गुरुवार, 16 जून 2022

सेना में संविदा भर्ती; हंसे या रोएं .....?(त्रिलोकीनाथ)


सेना के अंदर

 सीमित अवधि हेतु संविदा कर्मी का प्रयोग


 देश के लिए बड़ा खतरा....?

                                    ( त्रिलोकीनाथ )

4 वर्ष के लिए सेना में भर्ती होने वाले नौजवानों में से कितने नौजवान जनरल रावत जैसे पद पर इमानदारी से पहुंच पाएंगे, यह उनके काम कर रहे कर्तव्य निष्ठा और नौकरी सेना से 4 वर्ष में निकल जाने के भय के विरुद आवाज से उनका आत्मविश्वास कितना जागृत होगा यह अनुमान लगा पाना सिर्फ सटोरियों के सट्टे की तरह एक व्यापार होगा। क्योंकि वह अपने असुरक्षित भविष्य को लेकर प्रतिपल भयभीत रहेंगे और ज्यादा से ज्यादा किसी सूदखोर / ब्याज देने वाली कोई सरकारी या गैर सरकारी रकम के 4 साल बाद कर्जदार बनने की आशंका में कितने कर्तव्यनिष्ठ होकर अपनी भारत माता की सेवा करेंगे यह तो 4 वर्ष बाद  निकलने वाला कोई जवान ही बता पाएगा । फिलहाल 2024 का भी लोकसभा चुनाव रोजगार के इस प्रोपेगेंडा के इस प्रयोगशाला में नए प्रायोगिक जुमले में टाइम पास हो जाएगा। गंदी राजनीति का यही फंडा है ।

हमें याद है शहडोल क्षेत्र के मानपुर क्षेत्र में सेना से निकाले गए  पयासी नाम का एक युवा थाने के अंदर घुस कर थानेदार को मारा था। क्योंकि थानेदार का अत्याचार पयासी की नजर में उसकी तानाशाही के साथ संघर्ष कर रही थी ।  उसका आरोप था। व्यक्तिगत रूप से जब तब तब खोज से निकाला गया पयासी मेरे से मिला मुझे सहज और सरल लगा। किंतु उसकी पर्सनालिटी और सेना में दिए गए प्रशिक्षण में पुलिसिया भ्रष्टाचार उसे रास नहीं आती थी ।और इस संघर्ष में धीरे धीरे वह क्षेत्र में एक गुंडा के रूप में स्थापित हो गया। अंतत: उसकी हत्या के साथ उसका अंत हुआ। निश्चित तौर पर जब वह सेना में भर्ती हुआ रहा होग उसमें मातृभूमि के प्रति समर्पण की योग्यता भी रही होगी ।


अग्निपथ प्रवेश योजना की भर्ती के बाद जब सैन्य कौशल में फिजिकली प्रशिक्षित युवा 4 वर्ष बाद सड़क में होगा वह भी बिना किसी आर्थिक सुरक्षा की गारंटी के देश के लिए अपने शहर व समाज के लिए यह कितना खतरनाक साबित होगा कहा नहीं जा सकता....? यदि उसको सकारात्मक तरीके से रोजगार में लगाए जाने की गारंटी नहीं दी जाएगी क्योंकि सेना की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा देश के प्रति जो भावना पैदा करती है वह लौटकर भारत जैसे समाज में विधायिका कार्यपालिका के भ्रष्टाचार से कैसे संघर्ष करेगी....?

इसलिये यह एक खतरनाक प्रयोग भी हो सकता है क्योंकि आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी तो अग्निपथ से निकला अग्निवीर प्रशिक्षित युवा सामाजिक व्यवस्था के विरोधाभास में आर्थिक अभाव के फ्रस्ट्रेशन में चलते गुंडा या तानाशाह बन सकता है।

 


तो इसकी सुरक्षा देना सरकार की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए थी बजाय इसके प्रशिक्षित युवाओं को असुरक्षित तरीके से सड़क में फेंकने के।

 चलिए दूसरी बात करते हैं दो प्रकार की सेना भारत की लोकतंत्र में काम कर रही है एक जो भारत की सीमाओं में भारतीय सेना के लिए काम करती है दूसरी वह अदृश्य अपरिभाषित और अज्ञात रूप से जो सेना के अंदर काम करती है जो बिना तनख्वाह, बिना सुरक्षा की गारंटी के बौद्धिक तबके से प्रभावित अथवा उससे नकल करके स्वयं को पत्रकारिता में डालने वाला समाज एक अदृश्य शक्तिशाली पत्रकारिता के आकर्षण में फंस जाता है ।और जब अंदर आता है तो पता चलता है की आर्थिक साम्राज्यवाद के युग में वह सिर्फ उपयोग करो और फेंक दो के अलावा कोई टूलकिट नहीं है। उसका अंतर-संघर्ष उसके कीमती समय को ही नष्ट करता है किंतु वह सामाजिक ताने-बाने को समझता है और गैर सैन्य प्रशिक्षण युक्त होता है । शुरुआत में थे यह पत्रकार भारत माता के लिए कर्तव्यनिष्ठा और स्वतंत्रता का प्रहरी बनकर समर्पित होकर काम करता है क्योंकि उसका जज्बा होता है कि वह कुछ करें अब तो विश्वविद्यालयों ने भी वकायद एक क्लास लगा कर पत्रकारिता के अद कचरे सिद्धांतों पर पत्रकारिता की डिग्री दे रहे हैं जिसमें स्वतंत्र पत्रकारिता आधारित रोजगार की सुनिश्चित का नहीं होती है इसलिए लाचार तरीके से लोकतंत्र को कोसता हुआ अपनी जिंदगी की अजीबका की रफ्तार को बढ़ाता रहता है किंतु अगर वह सैन्य प्रशिक्षित होता तो शायद हालात वही होते जो अग्निपथ प्रवेश सेना से निकलने वाले युवाओं का होने वाला है...

 अब क्या होने वाला है यह तो भविष्य बताएगा या तो यह कुचल दिए जाएंगे अथवा विद्रोह की हालात में अपने हाथों में प्रशिक्षण का दुरुपयोग करेंगे। हम अभी भी देख रहे हैं कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा पुल पत्रकारिता में काम करने वाला युवा भारी भटकाव के साथ सिर्फ अपना समय नष्ट कर रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं लाखों पत्रकार डिग्री होल्डर्स को डिग्री तो बेच दी हैं किंतु क्या वे पत्रकार या पत्रकारिता के मापदंडों पर सही उतर रहे हैं... जिनमें स्वतंत्र पत्रकारिता के या स्वतंत्र भारत के गुण के अनुरूप परिणाम आ रहे हो कम से कम अभी तो देखने में नहीं आ रहा है अब तो कई विश्वविद्यालय पत्रकारिता की डिग्री को बेचने के लिए अपना सर्टिफिकेट से करोड़ों  की आमदनी


छात्रों से कर रहे हैं। क्योंकि वर्तमान सच यह है  आजि विका के चक्कर में गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं।

तो यह बड़ा प्रश्न है..? क्योंकि पत्रकारिता के नाम पर मीडिया और अखबार जगत के बहुतायत मगरमच्छों ने जमीनी पत्रकार का आधार बनाकर करोड़ों - अरबों रुपए सरकार वह भारतीय बाजार से तो लेते हैं किंतु वे वही सब कुछ करते हैं जो उन्हें ज्ञान अथवा अज्ञात हाईकमान से निर्देशित होता है।

 कई पत्रकार मीडिया हाउस से छोड़कर वेबसाइट और सोशल मीडिया में अपनी बातों को सिर्फ रख पा रहे हैं अभी तक पत्रकार में रोजगार का भविष्य देखने वाले पत्रकारों को जिला यह जमीनी स्तर पर सूचना पारदर्शी नहीं है कि वह गुलाम बनेंगे अथवा पत्रकार रहेंगे....? और उनकी भविष्य की सुरक्षा कितनी है...? जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का जमीनी प्रहरी के रूप में याने सैनिक के रूप में अघोषित तौर पर स्थापित किया गया है और तो और पत्रकार  को उनकी पहचान भी देने में लोकतंत्र की पत्रकारिता का कोई रोल नहीं है।

 कोई करोड़ों रुपए पर खेलने वाला ब्यूरोक्रेट्स अंतिम तौर पर इन्हें अधिमान्य करता है ताकि जब यह रिटायर हो यानी 60 साल की उम्र के बाद सरकारी भीख यानी अनुदान नामक राशि उनके क्राइटेरिया मे दी जाएगी तो समझ ले कि मान लीजिए हमारे एक स्थापित पत्रकार मित्र को 64 साल में बहुत सिफारिश के बाद जिला स्तर  अधिमान्यता दी गई तो अधिमान्यता तिथि के 10 वर्ष बाद  सरकारी भीख याने अनुदान मिलनी प्रारंभ होगी यानी 74 साल कि जीवन की गारंटी के बाद वे इस लोकतंत्र के सिस्टम का फायदा उठा पाएंगे।

 


अगर जीवित रहे तो अन्यथा सिस्टम की सड़न के चलते रीवा-अमरकंटक सड़क मार्ग में जैसे 54 लोग बाणसागर में डूब कर मर गए; तो मर गए... तो मर गए । 54 लोगों की हत्या में एक भी व्यक्ति दोषी नहीं निकला।

यही सिस्टम है एक मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से आकर इसकी निगरानी करते रहें। यही व्यवस्था है ऐसे में जबकि लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी पत्रकार ब्यूरोक्रेट्स की विवेकहीनता का अथवा लोकतंत्र की विधायिका से निकले षड्यंत्रकारी भ्रष्टाचार का शोषण का शिकार है तो सेना से अग्निपथ पार करने वाले संविदा प्रशिक्षित सैनिक युवा किस प्रकार से भविष्य के लोकतंत्र को झेल पाएंगे यह बड़ी चुनौती है...?

 क्या इस पर भी तैयारी भारत सरकार ने की थी। गारंटी के साथ हम कह सकते हैं उसने कोई तैयारी नहीं की। गारंटी इस आधार पर कि जब देश आजादी का अमृत काल महोत्सव मना रहा है तब तक यानी 75 साल में लोकतंत्र का प्रहरी पत्रकारिता में आजादी के साथ सुरक्षित भविष्य आजीविका की सुरक्षा यहां तक की पत्रकार होने की सुनिश्चित ता याने अधिमान्यता भी उनकी कृपा से सिर्फ भीख में टुकड़े के रूप में दी जाती है और इस अभाव में पत्रकारों का सम्मान इस लोकतंत्र ने जितना गिराया है ऐसे में अग्निपथ प्रशिक्षित सैनिक की भविष्य की दिशा क्या होगी कहा नहीं जा सकता...? अगर उन्हें पेंशन सुविधा का लाभ नहीं मिलता है तो वे डिप्रेशन में अथवा विरोधाभास में सड़ी हुई लोकतांत्रिक व्यवस्था पर किस स्तर पर निर्णय लेंगे कह पाना आज बहुत जटिल चिंतन होगा....? इसलिए भी बिना भविष्य की सुरक्षा की गारंटी के कम से कम सेना में संविदा कर्मी नियुक्त होने वाले अग्निपथ प्रवेश योजना के सैनिकों की अजीबका सुरक्षा की गारंटी तो जरूर हो... लेकिन उनके साथ खिलवाड़ करना लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इतना दो जब जमीन पर प्रशिक्षित राष्ट्रभक्त सैनिक होगा वह या तो गुंडा हो जाएगा अथवा तानाशाही के व्यवस्था में अपराधी साबित होगा अगर व्यवस्था इन्हें गुलाम नहीं बना पाई तो...? और बन भी गई तो गुलामी के बाद ही यह देश आजाद हुआ था यह भी नीति कारों को सोचना चाहिए।

 यह वक्त की बात है तब हजार साल लगे थे गुलामी से मुक्ति पाने में अब 2000 साल लग जाएं; यह भी सोचना चाहिए। और बिना भविष्य की सुरक्षा की गारंटी के सेना में खिलवाड़ नहीं करना चाहिए अन्यथा सैन्य मनोबल भी अपना निर्णय ले सकता है।

 जैसे कि अफवाह चर्चित रहे कि कांग्रेस कार्यकाल में एक सेना प्रमुख ने शासन की ओर अपनी सैन्य ताकत किसी तख्तापलट के लिए को मोड़ दिया था और अब वह इस सरकार में मंत्री हैं।

 क्योंकि यह प्रश्न भी अधूरे हैं कि क्या जनरल रावत के हेलीकॉप्टर हादसे में सब कुछ पारदर्शी है या भगवान भरोसे तो क्या देश भगवान भरोसे अग्निपथ की ओर जा रहा है। यह भी बड़ा प्रश्न है...? चाहे वे लोकतंत्र के प्रहरी पत्रकारों की जमीनी हकीकत का मामला हो अथवा प्रशिक्षित अग्निपथ से निकले भविष्य के सैनिक हो।

 मुझे एक न्यायाधीश की टिप्पणी सद्भाविक लगी कि "अगर पत्रकारिता में सैलरी सुनिश्चित होती और इसे न्यायपालिका से जोड़ कर रखा जाता तो देश का भविष्य और खूबसूरत होता।" 

किंतु यह सिर्फ सुनहरा सपना है और भारतीय सेना के अंदर रोजगार की सुरक्षित गारंटी के सुनहरे सपने को अग्निपथ के रास्ते में जाकर तोड़ना खतरनाक साबित हो सकता है। अनुभव तो यही बताता है क्योंकि मैंने अगर हजारों करोड़ो रुपए मध्यप्रदेश शासन को अपनी पत्रकारिता कला से दिलाने का काम किया है तो मुझे क्यों निराश या हताश होना चाहिए...? इस भ्रष्ट लोकतंत्र में यह भी बड़ा प्रश्न है..?



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