उच्चतम न्यायालय कहा
इमरजेंसी के हालात....
3 से 333000 हुआ एक दिन कोरोना संक्रमित व्यक्तियों रिकॉर्ड इजाफा।
आदिवासी क्षेत्र, न्याय की दरकार में दफन है मेडिकल ट्रस्ट...?
(त्रिलोकीनाथ)
पिछले साल तीन संक्रमित मरीजों की संख्या लेकर पहली सूचना के बाद खबर आई कि आज भारत में कोरोना संक्रमित व्यक्तियों की 1 दिन में करीब 3 लाख 33 हजार रिकॉर्ड इजाफा हुआ है ।इन हालातों में तैयारियां कितनी मुकम्मल है इस पर सब चिंतित हैं। चिंता शहडोल जैसे आदिवासी जिलों की भी है। क्यों की जब उच्च न्यायालय अपने संवेदना को प्रकट करने के लिए आदेश पारित करता है कि कार के अंदर बैठा हुआ व्यक्ति को भी मास्क लगाना होगा तो अब उच्चतम न्यायालय यह कहने में भी संकोच नहीं कर रहा है कि हालात इमरजेंसी के हैं, तो महसूस होता है की न्यायपालिका लगातार चिंतन मनन और मंथन कर रही है वह चुपचाप नहीं बैठी।
किंतु यदि उच्चस्तरीय न्यायालय को खुद देख समझकर जिला स्तर के न्यायालय कोविड-19 से संबंधित विषयसामग्री चिकित्सा सर्वोच्च विषय को अपने फाइलों के कूड़ेदान से निकालकर झटकार कर आम जनमानस के लिए समर्पित नहीं करती है तब प्रश्न तो खड़े ही होते हैं...?
शहडोल क्षेत्र के गरीब मरीजों को महंगे ऑपरेशन एवं डायलिसिस जैसी महंगी सुविधाएं अत्यंत न्यूनतम दरों पर अथवा निशुल्क चिकित्सा उपलब्ध कराने वाला संभाग का एकमात्र चैरिटेबल अस्पताल रमाबाई मेमोरियल लाइफलाइन क्रिश्चियन अस्पताल अपने विवादों पर विजय प्राप्त करने के उपरांत खोले जाने का आदेश होने के बाद भी आज महज एक न्याय का मोहताज है जबकि मेरे संज्ञान में अस्पताल सारी आवश्यक सुविधाओं से युक्त है जैसे कि सभी बिस्तर पर ऑक्सीजन के सेंट्रललाइन व्यवस्था, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर एवं वेंटिलेटर की सौगात से युक्त है। लेकिन न्याय की आशा में लंबित रहने के कारण लाखों करोड़ों की मशीनें व्यर्थ ही सरकारी कूड़ेदान का हिस्सा वन रही हैं और इस अंतरराष्ट्रीय महामारी आपदा के दौर में जिले के कुछ मरीजों को जो शायद इस अस्पताल से लाभ प्राप्त कर सकते थे वह इस लाभ को प्राप्त करने से वंचित हो रहे हैं
वह भी भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में आदिवासी विशेष क्षेत्र शहडोल जिले के मुख्यालय में कोई बड़ा चिकित्सा संस्थान इस कोविड-19 महामारी के दौर में इस बात के लिए बंद है कि संबंधित न्यायाधीश के पास वक्त नहीं है... अथवा वे न्याय की एक हस्ताक्षर करने के लिए फुर्सत नहीं पा रहे हैं... जिस कारण हजारों मरीजों को चिकित्सा सुविधा से मोहताज होना पड़े ।ऐसी न्यायपालिका की व्यवस्था क्या उच्चस्तरीय न्यायिक प्रशासनिक मंसा की की अवमानना करते नहीं दिखाई देते... जिनकी मंशा न्याय के साथ संवेदना का त्वरित निराकरण हो सके..? जी हां जिला न्यायालय शहडोल में शहडोल नगर के जिला चिकित्सालय के बाद अथवा उसके समकक्ष सबसे बड़े चिकित्सा सेवा के ट्रस्ट को बिचौलियों दलालों और अफसरशाही की भेंट में चढ़ता देखा जा रहा है जबकि उक्त चिकित्सा संस्था में संपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर इस बात का उपलब्ध है... । कम से कम कोविड-19 बंधित मरीजों के लिए वह सहज सेवा कर सकता है।
बावजूद इसके पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर चिकित्सा सेवा का लोकतंत्र की भूल भुलैया में कूड़ेदान का समान बनकर रह गया है। इतना तो तय है की कभी जिला चिकित्सालय के समकक्ष माने जाने वाली चिकित्सा सेवा ट्रस्ट की सेवाएं इसलिए अवरुद्ध हो गए हैं क्योंकि प्रशासन की संवेदना मरीजों के साथ सिर्फ फाइलों के इर्द-गिर्द होती दिखाई देने लगी अब जबकि संभाग आयुक्त राजीव शर्मा ने संवेदना अभियान की शुरुआत कर ही दी है तो उनके संवेदना अभियान मैं अपनी संवेदना का प्रेषण करते हुए यथा उचित माध्यम से जिला न्यायालय को कम से कम उन फाइलों को धूल-धक्कड़ से झटकार कर पेशी-गिरी से निकालकर तत्काल निर्णय देने का काम करना चाहिए। जिनका संबंध किसी भी चिकित्सा संस्थान और यदि वह संभाग स्तर का कोई बड़ा संस्थान है तो उसे सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए विवादित प्रकरण को तत्काल निराकरण करना चाहिए। ताकि संस्थान 1 हफ्ते के अंदर तैयार होकर हजारों मरीजों के लिए वरदान साबित हो सके।
और जिससे यह आरोप स्थापित ना हो सके कि भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित आदिवासी विशेष क्षेत्र में न्यायपालिका की अक्षमता के कारण कोविड-19 से बचाए जा सकने वाले मरीज इसलिए पीड़ादायक परिस्थितियों और मृत्यु को ढेर चल गए क्योंकि शहडोल जिला न्यायपालिका ने अपनी भूमिका प्रस्तुत नहीं की। क्योंकि सब जानते हैं की कि बड़ी संस्थान को न्यायपालिका में किसी दलित व्यक्ति की तरह है पेसी दर पेसी भटक कर तिल-तिल मरना पड़ रहा है।
इसलिए अपने अनुभव के संज्ञान सेचैरिटेबल अस्पताल रमाबाई मेमोरियल लाइफलाइन क्रिश्चियन अस्पताल अथवा न्यायालय की अपनी खोजबीन में चिकित्सा सेवा से जुड़े किसी भी बड़ी संस्था के न्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए ताकि आपातकाल इस महामारी में न्याय की मंसा प्रभावित ना हो सके। इस बात का जवाब अवश्य न्यायपालिका के संबंधित पक्षों को सतर्कता व जागरूकता के साथ सुनिश्चित ही करना चाहिए कि यदि पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर चिकित्सा के तत्पर है तो फिर न्यायपालिका के एकमात्र हस्ताक्षर से वह क्यों बाधक बना हुआ है....? क्योंकि न्याय जो भी होगा उसका सीधा लाभ मरीजों को मिलने वाला है और कोविड-19 महामारी भी अगर इतनी सी भी जागरूकता प्रकरणों के त्वरित निराकरण के लिए जन्म नहीं लेती है तब यह न्याय संवेदनहीन न्याय का प्रतीक होकर रह जाएगा। किंतु उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय की मंशा फिलहाल तो ऐसी दिखाई नहीं पड़ती फिर चूक कहां है...
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