कोरोना की मौत मर,
किसी ने नहीं रोका आपको....
(त्रिलोकीनाथ)
हमारी विधायिका अधिकचरी ,अनपढ़-जमात, अर्ध-विकसित समाज का भी आईना है...,बावजूद लोक ज्ञान के मंथन से निकलकर आने के कारण उसे संविधान प्राथमिकता देता है। प्राथमिकता का अर्थ कभी यह नहीं समझना चाहिए की दूसरी पंक्ति या महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति जो अभिव्यक्ति ना दे सका हो, वह निशब्द बना रहे जाए । उसे इसी प्रकार से संविधान विशेषज्ञों ने रचा है।
यह सोच कर की पवित्र मंशा के लोग विधायिका के जरिए लोकतंत्र का सकारात्मक निर्माण करेंगे; इसलिए उसकी हर गलती को चाहे उसमें हमारे आदिवासी क्षेत्र शहडोल से कथित तौर पर कानपुर की जन्मी अनूपपुर क्षेत्र की निवासी तथा अनूपपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक और अब मिली-जुली सरकार के मंत्री बिसाहूलाल सिंह की सोच से
किंतु इससे यह साबित नहीं होता कि जनप्रतिनिधि अंतिम निर्णय होता है शायद इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय या फिर न्यायपालिका को संविधान ने चिंतन मंथन और संविधान सम्मत लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए न्यायपालिका का निर्माण किया । इस हालत में ठीक उसी प्रकार से जैसे नेता कुछ भी कह कर उसे सच बनाने का प्रयास करता है, किसी बैंकिंग प्रणाली के प्रतिनिधि को अपनी धूर्तता पूर्ण बातों से लोकतंत्र को आहत करने का काम नहीं करना चाहिए था, जो काम बैंकर पारीक ने करने का प्रयास किया ।
यह कैसे संभव है की जब पूरी दुनिया में आग लगी हो कोरोनावायरस के नाम की और भारत भी उसमें जल रहा हो, जब लोग मर रहे हो.., बैंकर पारीक को सांस लेने के लिए अंतरिक्ष से अलग पाइपलाइन की ऑक्सीजन मिल जाए....? जो उन्होंने धृष्टता पूर्ण तरीके से पाने का प्रयास किया ।
यह ठीक है कि हमारी वित्तीय संरचना हमें स्वस्थ रखती है किंतु अगर गंगा प्रदूषण हो ही जाए तो कोई प्राकृतिक घटना ही उसे पवित्र करती है। जैसे कोरोनावायरस का हमला नदियों के लिए वरदान बना हमारी वित्तीय कार्य प्रणाली ,बैंकिंग कार्यप्रणाली सिर्फ एक सूदखोर की तरह भारत में लोगों का खून चूस रही है ,यदि यही सच है...? और यही होना चाहिए तो महाजनों और सूदखोरों को संविधान ने हथकड़ी क्यों पहना दी...? याने उन्हें प्रतिबंधित क्यों कर दिया। क्योंकि उसमें लोकतंत्र का लोकहित विलुप्त हो रहा था, या हो गया था ।
कोरोनावायरस के 3 महीने के दौरान हमारे बैंकर्स अपनी कल्याणकारी सोच को सतह सामने आकर लोकहित में कोई कदम नहीं उठाए....?
वह खतरनाक सूदखोर की तरह बैंक की कि किस्त भरने के लिए ब्याज पर ब्याज का ऑफर उसी तरह दे रहे थे। किक उच्च प्रशासनिक अधिकारी का यह दर्द भी हमनेे सुना वे कोई मनरेगाा की मजदूर नहीं थे।
जैसे बीमा कंपनियों के लिए कोरोनावायरस वरदान की तरह है विज्ञापन का कारण बन रहा था।, जैसे जब पूरी दुनिया मर जाएगी तो बीमा कंपनी वाले क्लेम भुगतान के लिए अंतरिक्ष में मरे हुए लोगों को ढूंढ कर उनका भुगतान करेंगे...., कुछ इस तरह का दावा उनके विज्ञापन से उजागर हो रहा था। बैंकर पारीक ने इसी बीमा कंपनी की तरह एक बेहतरीन सूदखोर के नाते जिस धूर्तता पूर्ण तरीके से न्यायपालिका पर प्रश्न खड़ा करने का काम किया है वह किसी तानाशाह के "राजा की पिलई" की तरह एक गंदा व्यवहार है।, जो कहीं गरीब के आटे में पेशाब कर देती है ।
संविधान की सर्वोच्च लोकतांत्रिक न्यायपालिका पर भी ..? और यह बात सभी बैंकर्स को बार बार सोचना चाहिए कि आपके परिवार में प्रभावित कोई भी कोरोनावायरस का मरीज आपको मर जाने के लिए पर्याप्त कारण है। पूरा भारत आपका परिवार क्यों नहीं है...? बैंकर्स के कल्याणकारी कार्यक्रम अगर जनशक्ति के आर्थिक विकास से और ब्याज से दिन दूना रात चौगुना लूट और डकैती का कारण बन गए तो फिर जनशक्ति की कमजोर तंत्र को ठीक करने की जिम्मेदारी बैंकर्स की क्यों नहीं होनी चाहिए...?
यह तो सोची समझी षड्यंत्र पूर्ण अलोकतांत्रिक , लोकहित के विरुद्ध बैंकर पारीक कर दिया गंदा प्रयास है जिसकी कड़ी निंदा होनी चाहिए.., उन्हें सलाह भी मिलनी चाहिए कि आप लोकतंत्र में सांस ले रहे हैं साहब..,
लोकतंत्र जीवित है इसलिए वित्तीय संस्थाएं जीवित हैं अन्यथा लोकतंत्र को लूटने की बजाए किसी पूंजीवादी राष्ट्र में जाकर कोरोना की मौत मर जाइए किसी ने नहीं रोका आपको..
एक तो आपने सोचा नहीं अगर न्यायपालिका सोच रही है तो आप गाली देने का काम कर रहे हैं शर्म आनी चाहिए आपको.....
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