कुलपति बिकता है,
बोलो खरीदोगे .........?
( त्रिलोकीनाथ )
कुछ ऐसे ही हालात इस विज्ञापन में समझ में आ रहे हैं। क्योंकि आमतौर पर जितने भी पद निकलते हैं वह सब ओपन मार्केट में होते हैं कहने के लिए भलाई निष्पक्ष पदों की भर्ती होती है
किंतु वास्तव में यह पद खरीदे ही जाते हैं। हाल में शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय में जिन गिने-चुने पदों पर भर्ती का विज्ञापन निकला था उसकी जमकर बोली लगी । "हिंदुस्तान में रहना है तो वंदेमातरम कहना होगा" कुछ इस अंदाज में बोली की रकम का स्टेटस स्टेटस नेशनल लेवल पर हो गया था। ऐसा आदिवासी क्षेत्र शहडोल के शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय की आंतरिक सूत्र बताते हैं। यही हाल भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में देखा गया।
कि किस प्रकार से निम्न स्तर के गुणवत्ता ही व्यक्तियों को कुलपति जैसे प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान किया गया। और हो भी क्यों ना, यदि महामहिम राज्यपाल महोदय जैसे पद पर विवादित व्यक्ति थोप दिए जाते हैं तो वह अपनी अनुभव और योग्यता के आधार पर ही विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन प्रक्रिया का निर्धारण करेंगे; इसमें कोई शक नहीं है ।
ऐसी स्थिति में संवैधानिक पदों की दुर्गति स्वभाविक है तो इन विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों की गुणवत्ता की स्थिति का अंदाज लगाना बहुत कठिन काम नहीं है कि किस लेवल के छात्र विश्वविद्यालय से पढ़कर निकलेंगे और क्या पढ़कर निकलेंगे..? भलाई उन्हें राष्ट्रपति ही अलंकृत करने क्यों न पहुंच जाएं ।
तो सवाल यह है इन्हें ठीक कैसे किया जाए अगर कुलपति पद की नीलामी बोली में एकमात्र यह शर्त भर्ती के समय ही जुड़ जाती की नियुक्ति की दिनांक के पूर्व उनका समस्त पारिवारिक संपत्ति की घोषणा उसी तरह की होती, जैसे चुनाव के दौरान जनप्रतिनिधियों के लिए अनिवार्य कर किया जाता है और कुलपति पद से हटने के पूर्व अनापत्ति तभी दी जाती जबकि अपनी कुल संपत्ति का तुलनात्मक विवरण पत्रिका शासन के सामने प्रस्तुत होता। तो शायद भ्रष्टाचार का स्पीड-ब्रेकर बन कर यह शर्त, विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नीलामी बोली मे कुछ नियंत्रण कर पाती।
अन्यथा जिस प्रकार से उच्च शिक्षा शैक्षणिक संस्थाओं की दुर्गति हो रही है और तमाम प्रकार से विद्यार्थियों के जरिए भ्रष्टाचार के जरिए ब्लैक मनी जनरेट करने की यह विश्वविद्यालय एक यूनिट बन रहे हैं और जिस मानसिकता की युवा पीढ़ी निकल रही है उससे भारत का भविष्य "पूत के पांव पालने" के अंदाज में दिख रहा है। किंतु इसे रोकने की जिम्मेदारी इसी लोकतंत्र की होनी चाहिए जो बीमार हालत में स्वयं लाचार है। इस परिस्थिति की में अंततः यही कहा जा सकता है "होई है वही जो राम रचि राखा" विशेषकर विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन प्रक्रिया को लेकर यह तरीका विश्वविद्यालयों का भविष्य अंधकार में बनाता है। तो सवाल यह है कि क्या इससे निकला जा सकता है आखिर विश्व गुरु के बौद्धिक वर्ग का क्या यही प्रोडक्ट रह गया अरे सपना ही देखना है तो अच्छा भी देखा जा सकता है..?
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