मंगलवार, 21 जनवरी 2020

"मैं हूं ना...." कमलेश्वर , लोकतंत्र बनाम माफियातंत्र भाग-1 (त्रिलोकीनाथ)

                                     लोकतंत्र बनाम माफियातंत्र :भाग-1
" मैं हूं ना...." : कमलेश्वर


















 1- कौन नवाब..., प्रदेश में एक ही नवाब है:- पंचायत मंत्री
 2- लोकतंत्र का खूबसूरत  अवसर, जब नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर मंत्री बैठे।

3- बैक-डेट का मायाजाल
4 -लेटलतीफी पर उन्होंने कहा, जैसी आपकी इच्छा.....
5- जैसे पत्रकारिता में  हैं हमारी बिरादरी में भी बुरे लोग हैं जो चोला पहनकर गलत काम करते हैं..- पंचायत मंत्री
6- थाने में पत्रकार से असभ्यता करने पर लाइन अटैच हुआ पुलिस-कर्मचारी 
7- पत्रकारों की जागरूकता ने तोड़ी गुलामी की जंजीर
8- पत्रकारों की ऐसी तैसी करने वाला अफसर की भी हुई थी ऐसी तैसी ...



                             (त्रिलोकीनाथ)
9-जब नेता बनाते है लोकतांत्रिक सद्भाव और करते हैं स्वाभिमान की रक्षा.... आदि आदि कई प्रकार के समाचार शीर्षक अखबारों में जगह पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, बावजूद इसके  आदिवासी विशेष क्षेत्र पांचवी अनुसूची में शामिल जिले में अरबों-खरबों रुपए की प्राकृतिक संसाधनों को अलग-अलग प्रकार के माफिया लूट रहे हैं...
 इसके बाद भी यहां की पत्रकारिता आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए गला दबाकर किसी थाने में, उसकी आवाज को बंद करने का काम किया जाए।
 क्योंकि अगर "बारी ही खेत खाने लगेगी" तो रक्षा कौन करेगा...?

 इस मायने में कल का दिन शहडोल क्षेत्र के लिए वर्षों बाद गुलामी से निकलने की अभिव्यक्ति के रूप में स्थापित होने का संघर्ष कर रहा था। जिसमें राजनेता पत्रकारिता और ब्यूरोक्रेट्स सभी इस जद्दोजहद को संभालते दिख रहे थे। 21 जनवरी का दिन 2020 में इसलिए 
महत्वपूर्ण  था ,इसे एक पार्ट में समझना थोड़ा जल्दबाजी और अन्याय होगा..।इसलिए "लोकतंत्र बनाम माफिया तंत्र, शहडोल के संदर्भ में हम देखने का प्रयास करेंगे।
.... तो हुआ क्या था, घटनाक्रम कुछ इस प्रकार का रहा, पंचायत मंत्री कमलेश्वर पटेल पत्रकारों से 2:00 बजे दिन के सर्किट हाउस में अनौपचारिक चर्चा करेंगे इसलिए पत्रकारों का दल सर्किट हाउस में पहुंचा, जहां मंत्री जी तो आए नहीं थे किंतु प्रेस कॉन्फ्रेंस की जो व्यवस्था थी वह थोड़ी बैगा-आदिवासियों के सम्मेलन जैसी दिख रही थी।  सर्किट हाउस के बाहर एक टेंट में, जहां शायद भोजन का भी इंतजाम था, वही कुर्सी लगाकर ब्यूरोक्रेट्स अपनी जिम्मेदारी निभा दिया था। कुछ पत्रकार पहुंच गए थे, क्योंकि समय 2:00 बजे का था। चुकि मंत्री जी अन्य कार्यक्रम में व्यस्त थे, इसलिए लेटलतीफी होती जा रही थी। एसडीएम सोहागपुर मिलिंद जी भी टेंट में पहुंचे, और वहां की अव्यवस्था को ठीक करने का प्रयास भी किया... किंतु शायद वे सफल नहीं हुए। ना तो सेंटर टेबल लगाई गई जिसमें मंत्री की सहूलियत से बैठकर पत्रकारों से बातचीत कर सकते, ना ही माइक आदि संवाद की व्यवस्था थी। समय ज्यादा होता देख, कुछ पत्रकारों को बैठक व्यवस्था संभालने के दृष्टिकोण से, ताकि संवाद पर्याप्त हो सके, सर्किट हाउस के कॉमन हॉल में चले गए। किंतु मंत्री जी देरी लगातार बढ़ती रही। कलेक्टर ललित दायमा भी बीच में प्रबंध करने के लिए प्रयास करते दिखे... किंतु जब डेढ़ घंटे से ज्यादा का समय बीत गया तो पत्रकारों का धैर्य भी टूट गया....। क्योंकि, कांग्रेस पार्टी आने के बाद यह पहला अवसर था, जब कोई मंत्री अपनी वर्षों पुरानी परंपरा के तहत शहडोल आने पर पत्रकारों से मिलने का और उनसे संवाद करने का अवसर दिया था। तो पत्रकार भी इसे खोना नहीं चाहते थे....। कई मुद्दे थे, हाल में पैदा हुआ पुलिस थाना सोहागपुर में पत्रकार विनय शुक्ला के साथ असभ्यता, शहडोल में माफियाओं का दबदबा और पंचायती राज की असफलता... आदि बातें वर्षों से सड़ांध मार रही थी। जिन पर पत्रकारिता, विधायिका के औपचारिक आवाहन पर मुखर होना चाहती थी। किंतु लेटलतीफी के कारण स्वाभिमान आड़े आ रहा था। अंततः एक पत्रकार ने जनसंपर्क अधिकारी से फोन करके डेढ़ घंटे की लेटलतीफी पर पूछ लिया, चुंकी आमंत्रण जनसंपर्क विभाग से था और उधर से रुखा जवाब आया ।
शायद वे भी इस व्यवस्था से खिन्न थे..? इसलिए प्रश्न पर, "कि हम क्या करें....?" उत्तर था, "जैसी आपकी इच्छा....." 
बस फिर क्या था, स्वाभिमान को जैसे तिनका मिल गया हो..., वह जल गया । प्रेस-कांफ्रेंस के बायकाट करने का विचार प्रस्ताव में आया..। तय ही हो गया कि बायकाट किया जाए।
 किंतु इसी बीच पत्रकारों के असभ्यता के संदर्भ में आपसी संवाद मे पर मतातंर पैदा हो गए और कुछ पत्रकारों ने अपने आवाज आवेश का प्रदर्शन भी किया। कि विनय शुक्ला के साथ जब नाजायज हो रहा था तो बाकी पत्रकार एक क्यों नहीं थे...? थाने का घेराव क्यों नहीं किए... आदि आदि। बाद में स्थिति स्पष्ट भी हुई कि हर व्यक्ति का अपना अपना तरीका है। फिर यह बात भी साफ हुआ कि जब पत्रकारों में वैचारिक एकता का अभाव है। तो कौन व्यक्ति जोखिम उठावे अपने अपमान का।
 इस प्रकार थाना सुहागपुर में पत्रकार के साथ असभ्यता का मसला निर्णायक मोड़ पर आ गया की, सर्वोच्च प्राथमिकता मंत्री से मिलने पर पत्रकारिता के साथ न्याय का होना चाहिए, और सब एकमत भी हो गए।
 किंतु मंत्री जी के लेटलतीफी के मुद्दे पर  स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं कर पाए और अंततः महत्वपूर्ण मुद्दों को जेब में रखकर सर्किट हाउस से बाहर हो लिये ।
 हालांकि प्रशासन इसे संभालने का काफी प्रयास किया। अब बारी आई कलेक्ट्रेट में नीम के पेड़ के नीचे की। क्योंकि कलेक्ट्रेट में बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए अक्सर पत्रकार इसी नीम के पेड़ के नीचे सहारा लेते हैं..., जो इस वक्त भी सहारा लिए थे। उसी वक्त प्रशासन में यह खबर फैल गई, मंत्री जी भी शायद तय किए कि अपमान थोड़ा ज्यादा हो गया है, स्वाभिमान की रक्षा की जाए। और चुकी मंत्री जी का पारिवारिक पृष्ठभूमि समाजवादी विचारधारा का था, लोकतंत्र को प्राथमिकता देता था, अतः उन्होंने नीम के पेड़ के नीचे आकर परिस्थितियों के लिए खेद व्यक्त किया और पत्रकारों के आवेश को समझते हुए, उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए,  स्वतः  जमीन पर बैठ गए और वहीं पर संवाद के अवसर तलाशने चाहे।
 ताकि लोकतंत्र, सहज और सरल हो जाए ,यह पंचायत मंत्री कमलेश्वर पटेल के लिए सफलता का एक अवसर था। कि उन्होंने स्वयं को खूबसूरत, दिल जीतने वाले अंदाज के रूप में इसे परिवर्तित कर लिया और जमीन में बैठकर पत्रकारों के साथ चाय पीने की बात भी कही।
 अंततः विधायिका और पत्रकारिता में जो प्रश्न परिस्थितियों बस  स्वाभिमान की रक्षा को लेकर उठ रहे थे, समाप्त हो गए और प्रेस-कॉन्फ्रेंस के लिए कलेक्ट्रेट का मीटिंग हॉल में जाना तय हुआ। किंतु प्राथमिकता की बात सर्किट हाउस में तय हो गई थी। दोबारा फिर दोहराई गई ,मंत्री जी के आने के पहले । बावजूद इसके प्रेस कॉन्फ्रेंस के अंत में बात उठी, अंततः मंत्री जी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस से निकलते निकलते  उपस्थित एडिशनल एसपी श्री भूरिया को बुलाकर निर्देशित किया कि संबंधित पत्रकारिता से असभ्यता करने वाले करने वाले पुलिस कर्मचारी को अटैच किया जाए और कार्यवाही की जाए। बात छोटी थी, किंतु गंभीर थी, यह हमारी लोकतंत्र की आत्मा का सवाल है... मंत्री जी ने दोबारा ऐसा करके अपने कर्तव्य का निर्वहन भी किया और एक संतोषजनक निष्कर्ष भी दिया।
 राजनीति अपनी जगह होती है और लोकनीति अपनी जगह...। कानून की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्यूरोक्रेट्स की होती है, व पुलिस पदाधिकारियों के कर्तव्य निर्वहन में, शायद उनकी "देशभक्ति" आड़े आ रही थी।

इसीलिए जब पत्रकारों का दल थाना में पत्रकार अस्मिता के मामले में पुलिस अधीक्षक स्तर पर पाया कि वे टाल-मटोली कर रहे थे, जबकि उन्हें थाने में, वह भी संभागीय मुख्यालय के थाने में... हुए अपराधिक हरकत पर तत्काल स्वयं संज्ञान लेकर एक्शन में आकर कार्यवाही करनी चाहिए थी, उसमे पुलिसअधिकारी फेल हो गए। अन्यथा एसपी भूरिया अवश्य मंत्री जी को यह बता दिए होते कि दोषी पुलिस कर्मचारी को लाइन अटैच किया जा चुका है किंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा। यह बताने पर कि वे किसी माफिया के इशारे पर किसी पत्रकार का गला दबाने का प्रयास क्यों किया ....?आदि आदि...।

 अच्छा हुआ कि मंत्री जी ने पत्रकारिता का "गला दबाने से बचाने" के लिए निर्देश दिया ताकि पत्रकारिता की आवाज बुलंद रहे।
 यह कांग्रेस के मंत्री के लोकतंत्र की सफलता, सरल तथा सहज उदाहरण है। भलाई  दिखावे का हो... ऐसा ही होना चाहिए, इससे पत्रकारिता में और विधायिका में साथ ही पुलिस व प्रशासन में शुचिता का वातावरण, जागरूकता के निर्माण का वातावरण बनता है। तो धन्यवाद, कमलेश्वर पटेल जी व बधाई ।भाजपा ने लोकतंत्र की जीत का जो कमल शहडोल में नहीं खिलाया, बीते 15 वर्षों में... वह आपने आते ही कर दिखाया। 
दिखावे के लिए ही सही, कि माफिया से रक्षा करने के लिए,
" मैं हूं ना......"
 और कम से कम माफिया तंत्र से बचाने के लिए लोकतंत्र, लोकनेता को इतना तो करना ही पड़ेगा...., ताकि पत्रकारिता विश्वास करें कि उनकी विधायिका उनके साथ है...
 अब इसका एक दूसरा पक्ष भी है, वह अगले भाग में....

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