5वीं अनुसूची के जिलों के लिए
के मायने
जंगल की जमीन से निकलकर महामहिम की कुर्सी पहुंचने के लिए उन्हें प्रकट रूप में आईएएस रहे शीर्ष यशवंत सिन्हा को परास्त करना पड़ा ।यह लोकतंत्र की खूबसूरती को पुनः स्थापित किया है चाहे यह मजबूरी में ही उठाया गया कदम क्यों ना हो किन्तु नेतृत्व जमीन का व्यक्ति करेगा और उच्च अधिकारी उसके पीछे रहेगा। हालां कि यशवंत सिन्हा की योग्यता पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं हो सकता, वह इमानदार सत्ता के प्रतीक भी हैं । बहरहाल के लोकतंत्र का एक रूप भी है । महामहिम तक पहुंचने की शुरुआत
उन्होंने एक निम्न श्रेणी लिपिक के रूप में यात्रा कब प्रारंभ की थी यह जिंदगी की खूबसूरती है।
(त्रिलोकीनाथ )
तब शिवराज सिंह या भाजपा ने बड़ी कूटनीतिक तरीके से समाजवादी विचारधारा के आदिवासी नेता सांसद दलपत सिंह परस्ते की सांसद की टिकट काट दी थी। स्टेडियम में मैंने पहली बार दलपत सिंह परस्ते को शिवराज सिंह या किसी नेता को फटकार लगाते हुए देखा था । बहुत ही विनम्रता के साथ बहुत दबंग भरी फटकार । उनकी मुखरता को शायद शिवराज सिंह देखकर हक्का-बक्का रह गए थे ।यह आदिवासी संयम के टूट जाने का स्वरूप था। फिर आए अमरकंटक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके आगमन की तैयारी का माहौल बनाने के दृष्टिकोण से, तब के नेहरू युवा केंद्र से जुड़े अब के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा शहडोल में प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए और नर्मदा को प्रदूषण मुक्त होने की तमाम प्रकार की बातें कहीं। हमने भी एक प्रश्न रखा कि "जब नरेंद्र मोदी अमरकंटक आएंगे तो यह मान ले कि उसके पहले ही नर्मदा अमरकंटक में कल्याणिका की स्कूल से मुक्त हो जाएगी याने कल्याणिका ध्वस्त कर दी जाएगी....? उन्होंने चुप्पी साध ली। क्योंकि वह नर्मदा को मुक्त करने के लिए नहीं किसी वोट की राजनीति को साधने के लिए आए थे। हिंदू सनातन समाज के श्रेष्ठतम वर्णों में एक ब्राह्मण वर्ण का होने के बावजूद मुझे स्वयं को कहीं भी आदिवासी निवासी पत्रकार, आदिवासी पत्रकार बताने में जरा भी झिझक नहीं होती क्योंकि एक आदिवासी सब कुछ समझता है । वह विरासत की वैभवता लेकर समाज का हिस्सा होता है। इसके बावजूद शोषणकारी दमनकारी और कृत्रिम परिस्थितियां निर्माण करके आदिवासी समाज को उपयोग करो और फेंक दो ; "यूज एंड थ्रो" की पॉलिटिक्स ने कहीं का नहीं रख छोड़ा। स्वभाविक है जब प्रतिनिधि कहीं का नहीं है तो आदिवासी क्षेत्र या उसका वैभव भी उसी प्रकार से शोषणकारी वोट पॉलिटिक्स का हिस्सा हो जाता है। जैसा कि शहडोल में दिख रहा है।
हरियाणा के न्यू जिले में अरावली की पहाड़ियों पर अवैध खनन रोकने गए बहादुर पुलिस अधिकारी सुरेंद्र सिंह की हत्या हो गई बावजूद इसके कि शहडोल में अभी तक कोई पुलिस की उच्चअधिकारी को खनन माफिया ने डंपर या गाड़ी से दबाकर हत्या नहीं की है बावजूद कई गाड़ियां अवैध परिवहन के बाद जप्त की गई और छोड़ दी गई। इसका मतलब यह नहीं कि यहां सब कुछ सही चल रहा है।
बल्कि इसका मतलब यह है कि सब कुछ खनन माफिया के हिसाब से चल रहा है। इसलिए "सिस्टम" सुरक्षित है.. माफिया निर्भय होकर प्रशासनिक अफसरों को गुलामी का हुक्म देता है क्योंकि उसे मालूम है कैसे लोकतंत्र का कोई भी अंग माफिया के हिसाब से सिस्टम का हिस्सा बनाया जाता है।
ऐसे में संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल शहडोल जैसे आदिवासी जिलों को भारत में यानी संविधान की शीर्ष सत्ता पर आदिवासी नेतृत्व राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना क्या संदेश देता है.....? क्या आदिवासी समाज सजगता और अधिकारिता के बावजूद वह इस संपूर्ण स्वतंत्रता और अधिकारिता के बाद भी संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्रों में माफिया गिरी के जरिए पर्यावरण परिस्थितिकी को खुले तौर पर लूट मचाने वाले तंत्र को रोक सकते हैं.....? अथवा उन्हें रोकने का प्रयास कर सकते हैं...? यह उनके लिए बड़ी चुनौती होगी ।
क्योंकि जब वे राष्ट्रपति चुनी गयीं तो एक वीडियो बहुत वायरल हो रही था। जिसमें वे भगवान शिव के मंदिर पर नंदी के कान में कुछ कहती दिखाई दे रही। उन्हें शायद तब राज्यपाल होने के बावजूद भी यह उन्हें उनकी आस्था के जरिए मालूम था कि पत्थर के शिव के सामने बैठा हुआ पत्थर का नंदी अवश्य उनका संदेश महादेव या बड़ादेव तक पहुंचा देंगे। समस्त जड़ चेतन जीवो में एकात्मता का दर्शन उनके इस व्यवहार में देखने को मिलता है। तो क्या आर एस एस के शिखर पुरुष रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद का दर्शन राष्ट्रपति के पद पर बैठने के बाद टिका रह पाता है...? यह उनके कार्य व्यवहार में आने वाले 5 वर्ष में हम विशेष तौर पर विशेष आदिवासी क्षेत्र के निवासी समस्त नागरिकों को महसूस करने का भी अवसर मिलेगा अथवा कोई राजनीति उन्हें बिरसा मुंडा को भगवान बिरसा मुंडा कहकर महिमामंडन करते हुए सिर्फ आदिवासियों की वोट बैंक पर नजर रख रही है ....?;यह भी देखने को मिलेगा।
जिसकी शुरुआत हम इस रूप में देख सकते हैं कि शहडोल में क्या हमारे आदिवासी नेता लंबे समय तक सांसद बने रहे वर्तमान सांसद हिमाद्री सिंह के पिता स्वर्गीय दलवीर सिंह अथवा उसी पहाड़ के रहने वाले आदिवासी लंबे समय तक सांसद रहे दलपत सिंह परस्ते की मूर्तियां शहडोल में उनकी स्मारक के रूप में स्थापित की जा सकती हैं। तब जबकि बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में शहडोल में स्थापित किया गया है। इसकी पहल क्या उनकी पुत्री हिमाद्री सिंह राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने के बाद भी क्षेत्र के सांसद रहे दलपत सिंह और दलवीर सिंह की मूर्तियां लगाने के सपने को संजो सकती हैं ...?इससे शुरुआत होता देखना महसूस होगा ।
इसका आशय यह नहीं कि आदिवासियों का उत्थान हो जाएगा किंतु मूक बधिर अब तक आदिवासी नेतृत्व को बोलने की सोचने की और समझने की जिस क्षमता को आदिवासी क्षेत्र देखना चाहता है क्या वह प्रकट होगा...? जिससे आदिवासी क्षेत्र के पर्यावरण पारिस्थितिकी पर लगातार योजनाबद्ध तरीके से विकास के नाम पर की जा रही दमनकारी और विनाशकारी परिस्थितियों से बचने संवाद का रास्ता भी खुलेगा। फिलहाल तो महामहिम पद पर मुर्मू जी के पहुंचने पर यही एक शुरुआत होगी। ऐसा हम सोचते हैं। और अगर आदिवासी वह भी महिला आदिवासी राष्ट्रपति होने के बाद भी अगर भारत में आदिवासी विशेष क्षेत्रों की पर्यावरण और पारिस्थितिकी की पर लगातार माफिया और ब्यूरोक्रेट्स के द्वारा मिलकर डाले जा रहे डाका पर रोक नहीं लगता है तब यह मानना चाहिए की श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को जीवित ही देवी का दर्जा देने का प्रयास हुआ है। जबकि बिरसा मुंडा को मरने के बाद भगवान के रूप में महिमामंडित किया गया। इसके अलावा मुर्मू के मायने आदिवासी विशेष क्षेत्रों के लिए कुछ भी नहीं होगा....
अपने देश में राष्ट्रपति की शक्तियां सीमित है। चुनाव की प्रणाली उसे सत्ता पक्ष की बातें मानने के लिए विवश करती हैं।लोक कल्याण कारी कार्यक्रमो के लिए प्रधानमंत्री से बात की जा सकती है।
जवाब देंहटाएं