गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

श्रमिक दिवस पर विशेष/ दिहाड़ी पत्रकार सिर्फ एक मजदूर .......( त्रिलोकीनाथ)

श्रमिक दिवस पर विशेष 


दिहाड़ी पत्रकार सिर्फ एक मजदूर
कोविड-19 के आपातकाल पर मजदूरों को श्रद्धांजलि

उद्योगों की राह छोड़
 क्रांति की कल्पना

भारतीय मजदूरों का  भयानक सपना 
(त्रिलोकीनाथ)
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में सड़क सुरक्षा घेरे के अंदर बैठे हुए  सत्ताधीश , चाहे वे राजनेता हो या कार्यपालिका के लोग अथवा न्यायपालिका से संबंधित कोई भी कर्मचारी अधिकारी उसने मजदूरों के अधिकारों का बीते 1 महीने से ज्यादा समय से लगातार हनन मात्र किया है.... वर्तमान में जो हो भी रहा है वह भी एक प्रकार का अज्ञात संख्या में शोषण और दमन की गाथा 1 महीने से ज्यादा समय से लिखी जा रही है।

कोरी भाषण बाजी , शोषण और दमन की प्रक्रिया के दौरान इस "जनता कर्फ्यू" में कुल कितने मजदूर मजबूर श्रमिक की हत्या हो गई, कितनों को जंगल में जानवरों ने खा लिया, कितने घायल हैं... यह संख्या तो लाखों में है। इसका कोई हिसाब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत नहीं दे सकता।
 क्योंकि यही 2020 के "मई दिवस" का सबसे बड़ा कड़वा सच है... ।
 आज का यह लेख उन सभी श्रमिकों की स्मृतियों में विनम्र श्रद्धांजलि है जिन्होंने वायरस से तो नहीं किंतु डराकर, दमन कर शोषण कर शासन पर विश्वास रखने वाले लोगों से एक बड़ी जंग लड़ी है। ऐसे सहित सभी शहीदों का यह अभिनंदन भी है।
 शायद मुट्ठी भर मीसाबंदी कार्यकर्ताओं को कुछ महीने आपातकाल में रहने के कारण उन्हें कम से कम मध्यप्रदेश में तो करोड़ों रुपए हर माह क्षतिपूर्ति के रूप में बांटा जाता है.... जो उनके मृत्यु तक और उसके बाद उनकी पत्नियों को भी मिलेगा.. किंतु जो मजदूर इस भयानक कोविड-19 के आपातकाल में नकली वातावरण में शहीद हो गए हैं.... उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला। ऐसे सभी शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि और उनके परिवारों की कुशलता के लिए हम ईश्वर से कामना करते हैं

 आज 1 मई को मजदूर दिवस  है किंतु भारत में अमीरों द्वारा आयात करके  भारत में  लाए गए  और फिर फैलाए गए कोरोनावायरस कोविड-19  की वर्तमान परिस्थिति से मजदूर दिवस  सिर्फ एक  उपहास मात्र है....
 क्या उद्देश्य  था मजदूर दिवस का हम जाने  की किसी भी समाज, देश, संस्था और उद्योग में मज़दूरों, कामगारों और मेहनतकशों की अहम भूमिका होती है। उन की बड़ी संख्या इस की कामयाबी के लिए हाथों, अक्ल-इल्म और तनदेही के साथ जुटी होती है। किसी भी उद्योग में कामयाबी के लिए मालिक, सरमाया, कामगार और सरकार अहम धड़े होते हैं। कामगारों के बिना कोई भी औद्योगिक ढांचा खड़ा नहीं रह सकता। 
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस या मई दिन मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है जब अमेरिका की मज़दूर यूनियनों नें काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेमार्केट में बम धमाका हुआ था। यह बम किस ने फेंका किसी का कोई पता नहीं। इसके निष्कर्ष के तौर पर पुलिस ने मज़दूरों पर गोली चला दी और सात मज़दूर मार दिए। "भरोसेमंद गवाहों ने तस्दीक की कि पिस्तौलों की सभी फलैशें गली के केंद्र की तरफ से आईं जहाँ पुलिस खड़ी थी और भीड़ की तरफ़ से एक भी फ्लैश नहीं आई। इस से भी आगे वाली बात, प्राथमिक अखबारी रिपोर्टों में भीड़ की तरफ से गोलीबारी का कोई ज़िक्र नहीं। मौके पर एक टेलीग्राफ खंबा गोलियों के साथ हुई छेद से पुर हुआ था, जो सभी की सभी पुलिस वाले तरफ़ से आईं थीं। चाहे इन घटनाओं का अमेरिका पर एकदम कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा था लेकिन कुछ समय के बाद अमेरिका में 8 घंटे काम करने का समय निश्चित कर दिया गया था। मौजूदा समय भारत और अन्य मुल्कों में मज़दूरों के 8 घंटे  आंदोलन, अराजकतावादियोंसमाजवादियों, तथा साम्यवादियों द्वारा समर्थित यह दिवस हर वर्ष उसी तरह मनाया जाने लगा है जैसे भारत में ठीक दशहरे को दशहरा उत्सव या तो राम की जीत में अथवा रावण की हार में मनाया जाता है।

 ठीक इसी तरह 2020 का मई दिवस एक उत्सव की खानापूर्ति मात्र है।
 मजदूर दिवस में हमें उन सभी श्रमिकों की मृत्यु को, उनके दमन को और शोषण को याद करना चाहिए जिन्होंने शासन चलाने की अराजक कार्यप्रणाली के चलते हाल में नोटबंदी के कारण, एक नकली आपातकाल मैं कई लोग शहीद हो गए.... यह दूसरा दौर है  सिर्फ मानव वध के लिए तथाकथित तौर पर आर्थिक साम्राज्यवाद विस्तार के लिए बुहान के किसी लैब से कोरोनावायरस कोविड-19 को साम्यवादी सरकार ने ही इसे विकसित किया है।
 ...ऐसा कहा जाता है यह भारत नहीं आता, अगर इसे भारत के अमीरों, नवधनाढ्य भ्रष्ट राज्य सत्ता के साथ षडयंत्र कर भारत में इसे आयात नहीं करते।
 इतिहास गवाह है सर्वप्रथम स्वयं भारत में पहली बार केरल राज्य में 28 जनवरी को कोविड-19 के मरीज चर्चित हुए थे... और उसे केरल राज्य ने अपनी कुशलता के कारण नियंत्रित भी कर लिया था। कोविड-19 को जानने और समझने के लिए 25 मार्च "जनता कर्फ्यू" लागू होने के पहले तक 2 माह का बड़ा अवसर भारतीय लोकतंत्र के पास रहा। किंतु हमारा लोकतंत्र भी शायद 100 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों के हित को लेकर सोचने की बजाय गलत नीतियों के कारण, गंदी राजनीति, घटिया प्रबंधन, भगवान भरोसे चलने वाली मदहोश सत्ता के कारण पूरे भारत को अपनी मातृभूमि मानकर काम करने वाला श्रमिक वर्ग, तथाकथित "जनता-कर्फ्यू" का शिकार हो गया। 
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहने के लिए कई बार जनता से रूबरू हुए किंतु इस आपातकाल में ज्ञात और अज्ञात नियमित रूप से शोषित, दमित और मृत्यु हो रहे करोड़ों की संख्या में मजदूरों के हित में कोई रोड मैप तैयार नहीं कर पाए।
जैसा कि उन्होंने हवाई जहाज से कोरोना मरीजों को आयात करते वक्त चिंतित दिख रहे थे...?, मध्यप्रदेश के हालात, तो  नंगे नाच की तरह सिर्फ कोठा बनकर रह गया था। जो इस भयानक  कोरोनावायरस के आक्रमण के दौरान  मनोरंजन बन गया था।
 तब  की कांग्रेस की अविवेकसाली लोगों के कबीलाई राजनीति मे चाहे जितना पिछड़ापन रहा हो किंतु उन्होंने प्रमाणित रुप से अपने विधानसभा में कोरोनावायरस के हमले का जिक्र किया.... और उसी का बहाना लेकर अपने सत्ता को बचाने का काम किया... किंतु वाह रे दिल्ली की सुप्रीम कोर्ट की

न्यायपालिका, जो "कोरोनावायरस शब्द" की गंभीरता को "डिकोड" नहीं कर सकी। और भ्रष्ट सत्ता का एक हिस्सा बनकर मात्र रह गई देखती रही।
 आज जिस सोशल डिस्टेंसिंग को पूरी दुनिया भारत के रूप में मॉडल मान रही है जब तक मध्य प्रदेश का सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ क्या  केरल, क्या राजस्थान और क्या दिल्ली और क्या भोपाल पूरा लोकतंत्र का चरित्र पर्दाफाश होता रहा..... उससे ज्यादा और गंदा काम तब हुआ जब एकमात्र मुख्यमंत्री पद का शपथ दिलाकर  मार्च मैं एक माह बाद अप्रैल तक कोई भी मंत्रिमंडल नहीं बना.....
 मध्य प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्रालय लगभग बेहोश था क्योंकि उसे चलाने वाला हमला स्वयं कोरोनावायरस का शिकार हो गया था। मारे भय के पूरा सिस्टम बंद कांच के कमरों में सुरक्षा के घेरे पर चूहों  की तरह अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित दिखा ।यह भी एक कड़वा सत्य है।
 और पूरे भारत में लाखों करोड़ मज़दूर कि  अपने और अपने परिवार की जीवन बचाने के लिए आपात मृत्यु  शोषण और दमन का इतिहास प्रतिपल लिखा जाने लगा.... आज तक अकेले मध्यप्रदेश में करीब सवा सौ से ज्यादा मजदूर घटिया राजनीति के शिकार हो गए....  मृत हो गए।
 किसी भी प्रकार का कोई मुआवजा राहत इन परिवारों को अभी तक घोषित नहीं हुआ है। जो जिम्मेदार वर्ग है जो इन मजदूरों की वोट की बदौलत फर्श से अर्श तक करोड़ों अरबों के आसामी बन गए। वही इन मजदूरों की मौत के कारण हैं।
 शायद ही कोई न्यायपालिका में जाकर इन मजदूरों की हत्या की क्षतिपूर्ति का मांग याचना करेगा.....?, सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेकर क्या कोई न्याय करेगी....? फिलहाल तो ऐसा कुछ होता नहीं दिखता.....जो लोकतंत्र के जीवित कर हो सकता है, न्यायपालिका मे न्यायाधीश के स्वयं के संज्ञान के रूप में जनरेट हो जाएं  ...?
.आज 1 मई को हमें यह कामना करनी चाहिए शायद ईश्वर उन्हें यह ज्ञान दे।


 आज 1 मई को मजदूर दिवस  है किंतु भारत में अमीरों द्वारा आयात करके  भारत में  लाए गए  और फिर फैलाए गए कोरोनावायरस कोविड-19  की वर्तमान परिस्थिति से मजदूर दिवस  सिर्फ एक  उपहास मात्र है।
 क्या उद्देश्य  था मजदूर दिवस का हम जाने  की किसी भी समाज, देश, संस्था और उद्योग में मज़दूरों, कामगारों और मेहनतकशों की अहम भूमिका होती है। उन की बड़ी संख्या इस की कामयाबी के लिए हाथों, अक्ल-इल्म और तनदेही के साथ जुटी होती है। किसी भी उद्योग में कामयाबी के लिए मालिक, सरमाया, कामगार और सरकार अहम धड़े होते हैं। कामगारों के बिना कोई भी औद्योगिक ढांचा खड़ा नहीं रह सकता।

 भारत के लोकतंत्र में दिखने वाले तीन तंत्र तो हैं जो आजादी के बाद अपना बुनियादी ढांचा बना सके। किंतु भारत की आजादी के पहले से उसका हमराह रहा भारत की पत्रकारिता का क्यों की कोई बुनियादी ढांचा नहीं है.....? इसलिए हमारे प्रधानमंत्री इस कोविड-19 महामारी में भी पत्रकारिता की ताकत का तो उपयोग वह करना चाहते हैं किंतु जहां राहत की बात आती है वह जमीनी दिहाड़ी मजदूर पत्रकार को पहचानते ही नहीं.. ऐसा लगता है?
 उनके एक भी भाषण में पत्रकारों को राहत देने की बात, उनकी कल्पना में भी नहीं दिखता..... यही हालात मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का है जब तक नरोत्तम मिश्रा मंत्री नहीं बने थे शायद धोखे से उन्होंने जमीनी पत्रकारों को कोविड-19 में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के समतुल्य बीमा और राहत देने की सोच प्रकट की थी, किंतु जैसे ही मंत्री बने वे भी कर्तव्यनिष्ठ राजनीतिज्ञ की तरह मूकबधिर हो गए। अभी तक भी उनकी दया दृष्टि किसी भगवान की तरह ना तो अपने मुख्यमंत्री को समझा पाए और ना ही स्वयं को, कि मध्य प्रदेश का आम पत्रकार जो लगातार इस खोज खबर में कि कोविड-19 के संघर्ष में उसकी क्या भूमिका है..... बीते 7 दशक से भारत में जो मजाक किया है पत्रकारिता के साथ उन्हें क्या राहत दिया जाए....? कोई योजना दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती है।
 यह भारतीय दिहाड़ी पत्रकार मजदूर की वह सच्चाई है जो कोविड-19 में प्रतिपल शोषित दमित और मृत हो रहे भारतीय मजदूरों की है। जो भी पत्रकार वर्तमान परिस्थितियों को स्वीकार करके स्वयं को राजभाट व
 गुलाम पत्रकारिता बनाने के प्रयास में अपनी राह चुनी है वास्तव में वे उस भारतीय पत्रकारिता के गद्दार भी हैं। जिन्होंने भारत की आजादी में अपने खून से पत्रकारिता को सींचा था। जोकि उनकी उस मनोवैज्ञानिक सोच के आवरण में जन्मी थी जो उस वक्त भी दिहाड़ी मजदूर रही होगी। किंतु आज की मजबूर-मजदूर और गुलाम मजदूरी नहीं थी।
 क्या भारत की आजादी के बाद भारतीय पत्रकारिता ने अपने लिए अपनी बुनियादी ढांचा के लिए यही कल्पना की थी...?, शायद नहीं...। किंतु आज वह शोषण और दमनकारी उन शक्तियों के साथ खड़े हैं जो भारत के हजारों  मजदूरो  के मरने लिए जिम्मेदार हैं...।
 आप कुछ नहीं कर सकते तो उनकी आवाज बन कर उन्हें श्रद्धांजलि दे ही सकते हैं। शायद जब आप अपनी रक्षा कर पाएंगे..... तब मजदूरों की आवाज स्वत: बन जाएंगे। किंतु क्या वर्तमान लोकतंत्र में आपमें बोलने और सोचने का साहस जीवित भी है.....?,
 यह चिंता की बात है और यही एक दिहाड़ी मजदूर होने के नाते मई दिवस पर हम मजदूरों के आईने में पड़ी धुंध को साफ कर सकते हैं ताकि लोकतंत्र के तीन स्तंभ विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका यह देख सके...., कि उनका लोकतंत्र भारतीय मजदूरों कि किस प्रकार से हत्या किया.....? क्या उन्हें क्षतिपूर्ति की मांग का हक है....?
 अगर इसकी गैरेंटी भारतीय पत्रकारिता नहीं दिला पा रही है और मजदूरों को यह सुरक्षा नहीं मिलती है तो निश्चित मानिए भारत का मजदूर अपने गांव में चाहे मर ही जाए अपनी मिट्टी में चाहे मिट जाए किंतु वह भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की लालच में फिर से वापस शहर की ओर, उद्योग पतियों की ओर नहीं लौटेगा.... यह एक अलग बात है की औद्योगीकरण की नई तकनीकी ने इन मजदूरों की अहमियत को कम किया है...।
 किंतु मजदूरों की दशा और दिशा अगर क्रांति की तरफ रास्ता चुनेगी तो उसकी कल्पना उन सत्ता देशों की कांच की दीवारों को ध्वस्त कर देगी, जिन पर बैठकर वे विलासिता की शासन पर अपनी गारंटी का सिक्का चला रहे हैं।
 आज मई दिवस में यही हमारी एक दिहाड़ी-मजदूर-पत्रकार होने के नाते पुष्पांजलि है। उन मृत श्रमिकों के लिए जो पैदल चलकर हजारों किलोमीटर इस युद्ध में अपनी जान गवा चुके हैं। हमारे प्रिय भारतीय नागरिक मजदूरों हम सात दशक बात भारतीय लोकतंत्र में इतना थक गए हैं कि इससे ज्यादा आपके लिए शायद कुछ नहीं लिख सकते..... मई दिवस की क्रांति आप सब में प्रज्वलित रहे....., यही शुभकामनाएं।

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