गुरुवार, 9 सितंबर 2021

..प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्-5.(त्रिलोकीनाथ)

प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्-5    परिवर्तन की बयार

ना मैं किसान हूं, 

ना अफगान हूं ....

मैं तो बस

सीधा साधा आदिवासी इंसान हूं ...

(त्रिलोकीनाथ)

भी चाणक्य के मगध साम्राज्य का हिस्सा रहा, तक्षशिला का अबका सीमांत गांधी का अफगानिस्तान को लेकर विश्व के नेताओं के परामर्श से कतर के दोहा में जो भी निष्कर्ष निकले उसका परिणाम, हैवानी सभ्यता के रूप में विकसित हुआ और कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन आतंकवादियों का समूह तालिबान को, स्वतंत्र अफगानिस्तान को गुलामी की रास्ते में भेजने का रास्ता बता दिया गया। अफगानिस्तान में तालिबानियों की उनकी अपनी "सभ्य और धार्मिक सरकार" गठित हो गई। हमें कोई फर्क नहीं पड़ा...। क्योंकि हम भी अपनी मौन सहमति या गुप्त सहमति दिए थे।

तो भारत मे 9 माह से राजधानी दिल्ली के अंदर


"अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर" के रूप में स्थापित की गई सीमा रेखा पर भारतीय जनता पार्टी और उनके नेताओं की उनकी भाषा में, वरगलाये गए भोले-भाले किसान, खालिस्तानी, माओवादी, मवाली और पता नहीं उनके सभ्य-समाज के निर्मित कई प्रकार की संज्ञा शब्दों से प्रताड़ित होकर तथाकथित तानाशाही वाले अध्यादेश से निर्मित

काले कानून के खिलाफ भारत के किसान धरना अनशन में लाखों की संख्या में बैठे हैं। इस दौर में वोट के धंधे की राजनीति में सत्ताधारी भाजपा को पश्चिम बंगाल की सत्ता को भी खोना पड़ा। जो उसकी नहीं थी। अब कुछ और राज्यों में चुनाव होने हैं भाजपा का अत्याधुनिक ससस्त्र-डिजिटल यंत्रों से निर्मित हेड क्वार्टर इन सब पर नजर बनाए हैं।

 दिग्भ्रमित वातावरण मे लगातार परिवर्तित  होती व्यवस्था के बीच में अब यह तय नहीं हो पा रहा है कि हम भारत के ही निवासी संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित शहडोल क्षेत्र के निवासी  चाहे अफगानिस्तान का मसला हो या फिर किसान का मसला हो, दोनों को ही सिर्फ दर्शक दीर्घा की तरह फिल्म के रूप में देख रहे हैं। जैसे इन दोनों ही चीजों से हमारा कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि यह निर्मित की हुई एक नकली व्यवस्था है।हम ना तो अनुभव करने वाले प्रताड़ित किसान है ना ही प्रताड़ित हो रहे अफगान है। तो हमें सिर्फ टीवी शो की तरह है वहां पर हो रही मारकाट की घटनाओं पर सिर्फ मनोरंजन करना चाहते हैं। एक पूर्व देशी, एक वर्तमान देसी व्यवस्था में हमें सिर्फ चुप रहने मूक-बधिर रहने के सिस्टम में संतुष्ट रहने का "साइलेंट-आर्डर" है। 

हां, आपके क्षेत्र में कोई परेशानी है, कोई लूटपाट है ,कोई उद्योगपति रोजगार पर कब्जा कर रखा है, संसाधन को लूट रहा है, अधिकारी जंगलों का अवैध सौदा करते हो, आईजी से कोई कबाड़ी असभ्यता से ब्लैकमेल कर रहा है या फिर जंगल हो खनिज संसाधन की लूट हो या नदियां तालाबों अशोका मुद्रीकरण हो अथवा सड़कों का उनका मुद्रीकरण हो रहा हो । यानी नष्ट कर रहा है। लाइसेंस होल्डर चाहे वे शराब वाले हो अथवा प्राइवेट फाइनेंस कंपनियां हो उन्हें लूट के छूट दी गई हो। अथवा नए-नए आदिवासी विकास के नाम पर भवनों का निर्माण हो रहा हो और उसमें ना तो स्टूडेंट हो, ना ही शिक्षक हों, तो आप बोल सकते हैं या फिर सोच सकते हैं। लेकिन ऐसा इमानदारी से यहां नहीं होता है...।

 क्योंकि अपने विदाई समारोह में कलेक्टर डॉक्टर सत्येंद्र सिंह ने सबको बताये है कि "आप की संपत्तियां..., आपकी धरोहर हैं ।" और उनके बताने से या फिर से अनुभव में आ गया कि हां यह सब सुरक्षित है।

 तो हमें वास्तविक अथवा काल्पनिक विदेश में घट रही चाहे किसान की बात हो या अफगान की बात हो क्यों चिंता करनी चाहिए....? बस टीवी में प्रायोजित तरीके से दिखाए जा रहे टीवी शो को देखते रहना चाहिए।

 कुछ इसी अंदाज में हम इस सत्य में आदिवासी क्षेत्र के विनाश को जी रहे हैं। क्योंकि हम दलित, आदिवासी शोषित और वंचित समाज के गौरवशाली नागरिक  हैं और हमें इस पर उसी तरह गर्व करना चाहिए जैसे ही गर्व से कहो हम ............हैं,भारतीय भी हैं। हमारा 56 इंच का सीना उस वक्त और बड़ा हो जाता है जब हम लोकतंत्र के प्रतिनिधियों की गुलामी में गर्व करने लगते हैं।

  लेकिन कहते हैं शोषण के बाद क्रांति एक प्राकृतिक नियम है तो हमारा कोलवा भाई


विधायक शरद कोल के बोल फूट पड़ते हैं,"अवैध रेत की खदान कारोबार में उनकी भी सहमति है" और उन्हें जाना पड़ता है। उनके मनचाहे स्थान में ब्रेक लग जाता है। क्योंकि सत्ता का सौदा अभी बाकी है। जब लुट-चुके साम्राज्य की सत्ता से बंटवारा हो जाएगा तब सिस्टम लाइन पर आएगा। यह कोल के बोल की ताकत थी।

 जो कभी गोंण समुदाय के विधायक अथवा सत्ता का रस जान चुके नेताओं के बोल उठते नहीं देखे गए। क्योंकि वह कोल है इसलिए बोलता है। किंतु बहुसंख्यक नहीं है, गोंण की तरह...।

 तो जो पेंडिंग काम है वह डॉक्टर कलेक्टर की विदाई के बाद वैद्य कलेक्टर के लिए चुनौती भी है किंतु सवाल यह है एलोपैथी का डॉक्टर तो कमर्शियल होता है क्या वैद्द की दवाई से पेंडिंग पड़ी बीमारियां कैंसर की तरह जो परिवर्तित हो रही है, इस विशेष आदिवासी क्षेत्र में वैद्द उन्हें ठीक कर पाएंगे....?  माना जाता है की पुरातन पद्धति से बड़ी बड़ी बीमारियां ठीक हो जाती है, तो आशा भी करनी चाहिए और तब और जब कोल भी बोलने लगा हो..। 

 भ्रष्टाचार की सहमति से जन्मी बिमारी, सिस्टम में कैंसर बन चुका चाहे खनिज का मुद्दा हो, चाहे जंगल का मुद्दा हो अथवा सरकारी जमीन में माफियाओं की तरह सत्ताधारियों  से तालमेल कर सुरक्षित करने वाला भ्रष्टाचार का चंद्रलोक


ही क्यों ना हो, इसी तरह कई सालों राम राज्य की सरकार में प्रताड़ित होने वाला मोहनराम मंदिर क्यों ना हो, बावजूद इसके कि

हाईकोर्ट उसे संरक्षण का आदेश दे रखा हो वह लुट रहा हो ऐसे कैंसर बन रही बीमारियों को हमारी नई कलेक्टर श्रीमती वंदना वैद्य के इलाज से बीमारियां ठीक हो जाएग हमें क्यों आशा करनी चाहिए...?

 इसलिए कि प्रदेश भर में जिन पर ईमानदार अफसर चुनने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर रही होगी वह अवश्य इन कैंसर बन रही बीमारियों को ठीक कर पाएंगी... उनकी तकनीकी खामियों को समझ सकेंगी। इसलिए आशा करनी चाहिए क्योंकि आशा पर आकाश टिका है,

 इसलिए भी इस सच्चाई के बाद कि न तो हम प्रताड़ित किसान हैं और ना ही प्रताड़ित अफगान है..., हम तो टीवी में चल रहे इसे सिर्फ देखने वाले और मनोरंजन करने वाले दर्शक हैं..., मूक-बधिर दर्शक हैं। फिर भी अगर हमारे कार्यपालिका के


संरक्षक सागर के रूप में चुस्त-दरुस्त कोई अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हमें मिल गया है अथवा कलेक्टर बंदना वैद्द जैसे लोक सेवा आयोग कि अनुभव शील अधिकारी


हमें मिल गईं तो क्यों नहीं आशा करनी चाहिए कि कैंसर की तरह फैल रहे समाज की बीमारियों को हम ठीक कर पाएंगे।

 तब जबकि कोल बोलने लगता हो बावजूद इसके अन्य विधायक मूक बधिर रहते हो, यही तो लोकतंत्र की खूबी है तो मित्रों.... 

प्रत्यक्षण किम् प्रमाणम,

नाक दूर ना हंसिया

सब आपके सामने हैं आशा करनी चाहिए कुछ बेहतर होगा पहले से ... 

क्योंकि एलोपैथी के डॉक्टर विदा हो गए हैं।


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