शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

फिर ढह रही किरर घाटी ... (त्रिलोकीनाथ)

लावारिस पड़ी विंध्य-मेंकल पर्वत श्रेणियां

आखिर क्यों धसक रहा है...?

अमरकंटक का पहाड़

                                   ( त्रिलोकीनाथ )

करीब बीस साल यानी दो दशक होने को आए मध्यप्रदेश में  भारतीय जनता पार्टी के शासन को जब 21वीं सदी में संभवत है पहले पहल भगवावेषधारी उमाभारती फायर ब्रांड लीडर के रूप में मुख्यमंत्री बनी तो अमरकंटक को तीर्थ नगरी का दर्जा दे दिया गया। और बाद में इसी अमरकंटक में नर्मदा जी की किनारे राजनीत की बड़ी महफिल सजा कर उन्होंने आर एस एस और अब पिघल चुके भाजपा के तब के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को चुनौती भी दी थी ।खुद के साथ गद्दारी होने के एवज में।

 बहराल फिर हर साल मध्यप्रदेश में विकास की रफ्तार लगातार तेज होती चली गई और इतनी तेज की नर्मदा उत्सव के नाम पर भारत के प्रधानमंत्री भी अमरकंटक आकर कृपा किए और सुखद नर्मदा का सपना दिखाया था। फिर सवाल उठता है कि भारत की हृदय रेखा कही जाने वाली नर्मदा के मूल स्रोत अमरकंटक का विकास अखिर किस क्रम में हुआ, की बीते साल किरर घाटी में भूस्खलन से महीनों सड़क बंद रहा। मानो हम हिमालय में रह रहे हैं।

 करोड़ों रुपए लगाकर इसे फिर से खोला गया अब कलेक्टर अनूपपुर का नया संदेश  प्रेस विज्ञप्ति में


विकास की सर्वोच्चता में चमक रहा है। रीवा-अमरकंटक मार्ग  का राजेंद्रग्राम अमरकंटक मार्ग स्थित किरर घाट में भारी वर्षा के कारण लगभग सायं किरर घाट मार्ग पर भू स्खलन होने से भारी पत्थर गिरने के कारण, मार्ग का आवागमन आंशिक रूप से बाधित हुआ है। निरंतर भारी वर्षा हो रही है। इस कारण अनुपपुर से किरर घाट होते हुए  राजेंद्र ग्राम जाने वाले रास्ते को आज रात्रि 6जुलाई 2022  के लिए बंद किया जाता है। अनुपपुर से बैहर घाट होते हुए राजेंद्रग्राम आने वाला रास्ता आवागमन हेतु जनता को उपलब्ध रहेगा।

 तो सवाल उठना जायज है; उठाना भी जायज है यह अलग बात है इस सवाल को हिंदुत्व की भाजपा सरकार के करीब दो दशक के शासन ने इस आदिवासी अंचल के महत्वपूर्ण केंद्र जो संविधान की पांचवी अनुसूची में संरक्षित भी है उसका पहाड़ किरर घाटी आखिर क्यों भसक (ढह) रहा है...?

 


कह सकते हैं विकास की रफ्तार में पहली शर्त क्षेत्रीय पर्यावरण परिस्थितिकी की विनाश से प्रारंभ होता है इसलिए अमरकंटक की किरर घाटी ढह रही है। तो जीवनदायिनी केंद्र का स्रोत अमरकंटक क्षेत्र के

पर्वतमाला याने विंध्याचल पर्वत क्षेत्र को संरक्षित  अगर दो दशक में विकास के पैमाने तय करने की तरीके समझ में नहीं आए हैं तो भाजपा की या आर एस एस को इस आदिवासी अंचल में क्षेत्रीय पर्यावरण और परिस्थितिकी को बचाने की कोई समझ नहीं है , प्रमाणित होता है। यही हाल विकास की अंधाधुंध रफ्तार में गुजरात इंडिया कंपनी के लोगों के हवाले कर दी। पूरी भौतिक संपदा को कैसे बचाया जाएगा यह बड़ा प्रश्न है। जो भाजपा के अंदर ही उठना चाहिए क्योंकि आर एस एस के पास ही ठेका है कि वह है बौद्धिक विभाग में इसका चिंतन कर सकती है क्योंकि कांग्रेसमें या दूसरी पार्टी में अपनी-अपनी कबीले बाजी के कारण चिंतन मनन की फुर्सत ही नहीं है और ना ही कोई ऐसा प्रकोष्ठ निर्धारित है जो इन समस्याओं को केंद्रित होकर रिपोर्ट कर सके।

 यह सही है कि कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह ने कोई लंबी दूर दृष्टि के कारण ही शहडोल संभाग  के इसी अमरकंटक में इंदिरा गांधी आदिवासी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी किंतु वह भी पतित राजनीत का केंद्र बनता जा रहा है। कोई भी एरा-गैरा वहां पर पदस्थ हो जाता है। और फिर सत्ता के राजनीत की एजेंसी के रूप में काम करता दिखता है । क्योंकि अगर राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों और छात्रों के बीच अभी तक यह चिंतन प्रकट नहीं हुआ है या फिर अनुसंधान/पीएचडी नहीं की गई है कि कौन से सुझाव अमरकंटक विंध्य मैकल पर्वत श्रेणी के इस आदिवासी अंचल को बचा कर रख सकती है ।

तो कोई अर्थ नहीं अमरकंटक विश्वविद्यालय  भी अग्निवीर पैदा करने का एक मामूली सा इंस्टिट्यूट संस्था बनकर रह गया है।तो सवाल उठता है कि कौन जिम्मेदार है जो इस क्षेत्र के परिणाम उपस्थित को सुरक्षित करेगा।

 प्रशासनिक दृष्टिकोण से पर्यावरण के लिए शहडोल में प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय खोला गया है उसमें भी विलासिता इस कदर है कि इसका अधिकारी मेहरा सात पर्दे के अंदर अपनी अजीबका रूपी नौकरी को पकोड़ा तलने के रोजगार में बदल दिया है। विभाग में छटनी कर कर्मचारियों को खत्म किया जा रहा है।

 यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि आखिर हमारे राजनेता क्या कर रहे हैं...?

 जबकि इसी किरर घाटी के नीचे से लंबे समय तक सांसद बनते रहे हैं चाहे वह कांग्रेस के दलवीर सिंह ,भाजपा के दलपत सिंह ,ज्ञान सिंह ,राजेश नंदिनी सिंह अथवा उनकी पुत्री हिमाद्री सिंह इनके होने पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है ..? कि इन्होंने पर्यावरण संरक्षण के लिए अपनी कौन सी भूमिका अदा की। अथवा इनके लिए भी सांसद पद सिर्फ पकोड़ा तलने का रोजगार मात्र है। क्योंकि राजनीतिक रूप से भी चिंतन मनन लगभग शून्य  रहा है तो फिर कौन इसकी चौकीदारी करेगा ....?किसे जवाबदेह ठहराया जाएगा...? जब नर्मदा घाटियां भरभरा कर टूटती चली जाएंगी। क्योंकि हाल का अनुभव बताता है कि कोल ब्लॉक हो चाहे रिलायंस सीबीएम प्रोजेक्ट या फिर खनिज उद्योग की अंधाधुंध सरकारी नीतियों के तहत हो रही लूट को गिरोह की तरह सरकारी संरक्षण में खुला शोषण कर रही हैं। संबंधित क्षेत्र चाहे शहडोल हो अनूपपुर हो या उमरिया जिला इनके खनिज अधिकारी सिर्फ एक गुलाम की तरह माफियाओं के हित में काम कर रहे हैं। जिन्होंने ठेकेदार का नकाब ओढ़ रखा है।

 क्योंकि सिर्फ गौण खनिज में वह कोई 100- 200 करोड़ पर हर साल कानूनी और गैर कानूनी तौर पर सरकार को राजस्व कम घूस ज्यादा देते दिखाई दिखते हैं। और ऊपरी घूस इन खनिज अधिकारियों की निजी जागीर होती है। कभी किसी ने तलाशने का प्रयास नहीं किया कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार खनिज विभाग के कौन से मुट्ठी भर चपरासी से लेकर अधिकारी तक के अधिकारी कितने करोड़ रुपए के कहां पर मालिक हैं ।

सुनने में तो यह भी आता है कि विदेशों में शहडोल संभाग के खनिज अधिकारियों का निवेश है ऐसे में विंध्य पर्वत श्रृंखला टूट कर हर साल गिर रहा है या ढह रहा है और कलेक्टर सिर्फ उस रास्ते को बंद कर अपनी जिम्मेदारी तथा कर्तव्य निष्ठा और संविधान के प्रति कसम खाने की योग्यता का प्रदर्शन करते हैं।


 तब तो प्रश्न उठते ही रहेंगे अन्यथा संबंधित कलेक्टर और इस पर विश्वविद्यालय के विद्वान प्रोफेसर के साथ या फिर लोकज्ञानि समाज के तमाम पर्यावरणविद के साथ गहन अध्ययन मनन करना चाहिए कि आखिर विकास की हम कौन सी रफ्तार पर चल पड़े हैं जिसके कारण नर्मदा सोन और तमाम अन्य नदी नालों का अस्तित्व दांव पर लग गया है।

 हो सकता है हम शहडोल के गए गुजरे पिछड़े और दलित प्रकार के पत्रकार हैं जिन्हें यह जानकारी साझा करने में ब्यूरोक्रेट्स और विधायिका के लोग उपयुक्त ना समझते हो फिर भी अगर कोई अमरकंटक पर्वत श्रृंखला के हित सोच पर कोई काम हुआ है तो उसका सत्य दिखना भी चाहिए । हर बार कोई कलेक्टर सड़क के रास्ते बंद कर दें यह प्रमाण पत्र नहीं हो सकता।

 तो देखना होगा कि हमारा पतन हमारे लोकतंत्र का पतन किस तरह इस उच्च मापदंड रूपी अमरकंटक पर्वत श्रेणियों के ढहने से पतित होता है। और यह भी हमें देखना ही चाहिए क्योंकि जब हम अपने जीवनदायिनी के मूल स्रोत को विकास के नाम पर हत्या करने का ठान लेते हैं तब भी अगर ऐसे प्रश्न नहीं उठते तो समझना चाहिए कि हम मानव नहीं सिर्फ कीड़े मकोड़े हैं जो इन पर्वत श्रेणियों का खून चूसने का काम करते हैं। तो देखते हैं कि क्या करोड़ों रुपए तनखाह उठाने वाला सिस्टम ढहते पर्वतों को रोक सकता है....?




1 टिप्पणी:

  1. भाई त्रिलोकी, लगता कि पूरे मनोयोग से यह लेख लिखा है। यद्यपि में आप से बड़ा हूं फिर भी मैं व्यक्तिगत तौर पर दिल से नमन करता हूं।
    एक बार मैं पहले भी बोला था कि इतना बड़ा आलेख ना लिखकर कुछ छोटा कर दिया करो ताकि लोग बाग ध्यान से पढ़ें और सोचे

    फिर भी धन्यवाद

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