गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

अपनी-अपनी किसानी, किसान- सरकार चौथी वार्ता फेल (त्रिलोकीनाथ)

अपनी-अपनी किसानी-3



किसानों पर ठंड में पड़ती रही

पानी की बौछारें.... 

वह मनाते रहे देव-दीपावली।

(त्रिलोकीनाथ)

"भारत की आत्मा गांव में निवास करती है" यह बात महात्मा गांधी ने सिद्धांतह स्वीकार कर ली थी और शायद इसीलिए महात्मा गांधी भारत की स्वतंत्रता को तब तक अधूरा मानते थे जब तक भारत में नागरिकों की "अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति" को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं मिल जाता ।,उसे राहत नहीं मिल जाती।

 किंतु गांधीवाद और गोडसेवाद या गैर गांधीवाद के पक्षधरो में शायद यही फर्क है जो वर्तमान सत्ता और किसान आंदोलनों के बीच में किसान इतना नाराज है कि वह भारत शासन को "अपना शासन" मानने से पसंद और नापसंद की स्थिति पर आ गया है।

 वह अपने प्रधानमंत्री के शासन की बनाए खाने को भी नहीं खाना चाहता है। यह देश का ठेठ नागरिक का अपना तरीका है अपनी बात रखने का।


 मेरी भी हार्दिक इच्छा होती है कि नरेंद्र मोदी जिस प्रकार से लोकप्रिय दिखाए जाते हैं, मैं भी नारों की भीड़ में मोदी-मोदी की भाषा क्यों नहीं बोल पाता..। मेरे एक मित्र ने कहा, क्या आप मोदी विरोधी हो...? यह सुनकर मैं आत्ममंथन में पड़ गया कि क्या मेरी प्रस्तुति मे मैं अपने ही प्रधानमंत्री का विरोधी दिखता हूं..? किंतु चाह कर भी मैं अंध-भक्तों की तरह मोदी समर्थक क्यों नहीं हो पाता ।शायद इसलिए कि कोरोना के अंध-दर्दनाक युग में कोई कैसे पिछले दरवाजे से अपने बहुमत के दम पर 100 करोड़ किसानों के लिए, जबरदस्ती बिना उनकी रजामंदी के 5 जून को कृषि बिल सकता है। 

और यदि उस बिल से किसान असहमत हो तो तमाम प्रकार से महीनों, नजरअंदाज अथवा अछूतों जैसा व्यवहार कर नए-नए घटनाक्रमों का प्रयोग  प्रोपेगेंडा गुलाम मीडिया के थ्रू खड़ा करवाता रहता है ताकि किसान आंदोलन थक हार कर खत्म हो जाए। किंतु भारत की आजादी इन्हीं किसानों के आशीर्वाद से बड़े बुजुर्गों की सहमति से लाई गई थी यह कैसे भूला जा सकता है।

 लेकिन यह बात भारत को बाजार के रूप में देखने वाला सिस्टम नहीं समझ पाता ।वह तो एक ब्रांड के जरिए जैसे हिंदुत्व एक ब्रांड है, जैसे किंगफिशर एक ब्रांड है, डालडा, लाइवबॉय भी एक ब्रांड की तरह अपना बाजार चलातेहै। लोकतंत्र के बोट बाजार में मोदी को ब्रांडिंग करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में प्रस्तुत किया गया और इसीलिए नरेंद्र मोदी राजनीति का जैविक-ब्रांड बनकर संवेदनहीनता के साथ "अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति" की तो बात ही छोड़िए वह 100 करोड़ के करीब किसान नागरिकों की भावनाओं को भी तिलांजलि देने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।


शायद यही कारण था कि महीनों के किसान आंदोलन के बाद जब आंदोलनकारियों ने दिल्ली की तरफ रुख किया और कड़क ठंड में सड़कों में पड़े रहे उन पर पानी की बौछार होती रही,
 उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा। इस कोरोना के महाकाल में भी तब लोकतंत्र की राजनीति का जैविक ब्रांड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में लाखों दीयों को जलाकर बनारस में देव दीपावली मना रहे थे। जैसे इतिहास में कभी किसी दिन देव दीपावली हुई ही ना हो ....? और इसी दिन वे अपने मन की बात में पिछले दरवाजे से आए कृषि बिल के अध्यादेश के पक्ष में मजबूती से खड़े होकर कॉर्पोरेट जगत की गुलामी का अभिवचन भी दे रहे थे।
 हो सकता है कृषि बिल का अपना कोई संभावित जीवन हो। जिसमें किसानों का कोई हित छुपा हो किंतु 100 करोड़ किसान  की सहमति के बिना उन पर यह बिल क्यों थोपा जा सकता है ....? बार-बार किसानों को भ्रम में डाल दिया गया है यह सिद्ध करते हुए किसानों को आतंकवादी, असामाजिक भी कहा गया ताकि विरोध के स्वर को राष्ट्रद्रोह  की संज्ञा दी जा सके।




 सत्ता का मद अगर बाजारवाद से पैदा होता है  और व्यक्ति  अगर जैविक ब्रांड  के रूप में  काम कर रहा होता है तो उसकी अपनी संवेदना लगभग मर ही जाती है शायद इसी काा नतीजा दिल्ली सल्तनत को घेर कर बैठी सिर्फ एक दो प्रांत की किसानों की फौज गांधी के अहिंसा वादी सत्याग्रह आंदोलन के जरिए अंग्रेजी मानसिकता को आइना दिखा रही है ।


बहरहाल 3 दिसंबर को गांधीवाद और गैर-गांधीवाद  की वार्ता बेनतीजा रही।

 कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में पिछले आठ दिनों से किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं। इस मुद्दे पर सरकार ने किसानों को बातचीत के लिए बुलाया था। हालांकि, साढ़े सात घंटे तक चली बैठक के बावजूद भी कोई भी हल नहीं निकल सका है। सरकार ने एक बार फिर से अगले दौर की वार्ता के लिए किसानों को 5 दिसंबर को बातचीत के लिए बुलाया है।

किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं और इसको लकेर वे दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं। वे राष्ट्रीय राजधानी में आकर प्रदर्शन की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें फिलहाल इसकी इजाजत नहीं दी गई है। दिल्ली आने वाले अधिकांश रास्तों को सील कर दिया गया है। 



सरकारी नीति के काले कानून से नफरत के कारण नमक खाना मंजूर नहीं खुद का लंच लाया और खाया किसानों ने। 

यह घटना बताती है कि महात्मा गांधी जब अंग्रेजों से मिलने गए थे तब अपनी शर्त पर मिले थे आजाद भारत में चुनी हुई लोकतंत्र की अंग्रेजी संस्करण का यह नया दृष्टांत था।

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ किसान संगठनों से जुड़े नेताओं के बीच वार्ता के दौरान लंच के लिए एक ब्रेक लिया गया. केन्द्र सरकार के तरफ से विज्ञान भवन में किसान संगठनों से जुड़े नेताओं के लिए भी लंच का इंतजाम किया गया था. पर किसानों ने सरकार द्वारा किए गए खाने को ठुकराते हुए अपने साथ लाए हुए खाने को बांटकर खाया. वहीं, एक किसान नेता ने कहा कि हम सरकार द्वारा दिए जाने वाले भोजन या चाय को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. हम अपना भोजन खुद लाए हैं. "


सरकार ने एक बार फिर से अगले दौर की वार्ता के लिए किसानों को 5 दिसंबर को बातचीत के लिए बुलाया है। अच्छा है यह शनिवार को होगा  अगर रविवार को होता तो किसानों के मामले में सिद्ध हो चुके जैविक ब्रांड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर से अपनी "मन की बात " करते हैं और यह बात जले में नमक की तरह आंदोलन को चुभ जाती।

 ईश्वर करें शनिवार को वार्ता सफल हो अन्यथा "मन की बात" के कारण देश किसी भयानक सपने के आगोश में समा सकता है और यह बात संवेदनहीन समाज को समझना चाहिए कि भारत, आजाद भारत है और सरकार जनता की नौकर है । जनता उसके गुलाम नहीं कम से कम 100 करोड़ किसान गुलाम बिल्कुल नहीं।

आदिवासी क्षेत्रों में गुलामी परंपरा बनी हुई है

मैं तो शुरु से मानता रहा कि आदिवासी क्षेत्र शहडोल पूरे भारत से अलग अलग है यहां गुलामी अभी भी उतनी ही पुरानी है जितनी की आजादी के पहले थी । बाद में चुनी हुई सरकारों ने इसे गुलाम बनाकर रखने का काम किया है क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण एक बड़ा खजाना है और माफिया राजनीतिज्ञों और तस्करों के गठजोड़ से किसान चेतना जैसे आंदोलन को यहां नेस्तनाबूद कर के रख दिया गया है। यह आजाद भारत का हिस्सा दिखता तो है किंतु है नहीं ।प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट का इससे बड़ा अड्डा निकट में नहीं दिखता।

 यही कारण है कि यहां पर प्रायोजित आंदोलन तो होते हैं स्वाभाविक स्वतंत्र निष्पक्ष आंदोलनकारी किसान नहीं निकल पाते। उन्हें दवा दिया जाता है या कहना चाहिए दमन कर दिया जाता है। क्योंकि  एक प्रायोजित आंदोलन में शहडोल के कलेक्ट्रेट गेट में मुट्ठी भर किसानों ने ताला जड़ दिया था क्योंकि यह प्रायोजित था  और उसे दमनकारी शक्तियां संचालित करती थी ताकि किसान का जमीर जिंदा ना रह सके। और यदि  वास्तविक किसान आंदोलन करता है  तो उसे किसी बड़े अपराधी प्रकरणों में फंसा दिया जाता है ।

क्या यही आजाद भारत है शायद बिल्कुल नहीं यह बात हमेशा चिंतन मनन का हिस्सा क्यों नहीं होना चाहिए । भारत में आजादी बनाए रखने के संदर्भ में क्या यह पढ़े लिखे बौद्धिक समाज की असफलता का प्रमाण पत्र नहीं है....?



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