"डोंट टॉक मी...."
"परिवार मुक्त राजनीति" की फीलगुड मे
संसद बना;
सास-बहू का
कुरुक्षेत्र
( त्रिलोकीनाथ )
क्योंकि "सास भी कभी बहू थी ..."बीसवीं सदी के इस चर्चित टीवी सीरियल की नायिका तुलसी यानी वर्तमान में मोदी मंत्रिमंडल की चहेती बहू, इन दिनों संसद भवन को अपना घर बना रखी है। और अपना चरित्र नायक सास को उसमें ढूंढ रही हैं ।सास है तो बात नहीं करना चाहती,"यू डोंट टॉक मी .."कहकर बहू को झटका देती है और फिर 21वीं सदी की परिवार मुक्त राजनीति के परिवार की बहू पूरे संसद में हंगामा खड़ा कर देती है ।
सोनिया गांधी माफी मांगो..., सोनिया गांधी माफी मांगो....
और इस तरह परिवार मुक्त राजनीति की जितनी बहुए है जेठानी देवरानी सब मिलकर उस संसद की सब तुलसी के साथ साथ अपनी चहेती बहू के सुर में सुर मिला कर, सोनिया गांधी माफी मांगो का नारा गुंजायमान करते हैं। मानो संसद मे टी वी सीरियल चल रहा है।
क्योंकि वहां पर लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने अभी हाल में ही धड़ाधड़ कई अब तक माननीय रहे संसदीय शब्दों को चिन्हित करके उन्हें अवैध घोषित किया है। ऐसे में बहुओं को कौन रोके और नए शब्दों को कैसे पढ़ाया जाए, यह तमाशा इस
हफ्ते टीवी सीरियल हमारा संसद में हमें देखने को मिला। तो देखने को यह भी मिला की कैसे अमर्यादित शब्दों के आड़ में आपातकाल इस बार लोकसभा और राज्यसभा में लागू किया गया। चुने हुए जनप्रतिनिधियों को गेट आउट किया गया।
किंतु सास ने बहू को क्या कह दिया कि "डोंट टाक मी..." याने मुझसे बात मत करिये" बहू ने संसद परिवार मे उनके छबि की टारगेट-किलिंग करके देश के सर्वोच्च महामहिम के पद को और उस पर निर्वाचित मेरे जैसे संविधान के द्वारा सुरक्षित घोषित किए गए नागरिकों के पांचवी अनुसूचित क्षेत्र यानी विशेष आदिवासी क्षेत्र के नागरिकों अनुसूचित जनजाति वर्ग के प्रतिनिधित्व करने वाली सीधी-सादी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के पद पर बैठाने के बाद उन्हें बहू ने सास के चक्कर में "द्रोपती... द्रोपती...." कहकर महामहिम के साथ अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों को विशेषकर महिलाओं को उनकी-हैसियत संसद के अंदर स्थापित करती नजर आ रही थी।
तो एक सास संसद के अंदर श्रीमती सोनिया गांधी को तू दूसरी सास इस देश की सर्वोच्च पद पर स्थापित हमारी राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती द्रोपति मुर्मू को बनाए जाने की कोशिश हो रही थी। इस बात का संज्ञान अगर ओम बिरला ले लेते तो शायद संसद के जरिए शब्दों की पतन की गरिमा कुछ बची रह जाती। किंतु सास..,सास होती है और बहू....., बहू।
देश को परिवार मुक्त राजनीति देने का सपना देखने वाले अपने परिवार को त्याग देने वाले हमारे सन्यासी
जीवन जीने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना परिवार मुक्त राजनीति की जगह संपूर्ण परिवार युक्त भारत का संसद टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी
एक छोटा सा लोकप्रिय किंतु अलोकप्रिय, स्वतंत्रता के नजरिए से नैतिकता के मापदंडों में पतित होता दिखा।
बात थी अधीर रंजन चौधरी कांग्रेस नेता के राष्ट्रपति जी गलत शब्द संबोधन किए जाने पर शब्द को गलत तरीके से बोले जाने पर अधीर रंजन चौधरी ने उसके लिए महामहिम राष्ट्रपति से जाकर माफी मांग लिया। अब जब स्मृति ईरानी ने सदन के अंदर अपमान किया तो वह उल्टा प्रश्न करने लगे हैं
सवाल यह है कि क्या टीवी सीरियल के जरिए राजनीत में आई किसी अनुभवहीन राजनीतिज्ञ को इतना बलशाली बना दिया जाना चाहिए कि उनका अपमान राष्ट्र का अपमान की तरह संसद के अंदर देखा जाने लगा..? अथवा भारतीय राजनीति सिर्फ परिवारों की राजनीति होकर रह गई है। जिसमें कॉर्पोरेट जगत से प्रोडक्ट 21वीं सदी का भाजपा का अपना एक परिवार है जिसे वह राष्ट्र मानता है....?
किंतु देश की स्वतंत्रता इतनी सस्ती नहीं है और शायद इसीलिए इस परिवार के एक मुखिया दुनिया की सबसे बड़ी सदस्यों वाली भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने हताशा में ही सही राजनीति के अपने आइकॉन जब चिन्हित करते हैं तब उन्हें समाजवादी विचारधारा के क्रिश्चियन कम्युनिटी से आए जॉर्ज फर्नांडिस को वह अपना आदर्श घोषित करते हैं। कि आज किस प्रकार की राजनीति होनी चाहिए किंतु जो राजनीति हो रही है
उससे वह इत्तेफाक नहीं रखते और स्पष्ट घोषित करते हैं की ऐसी राजनीति जो सत्ता के लिए हो छोड़ देने का मन होता है तो क्या सत्ता की राजनीति इतनी ही प्रदूषित हो गई है यह बहुत बड़ा सवाल है...? और उससे बड़ा सवाल यह है कि राजनीति में आदर्श आखिर 100 साल होने वाली भारतीय जनता पार्टी की पित्र संगठन या खुद भारतीय जनता पार्टी के करोड़ों लोगों में कोई एक निर्मित क्यों नहीं हो पाया...?
आखिर भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को समाजवादी चेहरा जॉर्ज फर्नांडिस के अंदर राजनीति का आइकॉन क्यों दिखा....?
यह बात मार्गदर्शी हो सकती है अगर हम ईमानदारी से सोचें तो यह बात तो राष्ट्रीय राजनीति की है।
हाल में शहडोल में कांग्रेस में कब्जा करने की होड़ लगी है लंबे समय से चल रही है इनके भी अपने कबीले हैं.. इन कबीलो का कब्जा बरकरार रहे इसके लिए सर्कस होता है
और उसी सर्कस का नतीजा है प्रदेश कांग्रेश की यह चिट्ठी जिसमें आजाद बहादुर सिंह को तत्काल प्रभाव से प्रभावहीन कर दिया गया है । साथ ही कथित तौर पर पुराने कबीलेदार को इसका प्रभार सौंपा गया है यह चर्चा भी देखने को मिली। देर से सही कबीलों की इस लड़ाई में कांग्रेस अपने अंतर संघर्ष में पुनर्जीवित होना चाहती है। किंतु उन्हें यह अभास क्यों नहीं हो पा रहा है कि संसद के अंदर जब महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती ज्योति मुर्मू का सम्मान नहीं बचा है तो शहडोल जैसी राजनीत में कांग्रेस पार्टी के कबीलाई लूटपाट में बहुत संभावना नहीं है कि जब हवा बहेगी तब कांग्रेश सत्ता में आएगी और उसकी मलाई कबीले वाले खाएंगे।
कुछ दिन बाद आजादी की 75 वर्ष पूरे हो जाएंगे किस तरह से लाखों लोग बलिदान होकर देश की आजादी के लिए संघर्ष किए और किस तरह कबीले वाले अपना कबीला स्थापित करने का संघर्ष कर रहे हैं।
बजाएं जॉर्ज फर्नांडीज की राजनीति की परिभाषा को और उनके शब्दों मे कि "राजनीति की परिभाषा का मतलब होता है लोगों की सेवा।"
यह कबीलो की जरूरत हो सकती है शर्ट पैंट पहनकर हमेशा यह सोचना कि वे नंगे नहीं है..? या उन्हें कोई देख नहीं रहा है...? जो उनका भ्रम है। यह अलग बात है कि उनका अपना हमाम है वह नये कबीले का नया हमाम है। इसका राजनीति और लोकसेवा से कोई नाता नहीं है।
बावजूद तारीफ ए काबिल राजनीत है किस शहडोल के जिलााध्यक्ष नैतिकता का नकाब ओढ़ कर सम्मान पूर्ण त्यागपत्र भेज देते हैं
अगर कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपमान से नहीं बचाया जा सका है स्थानीय कबीलेदार सिर्फ लूटपाट कर अपना पेट ही पाल सकते हैं। यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए कांग्रेस को उतना ही देश के हित में है। क्योंकि कांग्रेस अपना विरासत देश की आजादी से जोड़ती है इसलिए मिल बैठकर बजाय इसके कि "डोंट टॉक मी" मंत्र को आत्मसात करके नए अध्यक्ष, पूर्व अध्यक्ष या संभावित होने वाले अध्यक्ष या अध्यक्ष की पंजीरी बांटने वाले अध्यक्ष , जब तक उस टूटे हुए कांग्रेसी भवन में इकट्ठा नहीं होंगे तो सिर्फ माफिया के अलावा कुछ नहीं कहलाएंगे। और शहडोल कांग्रेस पार्टी उसी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी जैसे कांग्रेश भवन होकर भी, नहीं रहता है। और कभी खुलता ही नहीं।
रही भाजपा की बात ,तो हाल में चुनाव का जो रंग-रूप देखने को मिला उससे स्पष्ट दिखता है कि नाचने वाले तैयार हैं बारात किसी की भी हो.....। और यही भाजपा का अंतर्विरोध है ।और इसी प्रकार के जन प्रतिनिधि संसद में पहुंच जाते हैं तो संसद को अपना घर बनाते हैं। और वहां टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी..... के अंदाज में संसद चलाने का प्रयास करते हैं और कोई बात नहीं है....... इसे हम आप सब भारतवासी मिलकर आजादी का अमृत महोत्सव भी कह सकते हैं यही फीलगुड है लालकृष्ण आडवाणी का फील गुड....।
समाजवादी भी कबीलों में तब्दील हो गए।
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