यानी लोकतंत्र का
समाज
जिंदा है।
(त्रिलोकीनाथ )
क्यों ना हो बहुत पीड़ादायक हो यह दो-तीन वर्ष कहे अगर श्रुतियों के हिसाब से यह सदी की महामारी थी। दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र; भारत के लिए यह चुनौती भी थी कि वह अपने मानवता को जिंदा रख पाने में सक्षम है या मरा हुआ है...? और बीते 3 साल से हम लगातार इस छोटे से आदिवासी विशेष क्षेत्र में इस मंथन पर थे कि क्या लोकतंत्र के साथ मानवता के जिंदा होने का सवाल बचा हुआ है...?
लोकतंत्र यही है जो हम देख रहे हैं इस आजादी के तथाकथित अमृत महोत्सव मैं जो होता दिख रहा है, तब जबकि शहडोल मेडिकल कॉलेज में करीब 24 लोगों की मौत सिर्फ ऑक्सीजन न मिलने से हो जाए और उस पर भी इस घटना को दबा दिया जाए पूरी लोकतंत्र की ताकत को लगाकर।
और स्वाभाविक है कि जब वे कोरोना बीमारी से मरे ही नहीं है तो लोकतंत्र में बटने वाली ₹50000 की तथाकथित राहत राशि और साथ में वह कीमती सदी का सर्टिफिकेट जिसे सदियां याद रखेंगे कि महामारी में वह भी शहीद हुआ था; दोनों से ही हितग्राही को महरूम कर दिया जाए। बावजूद इसके की इस लोकतंत्र की विधायिका अथवा कार्यपालिका ने नहीं बल्कि न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था माननीय उच्च न्यायालय ने स्पष्ट संदेश दिया था कि अगर इस अवधि में कोरोनावायरस व्यक्ति आत्महत्या भी किया है तो उसे यह राहत राशि और सर्टिफिकेट दिया जाए। यानी अवसाद के हालात भी महामारी के रूप में चिन्हित करने का आदेश पारित किया गया था।
फिर भी हमारा लोकतंत्र सदी की महामारी का सर्टिफिकेट और दिया जाने वाला ₹50000 का टुकड़ा भी मृतक आत्मा को नहीं दे पाया.... तब जबकि अरबों खरबों रुपया मंदिर और नया संसद महल अपनी सुख-सुविधा के हिसाब से बनाने में नष्ट किए जा रहे थे बजाएं ऑक्सीजन सप्लाई मानवता को देने के..।
ऐसे हालात में अगर अपने लोकज्ञान से भारत का तथाकथित चौथा स्तंभ लोकतंत्र यानी पत्रकारिता से जुड़ा हुआ
बिना सैलरी के भी काम करने वाला जुनूनी-श्रमिक श्रम मेव जयते को बुलंद करता हुआ कर्तव्य निष्ठा का पालन करता है। और उसका कोई सम्मान नहीं करता जैसे कि तथाकथित 15 अगस्त या 26 जनवरी में ब्यूरोक्रेट्स ने कोरोना योद्धा नामक इवेंट को क्रिएट करके उस का जश्न यानी मिठाई यानी सम्मान सभा वाली आपस में बांट कर खा ली; और लोकतंत्र के प्रथम प्रहरी को उसी तरह गेट के बाहर खड़ा कर दिया जैसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जब कोरोना की कोरोना कार्यकाल में आए तो शहडोल कलेक्ट्रेट के बाहर कड़ी दोपहरी में सिर्फ मिलने के लिए पत्रकारों के दल को अछूत बना दिया गया था, बल्कि तत्कालीन व्यवस्था ने पुलिस कानून की व्यवस्था का बॉर्डर बना कर महाराजा शिवराज को लोकतंत्र के प्रहरीयों से मिलने पर भी बंदिश लगा दी थी।
इन हालात में अगर पत्रकारों का कोई सम्मान नहीं हुआ तो स्वाभाविक घटनाएं मानी जा सकती थी हम भूल भी गए थे.... कि सदी की महामारी में हम जिंदा भी रहे....
किंतु अचानक शहडोल की नगर पालक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के हस्ताक्षर से किसी संस्था ने यदि पत्रकारों का उनके योगदान के लिए सम्मान किया है तो यह हमारी लोक ज्ञान पद्धति के जिंदा होने के साथ समाज के जिंदा होने का भी प्रमाण पत्र है।
कि लोकतंत्र कितना भी पतित क्यों ना हो जाए समाज पतित नहीं होता है और यही बात लोकज्ञानी समाज की सबसे बड़ी जीने की जिजीविषा है कि वह जिंदा है।
ऐसे में चाहे कुछ भी ना मिले और नहीं भी मिल रहा है क्योंकि हम देख रहे हैं पत्रकारों की अधिमान्यता जैसी गई गुजरी पहचान जिसने अधिकतम प्रतियोगी गुलाम पैदा होते हैं उसकी अंतिम सिग्नेचर कोई ब्यूरोक्रेट्स ही करता है। अभी भी भारतीय पत्रकारिता में जिंदा नहीं हो पाया है कि वह अपने समाज के पत्रकार समाज के लोगों को चिन्हित करने का इमानदार शुरुआत करें ....?
आखिर क्यों उसकी पहचान उसकी शुरुआत कोई ब्यूरोक्रेट्स याने कार्यपालिका का व्यक्ति तय करता है...? जबकि आजाद लोकतंत्र के पहले ही यह सिद्ध हो गया था की आजादी दिलाने में पत्रकारिता प्रमुख प्रहरी था।
ऐसे स्तंभ को कुचल देना ही आजादी को लगातार खत्म करते रहने का एक तरीका है यह अलग बात है कौन सी सरकार इस तरीके का किस स्तर पर इस्तेमाल करती है। किंतु फिर भी समाज जब तक जिंदा है तब तक लोकतंत्र जिंदा रहेगा। उस संस्था को हार्दिक
धन्यवाद जिसने पत्रकारिता को सदी की महामारी कोरोना के युद्ध में योद्धा के रूप में सींचने का काम किया है।
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