शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

कविता - साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से ........

साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से  ..........

श्री गोपाल प्रसाद मानिकपुरी 
साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से। और आज भीड़ में तन्हा , महफ़िलो में तन्हा शामिल से ।।
पूंछता हूँ .....
 इन रात की तन्हाइओ से ,
इन ठंडी हवाओ से ,
की ये वक़्त और मौसम बदलते क्यों है ??
और तन्हाई बस यही कहती है  ..
तुम  भी हो इन वक़्त और मौसमो में शामिल से ।।
टूट चूका हूँ मोती मालाओ की तरह , अब इन्हे  पिरोने का हौसला मुझमे नहीं। 

ऐ वक़्त गुज़र क्यों नहीं जाता हंसी ख्वाब की तरह,अब तुझे सम्हालने का हौसला मुझमे नहीं। 
क्यूंकि आज भीड़ में तन्हा , महफ़िलो में तन्हा शामिल से। साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से ।।





चुनाव के चक्कर में फँस गए, "बजरंगी-भाईजान" ......




    विवाद बजरंगबली और अली का  


चुनाव के चक्कर में फँस  गए,  
      "बजरंगी-भाईजान" ...... 
         
 स्वप्रमाणित दस्तावेजों में सुंदरकांड को अवश्य समझना चाहिए..... और तलाश करने का प्रयास करते हैं कि हनुमान जी, बजरंगबली या बजरंगी-भाईजान किस जाति के थे..? उनके आदर्श दुश्मन देश के साथ के नागरिकों या परिजनों के साथ भी हृदय लगा कर किस प्रकार से  व्यवहार करते थे. हम तो देश की आजादी के बाद भी अच्छे लोगों को, बुरे बनाने में लगे हैं .बल्कि कहे तो मुसलमान तो दूर हिंदुओं में भी मुसलमान पैदा करने में लगे हैं.  ताकि  भारत मे वे सत्ता-सुंदरी का खुला आनंद ले सकें. बहरहाल. इसी बहाने हम वास्तविक हनुमान जी महाराज और आदर्श भगवान राम का अपने दुश्मन देश के अच्छे लोगों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए..? कुछ देर के लिए ही सही आनंद लेते हैं.....
                             ( त्रिलोकीनाथ )

भाजपा और उनके नेताओं के हाल कुछ इस प्रकार से हो गए हैं जैसे- की
"कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
या पाये बौराय  नर वा पाये बौराय"

अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साय ने प्रमाणित किया है की अपने बजरंगबली जी सलमान खान की माने तो बजरंगी-भाईजान, दलित-जाति के नहीं थे, बल्कि अनुसूचित-जनजाति थे. क्योंकि अनुसूचित-जनजाति में  तिग्गा एक गोत्र है. जिसका अर्थ वानर होता है. इस प्रकार हनुमानजी महाराज आदिवासी थे.?


 इसके पूर्व उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था, कि बजरंगबली एक ऐसे लोक देवता हैं जो स्वयं वनवासी हैं, गिर वासी हैं, दलित हैं और वंचित हैं. क्योंकि दलितों के प्रतीक थे इसलिए वे दलित थे.?
 किसी एक अन्य नेता ने भी अपना दावा किया कि बजरंगबली ब्राह्मण थे.और 21वीं सदी में विज्ञान की दुनिया में यदि वर्तमान राजनीति में जनेऊधारी राहुलगांधी को चर्चा के बाद उन्हें ब्राह्मण बताया गया है तो हनुमान जी महाराज भी ब्राम्हण भी थे.?


 हनुमान चालीसा में कहा भी गया है

 "हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजे "

 तो जनेऊ भी पहनते थे, तो ब्राह्मण भी हो गए.?

बहरहाल विवाद इस बात पर हुआ कि योगी ने कहा बजरंगबली चाहिए या अली वैसे तो चुनाव-आचार संहिता में धार्मिक-स्थलों का प्रचार-प्रसार में उपयोग वर्जित है, किंतु जिस प्रकार संविधान की सभी संस्थाओं की मर्यादाओं से खिलवाड़ होता है. उसी प्रकार चुनाव-आचार-संहिता का मजाक मुख्यमंत्री हो या फिर अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष निर्वाचन के दौरान खुलकर बहस का मुद्दा बना रहे हैं.

यहां तक तो ठीक है कि सांप्रदायिक दृष्टिकोण से बजरंगबली और अली में विवाद है, इसके बावजूद अपने सलमानखान बजरंगी-भाईजान पिक्चर बनाकर बजरंगबली को भाईजान के रूप में भी दिखाने का काम किया. किंतु नेताओं  को मालूम है कि इससे उनका वोट-बैंक का धंधा, बोट-राजनीति के लिए पैदा किया गया फर्जी-सारामजन्मभूमि-बाबरीमस्जिद की असफलता को छुपाने के लिए नए सिरे से बजरंगबली और अली को दलित या फिर आदिवासी बनाने का धंधा चल रहा है.., अरे भाई देश की आजादी के बाद जो जाति बजरंगबली की अपने सलमान खान ने चुन लिया है, वही सही लगता है. इसलिए कि अगर रावण की लंका को 2 मिनट के लिए पाकिस्तानी मान ले, उसके भाई विभीषण को भगवान राम ने,  हनुमानजी महाराज ने स्पष्ट रूप से अपने पहले मिलन में ही स्वीकार कर लिया. अब यदि इन दलितों और आदिवासियों की बात को ही माने, मुख्यमंत्री और नंदकुमार साय की बात माने,
तो स्वप्रमाणित दस्तावेजों में सुंदरकांड को अवश्य समझना चाहिए..... और तलाश करने का प्रयास करते हैं कि हनुमान जी, बजरंगबली किस जाति के थे..? उनके आदर्श दुश्मन देश के साथ के नागरिकों या परिजनों के साथ भी हृदय लगा कर किस प्रकार से  व्यवहार करते थे. हम तो देश की आजादी के बाद भी अच्छे लोगों को बुरे बनाने में लगे हैं .बल्कि कहे तो मुसलमान तो दूर हिंदुओं में भी मुसलमान पैदा करने में लगे हैं.  ताकि  भारत मे वे सत्ता-सुंदरी का खुला आनंद ले सकें. बहरहाल.
 इसी बहाने हम वास्तविक हनुमान जी महाराज और आदर्श भगवान राम का अपने दुश्मन देश के अच्छे लोगों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए..? सुंदरकांड में अलग अलग संदर्भ में हुए संवादों का और प्रश्न उत्तरों का कुछ देर के लिए ही सही आनंद लेते हैं.....


लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।


एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।

बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।


की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।।

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।


सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।


प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।

-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी।।

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।


निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।


नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।


सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।


अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।


अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।।

कहु लंकेस सहित परिवारा।


 कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।

दो 0-तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।

जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।




तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।

जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।।

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।।

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।

अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।



जो संपति सिव रावनहि, दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।   49(ख)।।






रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने हजारों साल त्रासदी देने  वाला लंकापति रावण ,  दुश्मन देश के 
मुखिया और उसके परिवार के अच्छे लोगों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस पर दृष्टांत देते हैंऔर अच्छे लोगों को चुनकर बिना कोई लाग लपेट संकोच किए लंका का राजतिलक भी कर देते हैं. और हमारे देश में चुनाव के समय अच्छे दिनों की बात करने वाले पार्टी के लोग, अच्छे नागरिकों को भी हनुमान जी महाराज से अलग करके अली-वाला बताकर सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की वोट की राजनीति खड़ा करने का काम करते हैं कम से कम यह तो भगवान राम के अनुयाई कभी नहीं हो सकते....? और हो भी क्यों आध्यात्मिक दुनिया में संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी मर्यादाओं का ख्याल न रखते हुए अपने भगवान हनुमान जी महाराज जो कथित रूप से कलयुग में हमारे राजा हैं उन्हीं की जात पर विवाद खड़ा करते हैं और जात का प्रमाण पत्र बांटने वाले आयोग के अध्यक्ष उन्हें प्रमाण पत्र देने का प्रयास करते हैं..?
  ईश्वर करे निर्वाचन आयोग की आंखें खोलें, भगवान की जाति बताने का काम ना करें क्योंकि जहां भगवान का साम्राज्य चालू होता है, स्पष्ट रूप से कहा गया है जात पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होय”. बेहतर होता 21वीं सदी मैं लोकतंत्र की ढेर सारी समस्याओं जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण और न्याय को तरसती जनता के लिए भी कुछ बातें कहनी और करनी चाहिए .







मंगलवार, 27 नवंबर 2018

आखिर क्या है बहुसंख्यक पत्रकार समाज का दलित-संघर्ष ? भारतीय-पत्रकारिता में प्रदूषण और चुनाव-चंदे की “बदनाम-मुन्नी ”

 

            पत्रकार-जगत
                 और
           निर्वाचन-प्रक्रिया


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   भारतीय-पत्रकारिता में 
  प्रदूषण और चुनाव-चंदे की  
     
     बदनाम-मुन्नी 
   बहुसंख्यक पत्रकार समाज का दलित-संघर्ष       ( त्रिलोकीनाथ )
चुनाव आयोग ने निर्वाचन की प्रक्रिया के लिए कई प्रयास किए. पारदर्शिता इसका अहम पहलू है किंतु माफिया नुमा राजनीतिक दलों ने पारदर्शिता से परहेज किया और यही कारण है कि पार्टियों के राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता से बचा गया है. चंदे की प्रक्रिया बदनाम-मुन्नी की तरह है उसी तरह व्यय की प्रक्रिया भी बदनाम मुन्नी का ही हिस्सा है. पारदर्शिता को पूंजीवादीव्यवस्था या माफिया ने हाईजैक कर लिया है,केंद्रीकृत कर लिया है. उसे जमीनी धरातल में औपचारिकता की तरह ही पूरा किया जा रहा है किंतु वह अब मुन्नी बदनाम हुई के तर्ज पर जगह-जगह नाच-कर अपना मनोरंजन करते हुए समाज को अस्वस्थ करती प्रतीत होती है.
दरअसल सच बात यह है कि जिस प्रकार से लोकतंत्र में चतुर्थ स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार को आजादी के बाद आज तक मान्यता नहीं मिल पाई है या यूं कहें कि अपने ही कुछ दलालनुमा अखबारी-माफियाओं के आदमियों को मीडिया में अधिमान्यता दी गई है और पत्रकारिता में एक बहुसंख्यक भारतीय पत्रकार समाज आज भी इस तथाकथित अधिमान्यता के प्रमाण-पत्र से अछूता है, जिनके लिए गैर-अधिमान्य-पत्रकार या फिर गैर-पत्रकार की श्रेणी का विभाजन करके रखा गया है. जिसमें बहुसंख्यक-पत्रकार-समाज के लोगों को नजरअंदाज करके रखा गया है उन्हें अपने मुख्यधारा में आने का वैसा ही संघर्ष लगातार करना पड़ रहा है जैसा कि दलितों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में आने का संघर्ष आज भी करना पड़ रहा है.
                    पूंजीवादी व्यवस्था या माफिया 
यह कहा जाए कि पत्रकार समाज में दलित-पत्रकार-वर्ग लोकतंत्र ने पैदा किया है तो गलत नहीं होगा. बहराल विषय भटक ना जाए इसलिए सिर्फ निर्वाचन की प्रक्रिया के दौरान पत्रकार-समाज में घटित होने वाले परिणामों पर ही फोकस करना ज्यादा जरूरी है. बताते चलें कि लोकसभा मध्य-अवधि चुनाव में सत्ताधारी पार्टी ने जमकर पत्रकारों को सम्मान-निधि या यूं कहें एक प्रकार का ऐसा सेवा के बदले पारितोषिक या फिर मिलने वाले विज्ञापन की राशि को पत्रकार समाज में वितरित उनका हिस्सा देना अथवा निम्न-भाषा में कहा जाए घूस दिया जाता रहा है. मुझे याद है कि कभी यह सम्मान-निधि, पत्रकार-वार्ता पश्चात सांसद श्रीमती राजेशनंदनी द्वारा भोज के बाद दिए गए दक्षिणा की तरह तब लिफाफे में 500/- उपहार स्वरूप सभी पत्रकारों को एक होटल में दिया गया. किंतु अखबारी-माफिया के दलाल जो इसकी भाषा को नहीं समझ पाए, इसे घूस के रूप में देखते हुए बिफर पड़े, की हम बड़े अखबार के दलाल हैं इसलिए ज्यादा घूस हमारा हक है..? इस नजरिए से उसे अखबार में प्रकाशित कर दिया था. जिसकी आलोचना और प्रत्यआलोचना भी हुई.

 माफिया ने किया हाई-जैक  
उसका कारण था कि यह एक आवश्यकता है, क्योंकि अखबार-माफिया अपने जमीनी-पत्रकारों को मोहताज बना कर रखा है और वर्तमान परिवेश में तो वह मीडिया-मैनेजमेंट के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपए का सीधा विज्ञापन पार्टी मुख्यालयों से सौदा कर लेता है. जिसका एक रुपए भी शायद कोई अखबार-माफिया अपनी जमीनी रिपोर्टरों को देता हो...? जो नाममात्र की वेतन दे रहा है उससे हटकर दिया जाने वाला बोनस निर्वाचन-उत्सव में विशेष अधिकार है. जो पत्रकारों को बांटना चाहिए. किंतु ऐसा नहीं होता. क्योंकि अखबार-माफिया और राजनीतिक-माफिया आपस में मिलकर लोकतंत्र के निर्वाचन-निधि का पक्षपातपूर्ण बंटवारा कर लेते हैं. जमीनी पत्रकारों के हकों पर डाका डालते हैं. जिसका परिणाम यह होता है कि जमीनी-पत्रकारों को दी जाने वाली  चुनावी-सम्मान-निधि इलेक्शन-अर्जेंट के 24 घंटा मानसिक-श्रम का अधिकार होता है और यह सम्मान निधि अपारदर्शी तरीके से होने के कारण, अच्छे किस्म की राजनीति ना होने से जमीन में यह बदनाम-मुन्नी की तरह राजनीतिक कचरे के रूप में अपात्र-नेताओं के कारण दुरुपयोग होता है.

नेताओं के इर्द-गिर्द समाज , मूल-समाचार पहुंचाने का दायित्व भटका...?
उदाहरणार्थ शहडोल संभाग में विधानसभा चुनाव के दौरान हाल में सम्मान-निधि के दुरुपयोग-वितरण से पत्रकारिता-समाज को अपमानित करने का भी काम हुआ है. दोनों ही राजनीतिक दलों में स्थानीय-राजनेता पैदा ना होने से अप्रवासी; बिहारी (बिहार निवासी,माफिया-नुमा) नेताओं का बोलबाला रहा और दोनों ही पार्टियों में सम्मान-निधि का अपने-अपने व्यवसायिक साझेदार को संतुष्ट करने का कोरम पूरा किया गया. जिससे पत्रकार-समाज के लोग जो निर्वाचन प्रक्रिया के दौर में प्रतिपल की खबर जनता तक पहुंचाने का कार्य करते थे, उनका पूरा समय इन मूर्ख-नेताओं के इर्द-गिर्द गुजरता देखा गया. मूल समाचार पहुंचाने का दायित्व भटक गया...?
 यह प्रदूषित हो गई राजनीति का परिणाम रहा. जबकि वास्तव में इस प्रकार की सम्मान निधि, सेवा के बदले परितोष या कहें दिया जाने वाला बोनस के अलावा कुछ भी नहीं है. जो उसे उसके हक के रूप में उसके कार्य स्थल पर प्राप्त होना चाहिए. अथवा अक्सर जैसा होता है किसी पत्रकार वार्ता में पूरे सम्मान के साथ दिया जाना चाहिए. जैसे किसी साहित्यकार को, किसी सम्मान में नारियल का फल अथवा साल का या टीका लगा कर किया जाता है. क्योंकि पत्रकार-समाज जैसा भी है, वह अपने सेवा के बदले अधिकार चाहता ही है. यह लोकतंत्र की नैतिक जिम्मेवारी भी है.
 यह आश्चर्यजनक है की विधायिका, कार्यपालिका ने निर्वाचन-प्रक्रिया के दौरान अपने सेवकों के लिए विशेष-फंड के जरिए निर्वाचन-जागरूकता का कार्य करते हैं. प्रशासकीय क्षेत्र मे स्वीप-प्लान व विधायिका में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करोड़ों रुपए फंडिंग होती है. इसमें कोई शक नहीं की पहली बार कई दशकों बाद सरकारी नजर में पत्रकार-समाज की लिस्टिंग हुई है. और यदि लिस्टेड-पत्रकार भी इलेक्श-अर्जेंट, सेवा के बदले अपना  परितोष नहीं प्राप्त करते तो  यह लोकतांत्रिक-निर्वाचन-प्रक्रिया का चतुर्थ स्तंभ में सर्वाधिक प्रदूषण-कारी कृत्य है.

इलेक्शन-अर्जेंट, विशेष-फंड; 

क्यों ना, मीडिया का हिसाब जमा करावे, आयोग..?

इसे और मजबूत और पारदर्शी इस तरह किया जाना चाहिए, जमीनी पत्रकारों को उनका हक सुनिश्चित तरीके से प्राप्त हो सके. एक तरीका यह भी हो सकता है कि निर्वाचन-आयोग निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान प्राप्त विज्ञापनओं की प्राप्त आय-व्यय लेखा पत्रकार जगत से उसी प्रकार जमा करने को कहे जैसा प्रत्याशी से हिसाब मांगा जाता है, ताकि सुनिश्चित हो सके की जमीनी स्तर पर अखबार- क्या आय का वितरण कर पाया..? अथवा वह राजनीतिक माफिया के साथ मिलकर लोकतंत्र के सम्मान निधि को निर्वाचन में प्रदूषण फैलाने का काम किया...?  किंतु यह चुनाव-आचार संहिता की तरह ही व्यावहारिक विषय है. जो फिलहाल तो बहुत कम दिखता है किंतु नहीं हो सकता, ऐसा भी नहीं है. कभी माना जाता था, चुनावी शोरगुल और प्रदूषणकारी प्रचार-प्रक्रिया हमारे चुनाव में असंभव सी समस्या है. किंतु चुनाव आयुक्त ने कुछ इस प्रकार से उसे लागू कर दिखाया कि दिल्ली में बैठकर किस प्रकार शहडोल के किसी दूर अंचल गांव में किसी की दीवार पर बिना उसके अनुमति के चुनावी प्रचार, लिखा-पढ़ी या पोस्टर,बैनर नहीं लगाया जा सकता है. जो काफी कुछ हुआ भी. यह अलग बात है कि बाद में इसमें ढिलाई हो गई.


 क्योंकि पत्रकारिता 7 दशक बीत जाने के बाद भी अभी तक जमीनी स्थित पर लोकतंत्र के परिपक्व-पत्रकारिता से मोहताज है.यह स्थिति आज पत्रकार-समाज के अगुआ कहे जाने वाले अखबारी-लोगों ने जानबूझकर बना रखी है. ठीक वैसे ही जैसे विधायिका या कार्यपालिका के लोगों ने अपनी योग्यता की गुणवत्ता का दुरुपयोग लोकतंत्र को चलाने में किया है. यह अलग बात है की प्रदूषित विधायिका व कार्यपालिका के कारण कोई मोदी या विजय माल्या या इसके जैसे लोग लोकतंत्र की पूंजी को लेकर लोकतंत्र के साथ ही गद्दारी का काम करते हैं. य तो कारपोरेट-जगत के लिए योजनाएं बनाते हैं, जो देखने में जनहित का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन मूल उद्देश कारपोरेट-जगत की गुलामी को सिद्ध करते हैं.
यह इसलिए होता है क्योंकि देश की आजादी के पहले जिस पत्रकारिता के सहारे महात्मा गांधी व अन्य लोग आजाद देश बना पाए वह पत्रकारिता, जमीनी हालात पर पारदर्शी स्वतंत्रता के लिए मोहताज हैं. उसमें गुणवत्ता का निर्माण इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि माफिया बना बैठा विधायिका, कार्यपालिका ने पत्रकारिता के लिए इमानदारी से कोई काम नहीं किया. सिर्फ तुष्टीकरण के अलावा.  जिसके कारण आजादी के बाद पत्रकारिता दब गई और अखबार-माफिया या मीडिया-माफिया खड़ा हो गया. जो हर 5 साल में चुनाव को हो-हल्ले में खत्म करने का काम करता है. और मूल-मुद्दे जस-के-तस शोषणकारी व्यवस्था में छुप जाते हैं।

           लोकतंत्रके लिए गंगा...,

     भारतीय-पत्रकारिता में पनप रहे प्रदूषण 

       तो---. आशा किया जाना चाहिए,  लोकतंत्र के लिए गंगा-नदी की तरह बहने वाली भारतीय-पत्रकारिता में पनप रहे प्रदूषण और  बदनाम-मुन्नी को नचाना बंद किया जाए अन्यथा मतदान के जरिए जमीन से परिपक्व नेता निकालने का काम एक ढकोसला के अलावा और कुछ नहीं रह जाएगा जो लोकतंत्र के मुखिया के निर्माण में कभी गुणवत्तापूर्ण भूमिका अदा नहीं करेंगे.


 अन्यथा.. लोकतंत्र, चलती का नाम... गाड़ी, चल ही रही है...

भारतीय संसद महामारी कोविड और कैंसर का खतरे मे.....: उपराष्ट्रपति

  मुंबई उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड की माने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के  राम राज्य में और अमृतकाल के दौर में गुजर रही भारतीय लोकतंत्र का सं...