शनिवार, 29 जनवरी 2022

कोरोना-वारियर्स के दर्द का रिश्ता (त्रिलोकीनाथ)

मामला कोरोना संघर्ष का....pub.

क्यों चिन्हित नहीं हुए कोरोना-वारियर्स...?


क्या संभाग का उद्योगजगत कुछ नहीं किया...?



लकीर के फकीरों द्वारा कोरोना मृत-आत्माओं को के साथ भी भेदभाव आखिर क्यों...?

(त्रिलोकीनाथ)

बाबजूद इसके कि जैसे देश के और विदेश के उसी तरह शहडोल क्षेत्र के भी  कुछ पत्रकार कोरोनावायरस प्रभावित होकर मृत हो गए कोरोना योद्धा की लड़ाई लड़ते हुए इसके बावजूद ना तो उन्हें मृत्यु होने के बाद और ना ही हमें जीवित रहने के बाद कोरोना वारियर का कोई पुरस्कार मिला। अगर मिलता तो उन्हें भारतरत्न की तरह भी हो सकता था या पद्मश्री पद्मविभूषण की तरह भी फीलगुड करा सकता था और झूठा ही सही यह आत्म संतोष होता कि शासन और प्रशासन ने उसके कर्तव्यों का थोड़ा  सम्मान किया है ।बहरहाल इस गर्वानुभूति से हम मैहरूम रहे। गलती किसकी है यह कब जांच का विषय बनता यह परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है जैसे जब बेरोजगार छात्रों द्वारा ट्रेन जलाए जाने के बाद कोई कमेटी बनती तो, शहडोल में भी कोई हिंसा नहीं हुई ।कानून व्यवस्था शांति बस चुपचाप चलता रहा ।इसलिए कोरोना योद्धा ना होने का दर्द हम भी भुला गए। बावजूद इसके पत्रकारों ने आपस की बैठक करके खुद ही कोई संतोषजनक हल निकालने का प्रयास किया ।प्रयास जारी है...

क्या संभाग का उद्योगजगत कुछ नहीं किया...?

 किंतु इसी दलित हुआ पिछड़ी सोच का जख्म उस वक्त हरा हो गया जब रिलायंस और अल्ट्राट्रेक के  पदाधिकारी ने हमसे दर्द साझा किया की


जब तक संभाग के उद्योग कर्फ्यू की छूट में सूचीबद्ध होकर बाहर नहीं आए तब तक उनके कर्मचारी कार्यकर्ता किस प्रकार से कोरोनावायरस की लड़ाई में डंडे खाकर और कोरोनावायरस के भय आतंक का मुकाबला कर रहे थे। क्योंकि उन्हें राष्ट्रीय सहभागिता में अपनी जिम्मेदारियों का कर्तव्य परायण निर्वहन करना था। इसके बावजूद भी उन्हें कोरोनायोद्धा  का कोई खिताब नहीं मिला। बे यह बात कहते हुए उन कोरोना स्वास्थ्य योद्धाओं को नमन करना नहीं भूलते जिन्होंने अपनी भूमिकाएं कोरोनावायरस के युद्ध में लड़ी है, किंतु स्वयं की लड़ाई को वह कम करके आंके जाने पर उतना ही निराश और उत्साहहीन दिखे जितना कोई भी जिम्मेवार भारतीय नागरिक हो सकता है। जैसे पत्रकार भी।

 उनकी इन बातों से शहडोल के तमाम उद्योग जगत का प्रतिनिधित्व उभरकर सामने आ गया कि कोरोना महामारी के दौरान उत्पादन के क्षेत्र में निरंतरता बनाए रखने और राष्ट्रीय हितों की प्रतिपूर्ति के लिए उद्योग जगत को प्रशासन ने कोरोना योद्धा होने का प्रतीक चिन्ह क्यों नहीं दिया ...? 

कह सकते हैं यह एक कागजी पुरस्कार है। किंतु 26 जनवरी या 15 अगस्त को आजाद देश के प्रशासन को अपने उद्योगपतियों अथवा सम्मानित नागरिकों को कैसे चिन्हित करना चाहिए कि किसी ने क्या कुछ इस महामारी के लिए किया भी था...? अथवा नहीं किया था। तो मानकर चला जाए उद्योगजगत ने कोई भूमिका अदा नहीं की थी....? बावजूद सच्चाई आईने की तरह दिखती रही कि वे लगातार उत्पादन के संघर्ष में तमाम खतरों को सामना करते हुए सच्चे योद्धा की तरह लड़ाई लड़ी किंतु सवाल यह है कि उन्हें दिखता क्यों नहीं है....? या फिर उन्हें गरिमा का आभास नहीं है...?

"लकीर के फकीरों" द्वारा कोरोना मृत-आत्माओं  के साथ भी भेदभाव आखिर क्यों...?

 जैसे कई चिन्हित नहीं किए गए नागरिकों के साथ बेवफाई की गई है। अब तो मरने वाले कोरोना


शहीदों को इस बात के लिए चिन्हित किया जा रहा है कि जो आईसीएमआर में प्रमाणित तौर पर मरा होगा उसे ही कोरोना मृत माना जाएगा ।हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट अपनी मंशा जाहिर कर दी है और उसे परिभाषित भी किया है मध्यप्रदेश शासन ने अपनी गाइडलाइन में स्पष्ट तौर पर कहा भी है की आईसीएमआर के अतिरिक्त अन्य दो प्रमाणित विशेषज्ञ चिकित्सक भी अगर मृतक को कोरोनावायरस प्रभावित मानते हैं तो भी उन्हें राहत कोरोना अनुग्रह राशि दिया जाना चाहिए ।

किंतु इन सबको अनदेखा कर कमेटी में बैठे "लकीर के फकीर" ऑफ द रिकॉर्ड बनी अपना निर्णय ले रही है। और "लकीर के फकीर" की तरह सिर्फ उन मृतकों को चिन्हित कर रही है जो आईसीएमआर से कोरोना पॉजिटिव प्रमाणित होकर मृत हुए हैं।

 फिर यह प्रश्न उतना ही गंभीर खड़ा होता है कि शहडोल में जिन चिकित्सालय को कोरोना चिकित्सा के लिए अधिकृत किया गया और जो पैरामीटर बनाकर हॉस्पिटल  ने कोरोना से संबंधित ट्रीटमेंट किया और उसके प्रभाव से जो मर गए उन्हें कोरोनावायरस श्रेणी में दर्जा नहीं दिया जा रहा है, तो कमेटी नुमा"लकीर के फकीरों" को कौन बताएगा कि अपने विवेक का भी तो इस्तेमाल करना चाहिए अन्यथा उन सभी चिकित्सालयों को जिन्हें कोरोना इलाज के लिए अधिकृत किया गया था और उनसे प्रभावित लोग मृत्यु हुए हैं उन सभी प्राइवेट हॉस्पिटल के खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर उन्हें जेल में डाला जाना चाहिए कि क्या उन्होंने जानबूझकर  आईसीएमआर की टेस्ट कराए बिना गंभीर इलाज किया जिससे लोग मृत हुए....? किंतु कमेटी में  बैठे "लकीर के फकीरो" अपने मूर्चे-लगे दिमाग को साफ करने की जरूरत नहीं दिखाई देती....?

यही कारण है की शहडोल के उद्योगपतियों ने जो कोरोनावायरस की महामारी की लड़ाई में योद्धा की भूमिका में अपनी भूमिकाएं तय की हैं उनका सम्मान चिन्हित नहीं किया जा रहा है यह दर्द भी है और दुर्भाग्य भी...?भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी शहडोल  क्षेत्र का।

 किंतु क्या कोई सुन भी रहा है अथवा देख भी रहा है...? क्योंकि ज्यादातर दिख रहा है कि लोग कोरोनावायरस का सर्टिफिकेट खुद बनाते हैं खुद सिग्नेचर करते हैं और खुद गौरवान्वित होते हैं ऐसा अनुभव में भी आया है इसलिए ना तो उद्योगपतियों को दुखी होना चाहिए और ना कोरोनावायरस से प्रभावित मृत आत्माओं को या उनके वारिसों को.. क्योंकि यही पारदर्शी-भ्रष्टाचार का आधुनिक चेहरा है।



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