दरबार-ए-जनसुनवाई, कमिश्नर
कैसे मिले जनता-जनार्दन से..
अक्सर लोकप्रिय सरकारी कार्यक्रम जनसुनवाई की तस्वीरें समाचार माध्यमों में देखी सुनी जाती है जहां पर अलग-अलग जगह अधिकारियों के समक्ष जनसुनवाई में लोग अपनी समस्याओं का निराकरण के लिए अधिकारियों के समक्ष आवेदन देते हैं। इन आवेदनों पर कितना कारगर-अमल होता है अथवा कितनी कार्यवाही अपने लक्ष्य को प्राप्त होती हैं यह विश्लेषण का विषय है... किंतु सरकारी कार्यक्रमों में लोकतंत्र का चेहरा देखना एक अहम प्रदर्शन माना जाता है।
शहडोल कमिश्नर राजीव शर्मा के दरबार में जब जनसुनवाई का कार्यक्रम होता है और अगर वे डेशबोर्ड में नहीं बैठे होते तब अक्सर देखा गया है की जो भी जनसुनवाई में नागरिक उपस्थित होकर अपनी समस्याओं को बताना चाहते हैं तो उन्हें राजीव शर्मा उस डॉक्टर की तरह ब्योहार करते हैं जैसे कि कोई भी पीड़ित सिर्फ व्यवहार से ही अपनी पीड़ा से निजात पाता हुआ संतुष्ट हो लेता है कि मेरी बात को इत्मीनान से सुना गया।
जनसुनवाई में आने वाली भीड़ में कोई एक व्यक्ति भी अत्यंत पीड़ा से व्यथित होकर अपनी बात अपने प्रशासनिक अधिकारी के समक्ष कहने आया और अधिकारी ने उसे आराम से बैठ कर उसे अपनी बात कहने का मौका दिया तो वह मानसिक तौर पर इस बात के लिए संतुष्ट हो जाता है कि हो सकता है यदि कोई कार्यवाही नहीं की गई है तो उसमें कोई प्रशासनिक अड़चन हो..? ऐसे वातावरण का निर्माण कभी-कभी किसी किसी अधिकारी की फोटोग्राफी में ही दिखता है।क्योंकि प्रथम दृष्टया ऐसा परिवेश बनाने का प्रयास लोकतंत्र में हर अधिकारी करते तो हैं उसमें राजीव शर्मा जैसे लोग कुछ हटकर आवेदन कर्ताओं को दूरदराज से अपनी आशा भरी निगाहों में अपने अधिकारी से मिलने का अवसर देते हैं
कुछ फोटोग्राफ्स में यह स्पष्ट होता है कि कैसे आयुक्त करता को बैठकर इत्मीनान से अपनी बात कहने का अवसर देते हैं । और यह हर याचक के साथ होना चाहिए कमिश्नर की यह कार्य प्रणाली निश्चित रूप से अधीनस्थ सही प्रशासकीय अधिकारियों के लिए एक प्रकार का संदेश भी है की जनता सिर्फ याचक नहीं है वह लोकतंत्र में जनता-जनार्दन (भगवान )भी है। सिर्फ वोट देते वक्त नहीं उस वक्त भी जब जनार्दन अपने सिस्टम से अपनी समस्याएं सुनाने आता है तो भगवान और भक्तों का मेल कैसा होना चाहिए यह लोकतंत्र की खूबसूरती क्यों ना हो ऐसा प्रयास करता दिखना भी एक बड़ी कला है।
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