हिंदी पत्रकारिता दिवस की विडंबना...
पिंजरे के पंछी रे..,
तेरा दर्द न जाने कोय..
अंतिम पंक्ति के अंतिम पत्रकार
(त्रिलोकीनाथ)
वैसे तो पूरे भारत में ही ऐसा हुआ होगा किंतु जहां हम देख रहे हैं मध्य प्रदेश में पत्रकार अधिमान्यता जिला स्तर अधिमान्यता के प्रसाद वितरण का काम जिस अंदाज पर हुआ है। उससे यह सिद्ध होता है कि पत्रकारिता के इस महत्वपूर्ण स्तंभ में विधायिका और कार्यपालिका मिलकर अधिमान्यता को "गरीबी रेखा की सूची" की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। जिसमें कोई भी कहीं से भी घुस सकता है और पत्रकार के रूप में पत्रकार के हिस्से का यदि शासन ने कोई सोच बना रखी है तो, उसे वह लूटना चाहता है।
विधायिका और कार्यपालिका भी यह सोचती है की सूची में उसके अपने गुलाम जितने ज्यादा रहेंगे उतना ही पत्रकारिता को नियंत्रित करने का काम उसके लिए आसान रहेगा। और इसका परिणाम नरेंद्र मोदी जी की भाषा में देखें तो महाभारत के युद्ध से भी ज्यादा संघर्ष साली को रोना कार्यकाल में जमीनी पत्रकारों की बर्बाद हालात की बातों को रखने वाला एक भी पत्रकार शासन के दरवाजे की कॉल बेल को नहीं खटखटाया..., जिसकी बात सुनी गई हो । की पत्रकार भी मनोवैज्ञानिक दबाव में रहकर काम करने वाला प्राणी है उसके भी परिवार है पेट है और एक दिमाग भी ... जिसका अपना खुराक है .. क्योंकि प्रशासन ने उपयोग तो खूब किया किंतु कोविड-19 से बचने के लिए सुरक्षा कवच भी नहीं दिया राहत तो बहुत दूर की बात है ..।
इस तरह उसने भी अधिमान्यता को गरीबी रेखा की सूची से ज्यादा शायद ज्यादा महत्व नहीं दिया। और यही कारण है कम से कम मध्यप्रदेश में पत्रकारअधिमान्य से संबंधित जब आप जिला स्तर के साइट खोलेंगे तो दुर्भाग्य से या सौभाग्य से अंग्रेजी क्रम में "ए" होने के कारण अनूपपुर जिला सबसे पहले दिखता है और इसके साथ दिखता है तीन प्रथम अधिमान्य पत्रकार किंतु भारत के किसी भी कोने के किसी भी विषय खुद अनूपपुर के किसी गांव के विषय पर पर यदि इन तीनों अधिमान्य पत्रकारों को कोई एक विशेष दे दिया जाए जिसमें वे एक आलेख लिख दे और कोई एक जांच विशेषज्ञ इनकी जांच कर ले अगर इन बैगा जनजाति मान करके भी वह पास करता है तो कम से कम मुझे व्यक्तिगत रूप में उतनी ही खुशी होगी जितनी की भारत की आजादी के वक्त देश के शीर्ष नेताओं को ही रही होगी। क्योंकि आजादी एक उपलब्धि है, जीवन पद्धति है संघर्ष का आंशिक परिणाम भी है ; पूर्ण परिणाम तो नहीं है।
किंतु क्या हम 15 अगस्त 1947 के बाद पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते हैं उसमें एक कदम भी जी हां, खरगोश का नहीं कछुए का एक कदम चल पाए हैं... शायद नहीं..। यही मेरे लिए भारतीय पत्रकारिता की "अंतिम पंक्ति के अंतिम पत्रकार की पहचान है.. बचा कुचा भारत की 21वीं सदी में 2020 के तथाकथित कोरोना के महाभारत युद्ध के परिणाम के दौरान या युद्ध के दौरान पत्रकारों को अपने पैर की जूती के तले कुचलती हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने हमें जड़ से हिला दिया है... बावजूद इसके जब प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी ने मार्च में जनता कर्फ्यू लगाने की बात की शुरुआत की थी तब भी पत्रकारिता के अदृश्य महत्व को दृष्टांत करके अपनी बात रखी थी। इस हालात में विश्व मे हिंदी पत्रकारिता दिवस भारत के लिए, मध्यप्रदेश के लिए और शहडोल के लिए सिर्फ एक "वैलेंटाइन डे" की तरह है. जिसमें कुछ लोग उड़ान का ख्वाब देखते हैं तो कुछ प्रताड़ना और अत्याचार का बाजार.... हम इन दोनों में से कुछ नहीं देखना चाहते...
सिर्फ पत्रकारिता और उसके सतत संघर्ष की आजादी की आशा करते हैं जो अब धीरे-धीरे स्लो-प्वाइजन देकर मारी जा रही है.. यदि भारत की आजादी में न्यायपालिका जैसा स्तंभ का निर्माण नहीं होता तो शायद 21वीं सदी की भी जरूरत नहीं पड़ती मरने के लिए या मारने के लिए...। मंगलम , शुभम...।
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