मंगलवार, 1 सितंबर 2020

नशा,इतना कर की साकी.... तुझे पैमाने का बस ख्याल रहे..... (त्रिलोकीनाथ)

 नशा,इतना कर कि साकी.... 

तुझे पैमाने का बस ख्याल रहे.....

 (त्रिलोकीनाथ)

  आज का  रुपए की कीमत  1डॉलर  बराबर67रुपये33 पैसे  है, तो पैमाना  एक सुप्रीम कोर्ट ने भी बनाया है..., 

"1रुपये का अर्थदंड, 15  तक जमा करे।आदेश ।अन्यथा 3 माह जेल, 3 साल प्रैक्टिस रोक।"

 प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट का यह नजरिया बताता है भारत की  न्यायालय की मानसिक स्थिति क्या है...? और हमारी न्यायव्यवस्था कैसे एक रुपए तक पहुंच गई है...| डॉलर के विदेशी नजरिए में देखें तो यह और गिरेगी... इसके लिए सुप्रीम कोर्ट किसी को दोषी नहीं ठहरा सकती..।


 जब देश आजाद हुआ था तो वह पत्रकारिता की तरह कोई गरीब संस्था नहीं थी। आजादी के पहले भी उतनी ही ताकतवर थी, जितनी आजादी के बाद ज्यादा ताकतवर हो गई है । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की  सबसे बड़ी अदालत । सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मानसिक हालात खुद बनाए हैं। उसे देश का सर्वोच्च संस्था के रूप में इसलिए पहचान मिल रही है क्योंकि उसने इस पहचान को बनाए रखने में एक भूमिका अदा की । उसके पास संविधान की रक्षा के लिए ठंडे वातावरण में काम करने की पूरी ताकत है।



 किंतु एक अधिवक्ता के सिर्फ दो टि्वट से सुप्रीम कोर्ट की आधार स्तंभ जिस प्रकार से एक रुपए के अर्थदंड में या विदेशी नजरिए में कहें तो कुछ पैसों में आ टिका है, यह बहुत चिंताजनक हालात हैं। कि इस संस्था के शीर्षस्थ चिंतनकारों को इतना फुर्सत है कि वह दो ट्वीट में टाइमपास-मनोरंजन करते रहे ।उसकी अपनी संस्था की सांगठनिक तैयारी किस हालात में गुजर रही है  उनके कई स्थगन आदेश  बदबूदार कीड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं। इसके लिए माननीय न्यायालय के पास वक्त नहीं है।

 हम जिससे सीधे प्रभावित हैं उस केस का दृष्टांत का जिक्र करना उचित होगा। क्योंकि ₹1 का अर्थदंड का मानसिक परिस्थितियों से गुजर रही आजाद भारत का सर्वोच्च स्तंभ हमारे नागरिक दिवालियापन का प्रतीक बनती जा रही है। कि हम जिस संस्था पर गर्व कर रहे हैं उस लोकतांत्रिक संस्था भारतीय न्यायपालिका के आदेशों के कारण जमीनी हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। और उसे अपनी आदेशों के क्रियान्वयन की कोई चिंता नहीं है।

 क्योंकि वह दो ट्वीट में अपने आधार को चुनौती के रूप में देखने लगती है। तो चलिए शहडोल के मोहनराम मंदिर ट्रस्ट के लंबित प्रकरण पर उच्च न्यायालय के आदेश के कारण बर्बाद होती मोहनराम मंदिर ट्रस्ट के अद्यतन हालात देखें।

 उच्च न्यायालय के आदेश मे "एसडीएम सोहागपुर प्रकरण के लंबित रहने तक  स्वतंत्र कमेटी का निर्माण करें , जो संपूर्ण प्रबंधन  मोहनराम मंदिर ट्रस्ट का देखें।"  कुछ इस तरह का आदेश 3 माह तक 2011 मैं लटके रहे। जब जबलपुर उच्च न्यायालय ने मुड़कर देखा तो डांट लगाई, घबराकर तत्कालीन एसडीएम सोहागपुर एल एल यादव  ने अंतत: कमेटी का गठन कर दिया। तब से लेकर 9 साल बीत गए हैं । उच्च न्यायालय के निर्देश पर गठित स्वतंत्र एजेंसी, मोहनराम मंदिर ट्रस्ट का संपूर्ण प्रभार नहीं ले पाई है। क्योंकि ट्रस्टी के रूप में जो माफिया हैं धर्म का नकाब पहनकर शासन और प्रशासन को अपनी अदृश्य ताकत से डराते रहते हैं। शासन और प्रशासन का दुखद पक्ष है कि वह न्यायपालिका की ताकत पाने के बाद भी  बेहद डरा हुआ, कायर और अयोग्य सिद्ध हो रहा है.... याने उच्चन्यायालय जबलपुर के आदेश के कारण मोहन राम मंदिर ट्रस्ट शहडोल के हालात बद से बदतर हो गए हैं ट्रस्ट प्रबंधन में अराजकता है। क्योंकि नकाबपोश धार्मिक माफिया , कभी भारतीय जनता पार्टी के नकाब में तो कभी कांग्रेस पार्टी के नकाब में हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते रहते हैं।  इन सबसे हमारी माननीय न्यायपालिका की आस्था पर नागरिक विश्वास का लगातार पतन होता जा रहा है।

 क्योंकि न्यायपालिका स्वत:  समीक्षा करके यह जानने का प्रयास कभी नहीं किया कि उनके द्वारा पारित आदेश की वार्षिक अद्यतन हालात क्या है। और ना ही इसके लिए किसी को दंडित किया गया ...।

हाल में एक आदेश में राष्ट्रीय हरित न्यायालय (एनजीटी )के आदेशों के क्रियान्वयन की समीक्षा के लिए जरूर राज्य स्तर पर एक कमेटी के गठन का खबर आशा का कारण बना था। क्योंकि एनजीटी के आदेश भी कुछ इसी तरह बर्बाद व्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे थे। उनके आदेश के क्रियान्वयन ना होने से पर्यावरण संरक्षण सिर्फ एक ढकोसला साबित हो रहा था । अब उसमें क्रियान्वयन कितना हुआ या उसके क्या परिणाम आए इसे जब तक सार्वजनिक नहीं किया जाएगा, लोकतंत्र के वास्तविक मालिक या फिर गुलाम भारतीय नागरिक इससे अछूता रह जाएगा। एनजीटी के आदेशों के बाद यह आशा जगी थी कि न्यायालय अपने आदेशों के क्रियान्वयन में गंभीर होंगे । किंतु उम्र खिसकने के साथ इनके आदेश भी घिसटते दिख रहे हैं।

 यानी संपूर्ण न्यायपालिका को आत्मचिंतन की जरूरत है कि आप एक मजबूत संस्था होने के बाद भी कैसे सबसे कमजोर संस्था के रूप में प्रमाणित हो रहे हैं। इससे नागरिक विश्वास कांप रहा है....? कि अब लोकतंत्र में कहां पर विश्वास किया जाए।

 बहराल शहडोल के मोहनराम मंदिर ट्रस्ट की प्रॉपर्टी मंदिर में कब्जा करके रह रहा कोई ट्रस्टी कैसे गैरकानूनी तरीके से सरकारी दस्तावेजों में हेरफेर कर फर्जी संस्था के नाम से करा लेता है। यह बात  हाईकोर्ट के निर्देश में गठित स्वतंत्र कमेटी के सदस्य होने के नाते तहसीलदार सोहागपुर के संज्ञान में इसलिए भी दर्ज है क्योंकि बतौर तहसीलदार  उसने मंदिर ट्रस्ट की ही शहडोल आराजी खसरा नंबर 138 कि 33 डिसमिल जमीन पर एक ट्रस्टी लवकुश पांडे द्वारा अतिक्रमण कर खुर्दबुर्द कर कब्जा करने के मामले पर स्थगन आदेश जारी किया था।

 यह अलग बात है कि धार्मिक नकाबपोश आपराधिक मानसिकता का व्यक्ति जब हाईकोर्ट के आदेश को नहीं मानता तो तहसीलदार सोहागपुर के ऑर्डर की औकात ही क्या है.....? और इस प्रकार वह मंदिर ट्रस्ट की प्रॉपर्टी पर गैरकानूनी डबल स्टोरी  मकान बनाकर कब्जा कर लेता है। क्योंकि उसे मालूम है शासन पर बैठा हुआ सत्ता का लालची राजनीतिक नेता, धर्म के धंधे में कैसे गुलाम है।


 वह उसे गैर कानूनी काम करने से नहीं रोक रहा है, और ना ही रोकेगा... किंतु बात जब उच्च न्यायालय जबलपुर के आदेश के क्रियान्वयन की होती है तो उसकी अवमानना तो हो ही रही है। उस आदेश की अवमानना की आड़ में मंदिर ट्रस्ट पर डाका भी तो पड़ रहा है ।

आखिर लोकतंत्र में इन हालातों से कैसे बचा जाए .....? 

यह एक दृष्टांत मात्र है जिससे हम नजदीक से देख रहे हैं, जिसमें हमारा जनहित और धार्मिक हित हाईकोर्ट के आदेश की आड़ में लगातार हनन हो रहा है...., क्या हाईकोर्ट या हमारी न्यायपालिका इन हालातों से निपटने में सक्षम है ...या वे इतनी व्यस्त हैं कि उन्हें टि्वटर के ट्वीट से घबराकर, भरभरा कर गिर जाने का डर ही समाया रहता है... और वे उससे बचने के लिए अपने कीमती वक्त को मनोरंजन की तरह इस्तेमाल करते हैं।

 प्रशांत भूषण पर सुनाया गया आर्थिक दंड भारतीय नागरिक  के जीवन शैली का एक पैमाना भी है। और इस सूत्र को हमेशा याद रखना चाहिए....

 "1रुपया = 3 महीने का जेल और 3 साल तक अजीबका खत्म हो जाने का खतरा।

 जब एक रुपए को डॉलर में बदलते हैं, तो भारतीय जीवन शैली का पैमाना कुछ पैसे..., कुछ टका या  कुछ धेले कर रह जाता है... जो कभी आजादी के पहले पैमाना हुआ करता किंतु  तब उसकी जबरदस्त कीमत थी  अब आपकी सोच के पतन से भी पतित है ...

यही देश की आजादी के बाद भारतीय नागरिक कि उसकी व्यक्तिगत आजादी की कीमत भी है... इसीलिए शायद कुछ टके और धेले में हमारे देश का वर्तमान सत्ता अपने मालिकों के लिए शासकीय संस्थानों को टको और और धेलों में बेच रही है।

 जिसे "निजीकरण का नकाब " पहनाया गया है। क्या हमारी न्यायपालिका हमारी देश की आजादी की आस्था को लाखों लोगों के बलिदानों की विरासत को बचा पाने में सक्षम है....? यह गंभीर चिंतन और मंथन का विषय है ..?

किंतु अगर न्यायपालिका चाहे तो सिर्फ उन्होंने जो "आदेश" किए हैं, जो "स्थगन आदेश" किए हैं जो सार्वजनिक हित के रूप में चिन्हित है, क्योंकि उनके अपने आदेश हैं, उनका भी अगर क्रियान्वयन चरणबद्ध तरीके से करवा सकते हैं तो भी सफलता का कुछ कदम चलेंगी ... ।

लेकिन एक सशक्त संस्था होने के बाद भी अगर वे फेल हैं ... तो भारतीय पत्रकारिता को सिर ऊंचा करके चलने का हमेशा फक्र रहेगा कि वह सबसे कमजोर और गरीब संस्था होने के बावजूद भी चौथे-स्तंभ का निर्वहन मरते दम तक किया। इसमें कोई शक नहीं है।


 

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