100 साल पहले..............
उस निर्जीव देह की तरह है" -
महात्मा गांधी
मेरा यह कहना नहीं है कि हम शेष दुनिया से बच कर रहे हैं। यह अपने आसपास दीवारें खड़ी करने यह तो मेरे विचारों से बड़ी दूर भटक जाना है। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि पहले हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें, उसे आत्मसात करें दूसरी संस्कृतियों के सम्मान की उनकी विशेषताओं को समझने और स्वीकार करने के बात उसके बाद ही आ सकती है । उसके पहले कभी नहीं। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि हमारी संस्कृति में जैसी मूल्यवान निधियां हैं वैसे ही किसी दूसरी संस्कृति में नहीं है। हमने उसे पहचाना नहीं है; हमें उसके अध्ययन का तिरस्कार करना, उसके गुणों की कम कीमत करना सिखाया गया है। अपने आचरण में उसका व्यवहार करना तो हमने लगभग छोड़ ही दिया है ।आचार को बिना कोरा ज्ञान उस निर्जीव देह की तरह है जिसे मसाला भर पर सुरक्षित रखा जाता है। वह शायद देखने में अच्छा लग सकता है किंतु उसमें प्रेरणा देने की शक्ति नहीं होती है।
मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति को सीखूं, ग्रहण करूं और उसके अनुसार चलूं; अपनी संस्कृति से विच्छिन्न होकर हम एक समाज के रूप में मानो आत्महत्या कर लेंगे। किंतु समाज ही वह मुझे दूसरों की संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें तुच्छ समझने से भी रोकता है। ( "यंग इंडिया" 1 सितंबर 1921)
वह उन विविध संस्कृतियों के समन्वय का पोषक है जो इस देश में सुस्थिर हो गई हैं जिन्होंने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है और जो खुद भी इस भूमि के वातावरण से प्रभावित हुई हैं। जैसा की स्वाभाविक है वह समन्वय स्वदेशी ढंग का होगा अर्थात उसने प्रदेश संस्कृति को अपना उचित स्थान प्राप्त होगा ।वह अमरीकी ढंग का नहीं होगा जिसमें कोई एक प्रमुख संस्कृति बाकी सबको पचा डालती है। और जिसका उद्देश्य सुमेल साधना नहीं बल्कि और जबरदस्ती लादी जाने वाली एकता का निर्माण करना है।
( यंग इंडिया 17 नवंबर 1920)
हमारे समय की भारतीय संस्कृति अभी निर्माण की अवस्था में है हम लोगों में से कई उन सारी संस्कृतियों का एक सुंदर सा मिश्रण रखने का प्रयत्न कर रहे हैं जो आज आपस में लड़की दिखाई देती हैं ऐसी कोई भी संस्कृति जो सब से बच कर रहना चाहती हो जीवित नहीं रह सकती भारत में आज शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या यहां बाहर से आए थे और यहां के मूल निवासी ने उसका विरोध किया था इस सवाल में मुझे ज्यादा दिलचस्पी नहीं है जिस बात में मेरी दिलचस्पी है वह यह है कि मेरे अति प्राचीन पूर्वज एक दूसरे के साथ पूरी आजादी से घुल मिल गए थे हम उनकी वर्तमान संतान उस मेल का ही परिणाम है अपनी जन्म भूमि का और इस पृथ्वी माता का जो हमारा पोषण करती है हम कोई हित कर रहे हैं या उस पर बोझ रूप में हैं यह तो भविष्य ही बताएगा | ( हरिजन 9 मई 1936)
मूर्ति पूजा के बारे में महात्मा गांधी के विचार थे कि हम सब मूर्तिपूजक हैं अपने आध्यात्मिक विकास के लिए और ईश्वर में अपने विश्वास को धारण करने के लिए हमें मंदिरों मस्जिदों गिरजाघर आदि की जरूरत महसूस होती है अपने मन में ईश्वर के प्रति भक्ति भाव प्रेरित करने के लिए कुछ लोगों को पत्थर या धातु की मूर्तियां चाहिए कुछ पौधे दिखाइए तो कुछ को किताब यह तस्वीर चाहिए यंग इंडिया 28 अगस्त दो 1924 मंदिर मस्जिद गिरजाघर ईश्वर के इन विभिन्न निवास स्थानों में कोई फर्क नहीं पड़ता मनुष्य की श्रद्धा ने उसका निर्माण किया है उसने उन्हें जो माना है वहीं पे हैं वे मनुष्य को किसी तरह अदृश्य शक्ति तक पहुंचाने की आकांक्षा के परिणाम है ( हरिजन -18 मार्च 1933)
मेरे ख्याल से मूर्ति पूजा और मूर्ति भंजक शब्दों का जो सच्चा अर्थ है उस अर्थ में मैं दोनों ही हूं मैं मूर्तिपूजक की भावना की कद्र करता हूं इसका मानव जाति के उत्थान में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग रहता है और मैं चाहूंगा कि मुझ में हमारे देश को पवित्र करने वाले हजारों पावन दे वालों की रक्षा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का सामर्थ्य हो मैं मूर्ति भंजक इस अर्थ में हूं कि कट्टरता के रूप में मूर्ति पूजा अशोक शुरू प्रचलित है उसे मैं तोड़ता हूं ऐसी कट्टरता रखने वालों को अपने ही ढंग के सिवा और किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा करने में कोई अच्छाई नजर नहीं आती मूर्ति पूजा का यह रूप अधिक होने के कारण पूजा के ठोस और स्थल रूप से अधिक घातक है जिसमें ईश्वर को पत्थर के एक छोटे से टुकड़े के साथ या सोने की मूर्ति के साथ एक समझ लिया जाता है| ( यंग इंडिया 28 अगस्त 1924)
जब हम किसी पुस्तक को पवित्र समझकर उसका आदर करते हैं तो हम मूर्ति की पूजा ही करते हैं पवित्रता पूजा के भाव से मंदिरों या मस्जिदों में जाने का यही अर्थ है लेकिन इन सब बातों से मुझे कोई हानि नहीं दिखाई देती उल्टे मनुष्य की बुद्धि सीमित है इसलिए वह कुछ कर ही नहीं सकता ऐसी हालत में | (यंग इंडिया -26 सितंबर 1929)
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