राममनोहर
लोहिया के
कृष्ण -1
डॉ राममनोहर लोहिया अपने समय के प्रखर राजनीतिज्ञ थे । देश की तात्कालिक राजनीति की उनकी अपनी मौलिक निरपेक्षता थी । श्रीकृष्ण के चरित्र का उनका यह एक भि्न्न ही मुल्यांकन है । कुछ विलक्षण अवधारणाएँ भारतीय एकता के विषय में कृष्ण-चरित्र की पृष्भूमि को लेकर लोहिया के मन में थीं। अपने को लोहिया के मानस पुत्र बताने वाले इन दिनों के कुछ राजनेता वस्तुतः लोहिया के मौलिक विचारों से कितनी दूर भटक गये हैं, यह भी इस लेख से उजागर होगा / लम्बे लेख को स्थान के अभाव से अपरिहायतःसंक्षिप्त करना पड़ा है। - सम्पादक]
यह आलेख वेद मंजरी वाराणसी से निकलने वाली पुस्तक से श्री कृष्ण विशेषांक का हिस्सा है। इसमें अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़ा गया है और हम इसे क्रम से चलाने का प्रयास करेंगे ताकि लोग जाने किताब जब राम आधुनिक राजनीति की रसमलाई नहीं बन रहे थे तब धर्म और आध्यात्म को लेकर राजनेता की राष्ट्रीय चिंतन क्या कहता था अब धर्म के राम और कृष्ण सिर्फ एक दुकान बनते जा रहे हैं
कृष्ण की सभी चीजें दो हैं : दो माँ, दो बाप, दो प्रेमिकाएँ या यों कहिए अनेक । जो चीज संसारी अर्थ में बाद की या स्वीकृत या सामाजिक है, वह असली से भी श्रेष्ठ और अधिक प्रिय हो गयी है। यों कृष्ण देवकीनन्दन भी हैं, लेकिन यशोदा-नन्दन अधिक । ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो कृष्ण की असली माँ, पेट-माँ का नाम न जानते हों, लेकिन बाद वाली, दूध वाली, यशोदा का नाम न जानने वाला कोई निराला ही होगा । उसी तरह वसुदेव कुछ हारे हुए से हैं और नन्द को असली बाप से कुछ बढ़कर ही रुतबा मिल गया है। द्वारका और मथुरा की होड़ करना कुछ ठीक नहीं, क्योंकि भूगोल और इतिहास ने मथुरा का साथ दिया है। किन्तु यदि कृष्ण की चले तो द्वारका और द्वारकाधीश मथुरा और मथुरापति से अधिक प्रिय रहें । मथुरा तो बाल -लीला औरयौवन-क्रीड़ा की दृष्टि से वृन्दावन और बरसाना वगैरह अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
प्रेमिकाओं का प्रश्न जरा उलझा हुआा है। किसकी तुलना की जाये, रुक्मिणी और सत्यभामा की, राधा और रुक्मिणी की, या राधा और द्रौपदी की । प्रेमिका शब्द का अर्थ संकृचित न कर सखा-सखी भाव को लेके चलना होगा। अब तो मीरा ने भी होड़ लगानी शुरू की है। जो हो, अभी तो राधा ही बड़भागिनी है कि तीन लोक का स्वामी उसके चरणों का दास है । समय का फेर और महाकाल शायद द्रौपदी या मीरा को राधा की जगह तक पहुँचाये, लेकिन इतना सम्भव नहीं लगता । हर हालत में रुक्मिणी राधा से टक्कर कभी नहीं ले सकती।
मनुष्य की शारीरिक सीमा उसका चमड़ा और नख हैं। यह शारीरिक सीमा उसे अपना एक दोस्त, एक माँ, एक बाप, एक दर्शन वगैेरह देती रहती है । किन्तु समय हमेशा इस सीमा से बाहर उछलने की कोशिश करता रहता है, मन ही के द्वारा उछल
सकता है । कृष्ण उसी तत्व और महान् प्रेम का नाम है, जो मन को प्रदत्त सीमाओं
से उलांधता-उलांधता सवमें मिला देता है, किसी से भी अलग नहीं रखता, क्योंकि कृष्ण तो घटना-क्रमों वाली मुष्य लीला है, केवल सिद्धान्तों और तत्त्वों का विवेचन नहीं ।इसलिए उसकी सभी चीजे अपनी और एक की सीमा में न रहकर दो और निरापनी हो गयी है। थो दोनों में ही कृष्ण का तो निरापना है, किन्तु लीला के तौर पर अपनी माँ, बीवी
और नगरी से परायी बढ़ गयी है। परायों को अपनी से बढ़ने देना भी तो एक मानी में अपनेपन को खत्म करना है । मथुरा का एकाधिपत्य खत्म करती है द्वारका, लेकिन उस क्रम में द्वारका अपना श्रेष्ठत्व जैसा कायम कर लेती है ।
भारतीय साहित्य में माँ हैं यशोदा और लला हैं कृष्ण। माँ-लाल का इससे बढ़कर मुझे तो कोई सम्बन्ध मालूम नहीं, किन्तु श्रेष्ठत्व भर ही तो कायम होता है । मथुरा हटती नहीं और न रुक्मिणी, जो मगध के जरासन्ध से लेकर शिशुपाल तक होती हुई हस्तिनापुर की द्रौपदी और पाँच पाण्डवों तक एकरूपता बनाये रखती है। परकीय स्वकीय से बढ़ कर उसे खत्म तो करता नहीं, केवल अपने और पराये की दीवारों को ढहा देता है। लोभ, मोह, ई्या , भय इत्यादि की चहारदीवारी से अपना या स्वकीय छुटकारा पा जाता है सब अपना और अपना सब हो जाता है । बड़ी रसीली लीला है कृष्ण की, इस राधा-कृष्ण या द्रौपदी - सरखा और रुक्मिणी- रमण की कहीं चर्म-सीमित शरीर में,प्रेमानन्द और खून की गरमी और तेजी में, कमी नहीं । लेकिन यह सब रहते हुए भी कैसा निरापना ?
-----------------------क्रमशः भाग 2 में------------
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