का का
करते काका....
नंगा नाच रहा लोकतंत्र
प्रजातंत्र
के पेड़ पर, कौआ
करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा
(त्रिलोकीनाथ)
काका हाथरसी, उत्तरप्रदेश में
हाथरस का अर्थ ही होता है | यह पर्यायवाची शब्द हास्य व्यंग के महान कवि काका हाथरसी (प्रभुलाल गर्ग) की जन्मभूमि लगता है| गर्ग जी जानते
थे कि हाथरस में मरने के बाद कभी चिता भी प्रशासन रात में जलाने में सिर्फ इसलिए
संकोच नहीं करेगी क्योंकि 14 सितंबर को गांव चंदपा की युवती अपनी मां के साथ खेत पर गई थी जहां पर कथित तौर पर पीड़ित
दलित लड़की के साथ व्यभिचार हुआ और जब लड़की मर गई तो पूरा उत्तर प्रदेश का
प्रशासन अपनी ताकत का इस्तेमाल व्यभिचार करने में लगा दिया उससे किसी दलित लड़की के
बलात्कार और हत्या के प्रकरण को छुपाना है अच्छा है काका हाथरसी 1995 में 25 साल
पहले मर गए क्योंकि यदि आज वे जीवित होते तो
उन्हें शब्द कहां मिलता है कि उनकी जन्मभूमि में आजाद भारत में जिसका प्रदेश का मुखिया
साधुसंत का नकाब पहना हो,उसके पास अपना 1 मठ
गोरखपुर जैसा हो, जिसका वह महंत भी कहलाता हो| जिसके इशारे पर उसकी पुलिस बिना पूरे भारत को के संकोच को
ध्यान में रखकर खुलेआम मीडिया के सामने किसी अपराध के आरोपी को एनकाउंटर नामक गोली
मारकर हत्या कर देती हो| जिसकी पुलिस जीते
जी बलात्कार का दंश खेलने वाली गांव की बेटी उनके जन्म भूमि हाथरस के दलित बेटी का जीते जी खिलवाड़ बना
दिया जाता है, और मरने के बाद उसका मुंह भी उसका
परिवार ना देख सके क्योंकि कहीं बलात्कारियों को बचाने के लिए दोबारा पोस्टमार्टम
न किया जा सके...? इसलिए हिंदू संस्कारों के विरुद्ध जाकर
मध्य रात्रि पुलिस प्रशासन पेट्रोल केरोसिन डालकर चिता को आग लगा देती हो...| उसके लिए यह महान हास्य व्यंग कार शब्द कहां से लाता है..? क्योंकि यह कुछ ना कुछ तो बोलता प्रभु लाल गर्ग| अच्छा हुआ आप प्रभु को 25 साल पहले प्यारे हो गए| फिर भी आपने जो कहा है वह वर्तमान में हो रहा है और आपके ही
जन्मभूमि हाथरस में हो रहा है|
जो हाथरस पूरी दुनिया
में हास्य और व्यंग का सकारात्मक पक्ष देने की ताकत रखता हो, आज वह बदनामी और दलित प्रताड़ना का केंद्र बन गया है| क्योंकि साधुसंत का नकाब पहनकर कोई आसाराम आज भी बलात्कारी
समाज को संरक्षित कर रहा है| क्या यही रामराज्य है..... क्या भविष्य का यही रामराज्य है....
का का करते काका....
नकाब पहनकर धर्मतंत्र,
नंगा नाच रहा लोकतंत्र
कलम तुम्हारी क्या करती,
शब्द कहां से लाते काका ..
का का करते काका
लोकतंत्र में “चुनी हुई गुलामी”
पर तुम क्या-क्या करते काका
हास्य और व्यंग भी
जहां हो गए हो तंग,
तुम का का करते काका
18 सितंबर सन १९०६ में हाथरस में जन्मे प्रभुलाल गर्ग ‘काका हाथरसी“ का सबसे बड़ा संयोग तो यह है कि काका की मृत्यु दिन 18 सितंबर 1995 है वह एक प्रसिद्ध
व्यंगकार और हास्य कवि थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, भ्रष्टाचार और
राजनीतिक कुशासन को अपनी रचनाओं में उतारा।
मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर
भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल
जिसकी
लाठी बलवती, हाँक
ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती
होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह
ग्वारिया हमारा
सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही
है
जब अंतरात्मा का मिलता
है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं
डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं
गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा .......
‘काका’ वेटिंग रूम में फंसे देहरादून।
नींद न आई रात भर, मच्छर चूसे खून॥
मच्छर चूसे खून, देह घायल कर डाली।
हमें उड़ा ले ज़ाने की योजना बना डाली॥
किंतु बच गए कैसे, यह बतलाए तुमको।
नीचे खटमल जी ने पकड़ रखा था हमको ॥
हुई विकट रस्साकशी, थके नहीं रणधीर।
ऊपर मच्छर खींचते नीचे खटमल वीर॥
नीचे खटमल वीर, जान संकट में आई।
घिघियाए हम- “जै जै जै हनुमान गुसाईं॥
पंजाबी सरदार एक बोला चिल्लाके –
त्व्हाणूँ पजन करना होवे तो करो बाहर जाके॥
।
गली-गली फेरी करै, 'तेल लेऊ जी तेल'
'तेल
लेऊ जी तेल', कड़कड़ी ऐसी बोली
बिजुरी तड़कै अथवा छूट रही हो गोली
कहँ काका कवि कछुक दिना सन्नाटौ छायौ
एक साल तक तेली नहीं गाँव में आयो
मिल्यौ अचानक एक दिन, मरियल बा की चाल
काया ढीली पिलपिली, पिचके दोऊ गाल
पिचके दोऊ गाल, गैल में धक्का खावै
'तेल
लेऊ जी तेल', बकरिया सौ मिमियावै
पूछी हमने जे कहा हाल है गयौ तेरौ
भोलू बोलो, काका ब्याह है गयौ मेरौ
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