरीके से नहीं हुआ किंतु समस्याएं अवश्य खड़ी हो गई और यही समस्याएं सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और उसकी विचारधारा के लिए बड़े हथियार के रूप में विकसित हो गई. यह महसूस किया जाने लगा कि बहुसंख्यक समाज जिसे हिंदू कहा जाता है उसके अंदर हिंदुत्व का जज्बा प्रकट करने के लिए तमाम प्रकार के नफरतें को भाषा के प्रचलन के रूप में स्पष्ट किया.
शहडोल की धरती में यह
छोटा सा प्रमाण पत्र है कि बिना खनिज विभाग के अनुबंध के , या कलेक्टर शहडोल के अनुबंध के रिलायंस इंडस्ट्रीज सीबीएम गैस निकालने का काम
धड़ल्ले से कर रही है और उसके संबंधित अधिकारियों से यदि पूछा जाता है तो कोई जवाबदेही तय नहीं करते. याने खाते सरकार का
हैं और बजाते अंबानी का. आदिवासी
क्षेत्र की कड़वी सच्चाई है, तो पूरे देश में भी
यही हो रहा है और यदि इसके बारे में चर्चा भी की जाती है तो उन्हें डराया जाता है उन ग्रामीणों को डराया जाता है धमकाया जाता है उनके
खिलाफ पुलिस प्रकरण पंजीबद्ध करा करके उन्हें
भयभीत रखा जाता है ताकि वे रिलायंस के खिलाफ बोलने की
कल्पना भी न करें.
यही
हाल पूरे देश में है जैसा कि राहुल गांधी आरोप लगाते हैं
पूंजीपतियों के लिए उनके इशारे पर यह सरकार काम करती है तो क्या डर और नफरत का कारोबार अवैध कार्यों के संरक्षण , आरक्षण से ज्यादा खतरनाक बनने वाला है जिसे
खत्म करना धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा .जैसे कि आरक्षण को खत्म करना अब राजनीतिक
दलों की औकात के बाहर की बात हो गई है, आरक्षण को सही ढंग से भी लागू करना राजनीतिज्ञों की हैसियत
नहीं रह गई है. वह सिर्फ इसमें से
कुछ सामंतवादी निकालकर अपना मतलब सिद्ध कर सकते
हैं. तो इस दौर में नफरत
और डर का धंधा 21वीं सदी में
खतरनाक
अनजान तक जाएगा. यह तो भविष्य बताएगा
लेकिन अगर बीसवीं सदी में महात्मा गांधी ने
देश की आजादी को बनाए रखने के प्रयास में कोई पद
यात्रा किए थे और तब की गुलामी नमक कानून को
तोड़ा था अब क्या राहुल गांधी ऐसे किसी कानून को तोड़ने का साहस कर सकते हैं..? अथवा बलिदान देने को
तत्पर
हैं यह एक गंभीर प्रश्न है ...? हालांकि
कांग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया कि कि राहुल गांधी की सुरक्षा में कई बार चूक
हुई है तो इसे सुरक्षा के जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा खंडन भी किया गया है बजाय भारतीय जनता पार्टी के द्वारा खंडन करने के.
और
यह कोई नई बात नहीं है किंतु क्या बलिदान की दिशा में
एक और
गांधी 2023 में पदयात्रा कि किसी खतरनाक अंजाम को आहूत
कर रहा है यह भी देखना होगा और होना भी क्यों नहीं चाहिए अगर देश को बचाना है तो
बलिदानी तो बढ़ना ही पड़ेगा. तब चाहे खुद की
स्वतंत्र भारत में लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी अथवा राजीव गांधी की हत्या की गई हो.... यह सब भी तो बलिदान ही थे .
तो नफरत
के
खिलाफ मोहब्बत का आंदोलन राहुल गांधी की पदयात्रा किस अंजाम पर खत्म होगी यह कहना
जल्दबाजी है किंतु एक इतनी सफलता पाते हैं यह भी एक प्रयोगशाला
में प्रयोग होने वाली पदयात्रा के अलावा कुछ नहीं है .अगर इसमें राहुल गांधी सफल होते हैं तो यह देश के लिए
बड़ा वरदान है किंतु इसके आयाम यदि विदेश से संचालित होते हैं कोई अज्ञात शक्ति नफरत के धंधे को विस्तारित कर रही है, कोई पूंजीपति समाज इसको नियंत्रित कर रहा है
तो बड़ी बात नहीं है कि पदयात्रा किसी खतरनाक अंजाम की
परिणीति में खत्म हो जाए.... परिणाम
चाहे कुछ भी हो इतना तय है कि 2022 में एक
और गांधी ने लोकतंत्र के रास्तों को तय करने का काम किया है, जो 20 मी सदी
में किसी गांधी ने देश की आजादी के पड़ाव तक उसे चलाए रखा. तो इतना है की
महात्मा
गांधी की सच्चे उत्तराधिकारी की वसीयत फिलहाल राहुल गांधी ने अपने पास रखने का
दावा किया है... जो प्राकृतिक रूप से सही भी है.. यह अलग बात है कि इसका अंजाम राम राज्य के “हे राम” में खत्म होता है अथवा नहीं...? तो अंजाम चाहे जो भी हो 2022 से
चलकर 2023 तक नफरत से मोहब्बत की यात्रा कहां जाएगी यह सब हमको देखने को मिलेगा ...हम तो सिर्फ शुभकामना ही प्रकट कर सकते हैं.