मिड-काउंटिंग; शहडोल
( त्रिलोकीनाथ )
लोकसभा चुनाव पर देश में क्या घट रहा है ...देश वाले जाने, अपन तो शहडोल के लोग हैं ।आदिवासी क्षेत्र है, शहडोल की भाषा जानते हैं और थोड़ा बहुत समझने का भी प्रयास करते हैं.... इसलिए जब मध्यावधि चुनाव हो रहा था तो भी पूरी ताकत लगा दी थी शिवराज सिंह ने हिमाद्री सिंह को भारतीय जनता पार्टी में लाने के लिए.... किंतु हिमाद्री सिंह ने अपनी कांग्रेस की विरासत की राजनीत से अलविदा होने का मन नहीं बनाया... आखिर संस्कार भी तो कुछ टोका-टाकी करते हैं.... पूरी ताकत और मेहनत के साथ हिमाद्रि चुनाव लड़ी, यह एक अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी ने उन्हें टिकट देकर जैसे दलवीर सिंह-राजेश नंदनी से कर्ज मुक्ति का प्रमाण पत्र ले लिया था...? कारण चाहे जो भी रहा हो ,शहडोल लोकसभा क्षेत्र अर्जुन सिंह की जागीरदारी थी या फिर श्रीनिवास तिवारी उसमें अपना नजर रखते थे .यह बहुत मायने नहीं रखता; मायने यह रखता था ...,यह क्षेत्र दलवीर सिंह की नेतागिरी को अपना रोल मॉडल मान चुका था।
बावजूद इसके आदिवासी राजनीति में दलपत सिंह परस्ते, ज्ञान सिंह और अन्य सांसद भी सांसद होने का खिताब पा चुके थे। किंतु उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता शहडोल के प्रति साबित करने का काम नहीं किया। जो काम दलवीर सिंह और राजेश ंंनन्दिनी सिंह ने किया शायद दलवीर सिंह की नेतृत्व से हाईकमान प्रभावित था और उन्हें आगे भी करना चाहता था आपातकालीन मौत ने न सिर्फ दलवीर सिंह को बल्कि राजेश नंंन्दिनी को और उनकी राजनीतिक सोच को भी दफन कर दिया... किंतु उनकी कमाई हुई पूंजी विरासत को मिलनी ही थी, शो मध्यावधि चुनावों में उसका बंपर असर दिखा।
शिवराज सिंह मुख्यमंत्री होने की जितनी ताकत लगा सकते थे हिमाद्री सिंह को हराने के लिए उन्होंने लगाया और उससे ज्यादा ताकत किसी मुख्यमंत्री के द्वारा लगाई भी नहीं जा सकती...। बावजूद सिर्फ नाम मात्र की वोटों से ज्ञान सिंह को सांसद बना पाए किंतु शिवराज सिंह इस सच्चाई को जानते थे कि यह हारी हुई जीत है, जबकि जानकार जानते थे की हिमाद्री सिंह "जीत करके भी हार गई हैं" और इस नजरिए का परिणाम यह रहा कि शिवराज सिंह को जैसे ही अवसर मिला उन्होंने शहडोल लोकसभा क्षेत्र को अपने कब्जे में रख करने की पूरी ताकत लगा दी।
कांग्रेश की थोड़ी सी चूक, कांग्रेश की इलाकेदारी को खत्म कर दिया। पता नहीं क्यों इस बात को कांग्रेश के खानदानी-सत्ताधारी लोग नहीं समझ पाए....?
बहरहाल एक चीज और देखने को मिली की रिम्युमर में ..,हवा में.., स्पेक्ट्रम में कितनी ताकत होती है कि कुछ भी उड़ा सकती है । शहडोल की पत्रकारिता असंगठित क्षेत्र का है एक अखबार कल ही शहडोल में उतरेगा और दावा करने लगता है कि शहडोल में उसी की पत्रकारिता का सिक्का चलता है.... एक प्रकार की सामंतवादी दकियानूसी सोच वाली पत्रकारिता होने के बावजूद भी असंगठित क्षेत्र की पत्रकारिता और उसकी ताकत कितनी तेज है कि संगठित क्षेत्र का आई ए एस तब का प्रशासनिक अमले के बैठे हुए कलेक्टर को हवा में उड़ा देता है....? यह थोड़ा सा भी रीम्युमर में अगर दम है तो बात बन जाती है.... हम यह नहीं कहते कि चुनाव आयोग का निर्णय गलत था या सही था, किंतु तकनीकी तौर पर यह आज भी पुष्ट नहीं है कि क्या निर्णय सिर्फ भ्रम को आधार बनाकर संदेहास्पद परिस्थितियों में लिए गए ..? उसकी वैज्ञानिक पुष्टि शायद नहीं हुई या नहीं अगर वातावरण बनता है तो उसका प्रभाव संगठित क्षेत्र में भी व्यापक तौर पर पड़ता है।
खासतौर से जब समय कम हो, कमोवेश भारत की राजनीति में झ?रीयुंमर बनाने के काम पर कांग्रेस और विपक्षी दल पिछड़ गए जिसका नतीजा यह रहा भारतीय जनता पार्टी का प्रोपेगंडा और उसका तरीका पुनः नरेंद्र मोदी की सरकार को बनाने के लिए तेजी से आगे बढ़ती दिखाई दे रही है...।
यह भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी भी है और उसका खतरनाक परिणाम भी.....। जब तक तकनीकी तौर पर कोई चीज स्थापित ना हो जाए उस पर निर्णय क्यों होने चाहिए....? उम्मीद करना चाहिए कि वातावरण निर्माण के सहारे ही आई भाजपा को अपनी सोच सकारात्मक दृष्टिकोण पर स्थापित करनी चाहिए अलग-अलग जगह में अलग-अलग कारणों से भाजपा जीती है इसमें कोई शक नहीं है और उन कारणों को पकड़ने में और वातावरण बनाने में भाजपा कामयाबी होती दिख रही है। कम से कम शहडोल में यह बात स्पष्ट हो गई है कि भारतीय जनता पार्टी उम्मीदवार चुनने के मामले में जौहरी जैसा काम किया और हिमाद्रि के जरिए कांग्रेस की विरासत की राजनीति पर अपना झंडा गाड़ दिया
यही है मीड-काउंटिंग का संदेश.... मतगणना के बीच चल रही जीत का संदेश.....
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