इवेंट ;
15 मार्च"द कश्मीर फाइल"...
या "16 मार्च शपथ समारोह"..?
(त्रिलोकीनाथ)
15 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आया फिल्म "कश्मीर फाइल" सच को बताती है ऐसी फिल्में बननी चाहिए। तो प्रश्न उठता है अब तक नहीं देखी गई यह चर्चित फिल्म क्या सतत चलने वाले पॉलिटिकल इवेंट का नया प्रेजेंटेशन है।
ताकि 16 मार्च का पॉलिटिकल इवेंट जो शहीदेआजम भगत सिंह के जन्म स्थल गांव खटकड़ कलां मे पूरी पंजाब की कायनात को बदल देने का सपना ने कर भारी भरकम धमाकेदार प्रस्तुति के साथ लड़के-लकड़ियो के लड़कदेहरी से निकली आम आदमी की पार्टी की मुख्यमंत्री का शपथ समारोह पर बसंती रंग में कश्मीर के दर्द का रंग का असर डालने का प्रयासमात्र था ...?
जिसे फिल्म के रूप में प्रस्तुत कर प्रधानमंत्री अपने फुर्सत के समय में समीक्षा करते हुए कश्मीर की सच का हवाला देकर फिल्म प्रमोट करते हुए इवेंट-क्रिएशन करने का काम किये। इसके साथ ही उनके यानी पालिटिकल कॉर्पोरेट इंडस्ट्री के तमाम मीडिया-मंडली ने पेड-न्यूज की तरह "द कश्मीर फाइल" के अलग-अलग चरित्र नायक को प्रस्तुत करके फिल्म के दर्द में, पंजाब की बसंती खुशी को निपटाने का काम किया...?
शहरी नकलची बंदरों के उत्पात से घबराए पॉलिटिकल कॉर्पोरेट जगत में मचा है हंगामा
हंगामा क्योंकि जिस धमाकेदार मिसाइल की तरह पंजाब में आम आदमी फट पड़ी है उससे कम से कम यह तो सुनिश्चित हो गया है कि नकलची बंदर, आम आदमी पार्टी की वानर सेना, अब नकलची नहीं रहे... वे अर्ध-राज्य दिल्ली की शहरों से निकलकर इतिहास के किरदारों में अगर सरदार पटेल को कोई चुरा सकता है तो भगत सिंह के और अंबेडकर के रियल हीरो को भी इवेंट क्रिएशन के रूप में लोकतंत्र की वोट के लिए उन्हें मिसाइल की तरह सत्ता के युद्ध जीतने के काम में लगा सकते हैं।
और हुआ भी यही, धर्म के "हरमिंदर साहिब के अपमान का इतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी राष्ट्रीय कुर्बानी के लिए भगत सिंह के बलिदान पर वोटर्स छप्पर फाड़ कर आम आदमी पार्टी की झोली में सत्ता डाल दी। आजाद भारत के देवताओं का धर्म, वोट बैंक के लोकतांत्रिक ध्रुवीकरण में धारदार हथियार साबित हुआ। उसने एक साथ कई राजनीतिक दलों की धज्जियां उड़ा दिया। तमाम दिग्गजों धुरंधर पंजाब की राजनीति में धूल चाटते नजर आए।
यहां तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इवेंट "मुख्यमंत्री से कहना मैं जिंदा बचकर आ गया..." भी बुरी तरह से फ्लॉप हो गया। यह पॉलिटिकल इंडस्ट्री के नकलची बंदरों का कमाल था। ऐसे नकल को सीखने में आजादी की श्रंखला से आई कांग्रेस पार्टी की विदेशी बहू और उनके अनुयायियों को नए सिरे से सीखना होगा। क्योंकि कांग्रेस के अंदर जहां एक और मुरचा लगा हुआ विरासत का साम्राज्य है वही उनके नए प्रगतिशील कबीले नेता अपना कबीला नहीं छोड़ना चाहते। भलाई इसके लिए मध्यप्रदेश में कोई बिसाहूलाल रोता-बिलगता हुआ राजा के दरबार में गुहार लगाता रहा। लेकिन दिग्गी राजा के रजवाड़े में अपने बच्चों के लिए सत्ता का खिलौना ज्यादा अहम होता है। फिर बुढ़ापा में भी तो बचपना आ ही जाता है। खुद भी खिलौना चाहना होता है। ऐसे में हजारों साल की गुलामी से निकली देश की आजादी की विरासत को कौन देखता है।
और यही हुआ भी कि मध्यप्रदेश के हाथ से कॉर्पोरेट पॉलिटिकल इंडस्ट्री ने सत्ता छीन ली। बहरहाल यह बीते कल की बात है।
भाजपा के भगवा पर भारी हुआ
शहीद-ए-आजम भगत का बसंती रंग
खटकड़ कला से लांच होगा बसंती रंग
आज की बात सिर्फ यह है कि पंजाब में 16 मार्च का खटकड़कलां के शपथ समारोह से शहीद-ए-आजम भगत सिंह के गांव से निकला बसंती रंग कहीं पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी के भगवा रंग को धूमिल ला कर दे। इसलिए फिल्म "द कश्मीर फाइल" का दर्द का इवेंट 15 मार्च को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुख से लांच हो गया। यही आज की कड़वी हकीकत है।
तो हमें क्या देखना चाहिए की "द कश्मीर फाइल" का पर्यायवाची शब्द क्या-क्या हो सकता है...?
जब से मोदी जी आए तो पहला चर्चित शब्द की "जब कोई गाड़ी के नीचे कुत्ते का बच्चा "पिल्ला" भी दब जाता है तो दर्द होता है"... अथवा अयोध्या के निर्मित कॉर्पोरेट राम मंदिर के बाद बनारस के काशीनाथ या मथुरा के श्री कृष्ण मंदिर पर्यायवाची शब्द गढ़ा जा सकता है या फिर लगभग बीत चुके तीन तलाक या 370 की जम्मू कश्मीर की धारा के बाद बंगाल का सांप्रदायिक दंगा भी पर्यायवाची माना जा सकता है। चर्चित कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले से निकल "काले रंग का हिजाब" भी "द कश्मीर फाइल" का पर्यायवाची हो सकता है। या फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का सांप्रदायिक दंगा भी बड़ा पर्यायवाची हो सकता है।
क्योंकि अब लगभग पिछड़ चुकी दलित परंपरागत राजनीति के तथाकथित कांग्रेस मुक्त अभियान की सफलता के बाद एक सतत प्रक्रिया में खुद के 4 राज्यों के शपथ समारोह से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी के लिए पंजाब में नकलची बंदरों की सेना के रूप में बैठ चुकी आम आदमी पार्टी का बसंती रंग का वायरस तेजी से फैलता हुआ दिख रहा है। और उसे रोकने के लिए रोज ब रोज नए इवेंट क्रिएशन पॉलिटिकल कॉर्पोरेट इंडस्ट्री की मजबूरी भी है अन्यथा कश्मीर फाइल के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर कश्मीर के बदलाव के बाद 1990 में निकले करीब 400000 कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास सफलता से करा दिया गया होता।
क्योंकि अब तो 370 भी नहीं है फिर पुनर्वास का दर्द उन्हें वहां संपूर्ण सुरक्षा के साथ यानी रोजगार की सुरक्षा, अजीबका की गारंटी की सुरक्षा, शिक्षा की गारंटी की सुरक्षा, और नागरिक अधिकारों की गारंटी की सुरक्षा के साथ पुनर्वास करा दिया गया होता तो द कश्मीर फाइल के सच बताने की कोई जरूरत नहीं पड़ती ।
क्योंकि कब तक हम सिखों के सांप्रदायिक दंगा, भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दंगा, अथवा 1990 के कश्मीर पंडितों के दंगा के दर्द की सच्चाई को सत्ता की चाबी के रूप में इस्तेमाल करते रहेंगे...? क्या "नया इंडिया" में लिखे गए स्क्रिप्ट का और इस पर काम करने वाले लोगों के अपने-अपने रंगों की बौछार करने का सिर्फ यही एक तरीका रह गया..? अन्यथा पुराने जख्मों पर मरहम लगाकर नई इमारतों को खड़ा करने और बेहतरीन लोकतांत्रिक भारत के सपनों का निर्माण करते हुए भारत के तमाम लाखों शहीदों को हम नमन कर सकते हैं। फिलहाल तो यह होता नहीं दिख रहा है क्या यही आज का दुर्भाग्य है....?
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