जिंदा पत्रकार संघ (भाग-क)
जिला पत्रकार संघ
का पुनरगठन
क्या पारदर्शी-भ्रष्टाचार है...?
(त्रिलोकीनाथ)
दुर्भाग्य से हम कानून को ही नहीं कानून की लाश को भी उतनी ही शिद्दत से जीने का प्रयास करते हैं जितना कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश साबित करता है कि यदि कोई कोरोना से प्रभावित कार्यकाल में कोई मृत हो गया है तो उस लाश का भी मौलिक अधिकार है कि उसके साथ में न्याय हो। और उस लास के उत्तराधिकारी को ₹50000 की राहत राशि दी जाए। यह कोरोना से मृत भारतीय नागरिक के साथ न्याय का प्रतीक है।
क्यों लाशों पर न्याय हो...?
लोकतंत्र जिंदा है इस बात की गारंटी का प्रमाण पत्र होता है कि उस क्षेत्र की पत्रकारिता क्या जिंदा है...? और कानून सम्मत जिंदा है अथवा नहीं...? तो जिला पत्रकार संघ में पिछले दिनों जो कुछ हुआ उसे समझने का प्रयास करते हैं ।
यह इसलिए नहीं कि हम पत्रकार हैं यह इसलिए कि हम भी जिला पत्रकार संघ की तरह एक लाश को लेकर पिछले 25 साल से जी रहे हैं। यह एक अलग बात है कि जब तक के जिला पत्रकार संघ के तरह ही समिति अधिनियम के अधीन रजिस्टर्ड संस्था पर्यावरण मंच शहडोल मार्च 1994 में रीवा स्थित रजिस्टार आफ फर्म्स एंड सोसाइटी कार्यालय से रजिस्टर्ड हुई थी ।तब के बाद कुछ सालों तक इसने कीर्तिमान स्थापित किए। वन विभाग में यूकेलिप्टस प्लांटेशन पर प्रतिबंध लगाए जाने का प्रस्ताव भी इसकी एक उपलब्धि रही है। तालाबों का संरक्षण अथवा अन्य पर्यावरण संरक्षण संबंधी कार्य में इसने एक मुकाम हासिल किया। बावजूद इसके क्योंकि सोसायटी एक्ट की कथित धारा 27 के अधीन प्रतिवर्ष निर्वाचित प्रक्रिया के दौरान भी भेजा जाने वाला प्रतिवेदन संबंधित कार्यालय को नहीं भेजा गया तो इसे हम मृत मान लिए। बावजूद इसके में हम सक्रिय रहे विधिवत इसमें बैंक खाता का संचालन होता रहा । किंतु इसकी निष्क्रियता तब और बढ़ गई जब पर्यावरण मंच के अध्यक्ष अलोपी प्रसाद शुक्ला से उनकी निष्क्रियता के कारण जब इस्तीफा चाहा गया ।तो उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, जिससे इस समिति को लेकर उदासीनता हो गई ।महंत मिश्रा इस समिति के सचिव हैं और मैं कोषाध्यक्ष ।पर्यावरण मंच का संयोजक मैं ही रहा ।और उदासीनता का परिणाम यह रहा कि हमने आपसी मतअंतर के कारण इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
ऐसे ही जैसे जिला पत्रकार संघ रजिस्टर्ड होकर ठंडे बस्ते में पड़ी रही। बीच में अपनी सुसुप्त अवस्था से जागृत होकर यह तब सामने आई जब युवा चेहरों को मान्यता दी गई और शिव नारायण त्रिपाठी अध्यक्ष बने। बाद में यह फिर से अपने मत-अंतर के कारण नहीं बल्कि वरिष्ठों की पकड़ से बाहर होने के कारण प्रायः मृत घोषित कर दी गई। इस आशा से कि जब जागृत होगी तो संभावनाएं जिंदा होंगी... हम भी इंतजार करते रहे कि कुछ तो लोकतंत्र के बुद्धिजीवी होंगे जो हमें क्रियात्मक तौर पर मार्गदर्शन देंगे। ताकि हम पर्यावरण मंच को जिंदा कर सकें। क्योंकि दोनों संस्थाओं का दर्द एक जैसा था।
लेकिन जब यह जिंदा होकर अचानक फड़फड़ाते हुए सामने आई तो हमें परेशानी होने लगी। क्योंकि हम यह नहीं समझ पाए कि यह जिंदा फड़फड़ा रही है या फिर मृत फड़फड़ा रही है ...क्योंकि जिस विधान की धारा 13 क का वैक्सीन लगाकर यह स्वस्थ होने की गारंटी दी है ,हम यानी पर्यावरण मंच उस वैक्सीन को लगा कर भी जिंदा नहीं हो पा रहे..... और दुखद तक पक्ष यह है कि इस बार के जिंदा पत्रकार संघ में सभी पत्रकारिता के अधिमान्य अधिष्ठाता कार्यकारिणी में यह पदाधिकारियों में सुशोभित किए गए हैं। और इन सब की मौन सहमति इसकी गैर कानूनी कदम को स्वयं को पत्रकारिता में मोक्ष पाने की तरह देखती है।
तो क्या मान लिया जाए कि तमाम कुछ चिन्हित अधिमान्य पत्रकारों ने उन्हें अपने समस्त ज्ञान और विवेक का जितना भी संभव है उसका उपयोग करके उन्होंने जिला पत्रकार संघ को जिंदा पत्रकार संघ की मान्यता दे दी है...?
यह अलग बात है की अपने वर्षों की गौरवशाली परंपरा का वहन करते हुए एक गैर अधिमान्य पत्रकार को पत्रकार सिद्ध करने का काम किया है ।यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि कम से कम सरकारी सूची में उन्हें गैर अधिमान पत्रकारों में भी सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए। और यह उससे भी अलग बात है कि नचिकेता जी एक अच्छे और बौद्धिक विवेकशील प्राणी है और जीवन के कई दशक दैनिक समय में पत्रकारिता किस संपादकीय संभाल रहे हैं। यह उस प्रकार का नहीं है जैसे कुछ वर्षों से कुछ अधिमान्य-पत्रकार घोषित सिर्फ पत्रकारिता नहीं करते बाकी सब कुछ करते हैं। इस पर फिर चर्चा करेंगे... क्योंकि हम भटक जाएंगे।
हमारी चिंता किसी मृतप्रायः समिति को याने हमारी पर्यावरण मंच को जिंदा करने की है। तो क्या धारा 13 क, जिंदा करने का वैक्सीन है जिससे किसी समिति को विधिवत किया जा सकता है...? अगर है तो यह पर्यावरण मंच के लिए वरदान है..... तो हमने छानबीन की और पाया कि यह वैक्सीन फर्जी वैक्सीन है। क्योंकि सोसायटी अधिनियम धारा 13 क हमें देखने को नहीं मिली पुस्तक में तो नहीं किंतु गूगल की डिक्शनरी में हमने सर्च करने पर पाया की धारा 13 में स्पष्ट उल्लेख कुछ इस प्रकार है
तो सवाल उठता है क्या पर्यावरण मंच को जिंदा किया जा सकता है इस धारा 13 का के वैक्सीन से ...?मुझे तो संभावना नहीं दिखती। तो फिर यह चमत्कार कैसे हो गया...? यह बड़ी बात है।
अनुभव में यह आया कि जिला पत्रकार संघ में परामर्श मंडल में जिस एक वरिष्ठ-अधिमान्य-पत्रकार को रखा गया है वे मोहनराम मंदिर ट्रस्ट में ट्रस्टी भी हैं। तो मोहनराम मंदिर ट्रस्ट भी पिछले 10 साल से एक जीवित-लाश
की बनकर रह गया है क्या यह उनकी ही परामर्श थी कि शहर का बदबूदार तालाब का मालिक भी है। यह एक्सीडेंट है कि दोनों तालाबों में एक तालाब एक्सीडेंटल तरीके से शहर की नगरपालिका परिषद की कीमती पेयजल से भरा जा रहा है।
जिसे हम राम-राज्य या भौंसा-राज्य का परिणाम मानते हैं।
लेकिन अच्छा है पारदर्शी-भ्रष्टाचारी तंत्र में पानी तो दिखा तालाब में ।किंतु क्या यह सही है...? जी नहीं, यह पूरी तरह से गलत है। क्योंकि अधिमान्य पत्रकार ट्रस्टी रहते हुए भी मोहनराम मंदिर ट्रस्ट की
पारदर्शी-भ्रष्टाचार के तहत शहडोल की आराजी 33 डिसमिल जमीन अपने ही गैरकानूनी कब्जेधारी ट्रस्टी की बेनामी प्रॉपर्टी के रूप में कब्जा करवा रखा है ।
तो क्या जिला पत्रकार संघ में इसी प्रकार की कोई सोच अपने परामर्श से वरिष्ठ-अधिमान्य-पत्रकार क्रियान्वित करवा रहे हैं...? यह बड़ा प्रश्न है ।
क्योंकि जिला पत्रकार संघ में एक संपत्ति भी है और यही संपत्ति चाहे जैसे बनी हो.. अधिमान्य पत्रकारों और गैर अधिमान्य पत्रकारों के इस धारा 13 क में गैरकानूनी कब्जे का प्रयास तो नहीं कर रहे हैं...? यह बड़ी बात है।
हम तो सोचे थे कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ पत्रकारिता में मार्गदर्शी परिणाम आएंगे और हम पर्यावरण मंच को जिंदा कर लेंगे किंतु फिलहाल अभी तक तो यही सोच पाए हैं अगले चैप्टर में खोजने का प्रयास करेंगे शायद पर्यावरण मंच जिंदा हो जाए...? क्योंकि तमाम अधिमान-अधिष्ठाता-पत्रकार भी अगर यह रास्ता नहीं दिखा पा रहे हैं तो चिंता की बात तो है ही......? ( .... जारी ख)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें