मंगलवार, 2 मार्च 2021

तानासाही भी एक योग्यता है...?. (त्रिलोकीनाथ)

अद्यतन परिस्थितियां बताती हैं 

तानासाही भी एक योग्यता है....?


(त्रिलोकीनाथ)

1975 में 26 जून की सुबह रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश गूंजा, जिसे पूरे देश में सुना गया. संदेश में इंदिरा ने कहा, 'भाइयों, बहनों... राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.'

2014 के बाद रेडियो में और टीवी में कई ऐसे अवसर आए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक आकर इस प्रकार नोटबंदी आदि का जिक्र किया  कोरोना से लॉकडाउन भी उसमें एक है और घंटा बजाकर आधी रात को जीएसटी कानून की घोषणा भी एक प्रभावशाली इवेंट रहा। हाल में व्यापारियों का भारत बंद इसका प्रमाण पत्र था कि वह कितने डरे और भयभीत हैं । 
यह अलग बात है कि इन सभी घोषणाओं के दुष्प्रभाव से भारतीय नागरिक के नागरिक स्वतंत्रता या तो बंधक हो गई अथवा भय के वातावरण में जीने का मीठा जहर पीने लगी। कोरोना के कार्यकाल में कई कानूनों के संशोधन जो चुपचाप हुए उसमें कृषि सुधार बिल के दुष्प्रभाव ने दिल्ली में एक नई घोषित "बॉर्डर लाइन" बना दी।सैकड़ों किसान शहीद हो गए, तिरंगे का षड्यंत्र पूर्ण तरीके से अपमान भी हुआ। सब कुछ भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक होता रहा ।
तो यह सब राजकाज था, ऐसा मान ले। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी तानाशाही के लिए प्रायश्चित किया और एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रूप में पुनः स्थापित हुई किंतु अपनी गलतियों की सजा के लिए प्रधानमंत्री हाउस में गोली मार दी गई।
 क्या नरेंद्र मोदी अपने निर्णयों के लिए कभी प्रायश्चित करेंगे.., अगर उन्होंने गलतियां की है तो... यह भविष्य के गर्भ में है।
 आदिवासी क्षेत्र में पल रहा है तानाशाही का भूत
किंतु हम शहडोल में आते हैं यहां रेडियो और टीवी के जरिए तो नहीं किंतु कोई बीमार वन मंडल अधिकारी नेहा श्रीवास्तव अगर महिला है तो उसकी मन स्थिति को समझा जा सकता है। क्योंकि युगो से चहारदीवारी के अंदर अपनी सोच को वे क्रियान्वित करती आई है समाज के प्रतिनिधि भी है तो दूसरी ओर कोई महिला रेंजर पुष्पा सिंह का जंगलराज, डीएफओ नेहा श्रीवास्तव से कई गुना ऊंचा दिखा। उन्होंने तो खुलेआम रेत तस्कर से जंगल का सौदा ही कर दिया यह अलग बात है की बात मीडिया तक आ गई और वायरल हो गई। आखिर सब कुछ चुपचाप जंगल समाज में अभी भी चल ही रहा है ।
तो अभी तक सिस्टम ने उन्हें क्या दंड दिया है...? स्पष्ट नहीं हुआ।

तो नेहा श्रीवास्तव अगर अपने चहारदीवारी वन मंडल परिसर मैं यह नोटिस चस्पा करती हैं कि उनका कार्यालय मीडिया प्रतिबंधित क्षेत्र है तो लोकतंत्र के ऊपर एहसान करती हैं। क्योंकि उन्होंने यह बोर्ड लगाने का आदेश नहीं दिया की  संपूर्ण वन मंडल मीडिया प्रतिबंधित क्षेत्र है..., ऐसा भी समझना चाहिए।
 क्योंकि सिर्फ रट्टू तोता बन कर यदि डिग्री हासिल कर ली जाए और पद में बैठ जाएं तो आप योग्य पदधारी नहीं हो सकते । इसीलिए लगातार आईएएस समाज जमीनी नागरिकों से, किसानों से और अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति से यह सीखने का प्रयास करता है कि आखिर समस्या क्या हम समझ पाए हैं...? और कभी कभी उन्हें समझ कर हल भी कर देता है। तो वह पढ़ रहा होता और अपनी योग्यता को प्रमाणित करता रहता है और यह उसकी चुनौती भी है।
 आईएएस पंकज अग्रवाल की यह बात खुद पर गुस्साते आते हुए अच्छी लगी थी, कि साडे ₹5 किलो धान का समर्थन मूल्य पर हम खरीद नहीं पा रहे हैं ....,और साडे ₹3 किलो में व्यापारी फट्टा लगाकर बाजार में खरीद रहा है।
 तो योग्यता को स्वयं बार-बार सीखना होता है, लोकतंत्र में। महिला अधिकारियों ने जो किया, सो किया.. वह उनकी निजी बीमारी अथवा कमजोरी भी हो सकती है...

लेकिन अगर यही काम जिला शिक्षा अधिकारी करता है तो यह कह कर नहीं डाला जा सकता है कि वह आरक्षित वर्ग के अधिकारी हैं..., उन्होंने समझने में भूल की है। बल्कि यह समझना होगा की है,यह सब सूची समझी "साइलेंट-ऑर्डर" मानसिकता का प्रदूषण है...।

 लोकतंत्र में बगैर बुनियादी ढांचा (नान-इंफ्रास्ट्रक्चर) अद्यतन पत्रकारिता को उनकी कमियों के बाद भी कैसे खारिज किया जा सकता है..?
    मुख्य मुद्दे पर आते हैं राष्ट्रपति कलाम जी ने कहीं यह बात कही थी कि अगर लोकपाल आ भी गया तो क्या होगा..., कुछ और शिकायतों से कमरे भर जाएंगे...। यानी जब तक नैतिकता जीवित नहीं होगी पूरे सिस्टम में लोकतंत्र को लगातार समझने का कमिटमेंट और उसे बनाए रखने का संघर्ष आदमी के अंदर चाहे वह आई ए एस, आई एफ एस या आईईएस हो अथवा न्यायपालिका अथवा विधायिका के पदाधिकारी हों,वे सब लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाते रहेंगे, इसमें कोई शक नहीं है। उसके स्वरूप छोटे या बड़े हो सकते हैं किंतु इन सबकी मनसा सिर्फ तानाशाही से शासन चलाने की और "मैं चाहे ये करुं, मैं चाहे वो करुं, मेरी मर्जी..... " के गाने के अंदाज पर चलती है।

 इन सबसे बचना चाहिए, हो सके तो लगातार सरकारी  पैसे से होने वाली बैठकों में इस पर संवाद भी करना चाहिए कि आदिवासी क्षेत्रों में इस प्रकार की मूर्खता का प्रदर्शन कितना सही है...? क्योंकि महात्मा गांधी ने कहा था "लोकतंत्र अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के लिए निहित है..."
आप तो चौथे स्तंभ को भी नहीं पचा पा रहे हैं क्योंकि आप नियमित पारदर्शी भ्रष्टाचार की बीमारी से लाइलाज होते जा रहे हैं और आपको शर्म आ सकती है की मीडिया कहीं आपकी उस बीमारी को देख ना ले...? इसलिए क्योंकि वह सिर्फ यही देखता-फिरता है क्योंकि आप अपना पॉजिटिव एप्रोच दिखाने में असफल रहे हैं....।, क्योंकि आपके परिसर में सरकारी काम के नाम पर इन्हीं षड्यंत्रों   का ताना-बाना पारदर्शी रूप से चलता है। और इसी का यह परिणाम भी है जल जंगल जमीन माफियाओं के हवाले हो रही है। तो अगर शर्म है तो सोचना चाहिए... और अपनी बेशर्मी के प्रमाण पत्रों को अपने परिसरों से हटा देना चाहिए क्योंकि आज तक तो संविधान में मूर्खता का रिजर्वेशन फिलहाल तो पारित नहीं हुआ है... और यदि ऐसा रिजर्वेशन है तो मीडिया को संविधान के उन पन्नों को भी बताना चाहिए जिससे यह तय हो सके कि सरकारी कर्मचारियों से मिलने का और कौन सा रास्ता है, है भी या नहीं है...? मीडिया को भी और नंगी लुटी पिटी जनता को भी। जिन्हें आप के आका जनता जनार्दन कहते हैं।



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