सफल रहा
भारत के दिल से दिल्ली तक और दिल्ली से दलदल बन चुके, बेंगलुरु तक भारत एक है , मध्यप्रदेश के लिए। क्योंकि मध्यप्रदेश में "कबीलाई राजनीति" के चलते "ऑपरेशन-लोटस" सफल हुआ है। राजनीति के कीचड़ में लोटस यानी कमल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को पीछे छोड़ते हुए ज्योतिरादित्य के हाथों में खिल रहा है।
कमलनाथ का
नहले पर दहला ...
कांग्रेस के "कमल-इंडस्ट्री" में शिवराज के निवेश पर कमल को भारी मुनाफा...
प्रश्न क्या है..?
कमलनाथ सरकार गिर गई या
शिवराज सिंह की सरकार आ रही...?
सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी या
भा ज पा जॉइन कर रहे हैं ...?
दिग्विजय राज्यसभा के सांसद होंगे या फिर ज्योतिरादित्य केंद्रीय मंत्री या प्रदेश में मुख्यमंत्री.....?
कमलनाथ कहते रहे गए माफिया ने रचा षड्यंत्र सरकार गिराने का...
( त्रिलोकीनाथ )
तब राजनीति केे चाणक्य कुंवर अर्जुन सिंह कि राजनीति का दबदबा था, उस वक्त मध्यप्रदेश में कांग्रेस की शख्सियत बन रहे तब के मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह शहडोल जिले के तमाम नेताओं में कूटनीति का जमकर प्रयोग किया अर्जुन सिंह के खासम खास रहे दलवीर सिंह का दबदबा खत्म करने के लिए बिसाहू लाल को अपना नेता बनाया। हालांकि यह प्रयोग बुंदेलखंड में सिंधिया के यहां भी होता रहा। किंतु माधवराव सिंधिया की शख्सियत के सामने वे टिक नहीं पाए और कांग्रेस से माधवराव को तमाम मतआंतर के बावजूद भी तोड़ पाना एक मुश्किल काम था।
कुछ समय के लिए "विकास-कांग्रेश" बनाकर माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस से अपनी नाराजगी जरूर जाहिर की थी, किंतु पुनः वे कांग्रेस ने विलय होकर कांग्रेस पार्टी मे एकाकार हुए। किंतु कांग्रेस हाईकमान ने माधवराव सिंधिया की राजनीति को समझने में देर कर दी और देरी कुछ इस कदर बढ़ गई कि ना तो उनके पुत्र सिंधिया ने कांग्रेस को अपनाया और ना ही कांग्रेस ने सिंधिया को।
क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया, श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया है। और उन्हें "कबीलाई-राजनीति" कभी पसंद नहीं रही।
अब इसमें सफलता ज्योतिरादित्य की है या दिग्विजय सिंह की इसको समझना जरा टेढ़ी खीर है। क्योंकि दिग्विजय सिंह कूटनीति के खिलाड़ी हैं औरज्योतिरादित्य राजनीति के।
मध्यप्रदेश में राजनीति तीन टुकड़े में है सिंधिया, दिग्विजय, कमल इसमें दिग्विजय सिंह और कमलनाथ दोनों ही श्रीमंत सिंधिया के सामने बेहतर तरीके से टिक नहीं पाते इसलिए दोनों एक ही हैं। ऐसा मानना चाहिए।तब एक और टुकड़ा राजनीति का विंध्य प्रदेश से संचालित होता था कुंवर अर्जुन सिंह का। कहना चाहिए पूरी राजनीति ही अर्जुन सिंह की राजनीति से संचालित होती थी। किंतु सिंधिया के सामने वह भी तटस्थ हो जाते थे। बदले कालखंड में परिस्थितियां ऐसी बनी नरसिम्हा राव जी के कार्यकाल में केंद्र की कांग्रेस पर स्वयं को स्थापित करने के लिए कांग्रेस से अलग होना पड़ा। सिंधिया ने "विकास कॉन्ग्रेस" तो अर्जुन सिंह जी ने " कांग्रेस तिवारी" बनाई किंतु जैसे ही गांधी परिवार पुनः बलशाली हुआ वह एक हो गए। बावजूद इसके दोनों कांग्रेश के प्रति समर्पित थे। क्योंकि कांग्रेस ही उनका आधार रहा।
बदली की परिस्थिति में ज्योतिरादित्य ने ग्वालियर-बुंदेलखंड से बाहर ना तो अपना सिक्का चलाने का प्रयास किया और ना ही उन्हें ऐसा करने दिया गया। दिखाने के लिए कांग्रेस विंध्य, मालवा, महाकौशल आदि आदि रूप थे किंतु वास्तव में प्रदेश की राजनीति दो धुरी पर काम कर रही थी। सिंधिया और दिग्विजय कमल की आदिवासी नेतृत्व इन्हीं धुरी पर आश्रित था ।और यही कारण था कि जब मंत्रिमंडल का बंटवारा हुआ कमलनाथ सरकार में तो वरिष्ठ आदिवासी नेता होने के बावजूद भी बिसाहूलाल रोते-बिलखते रह गए किंतु दिग्विजय सिंह ने उनके लिए कोई हरी झंडी नहीं दिखाई। उनके हिस्से का बड़ा भाग कहीं अन्य चला गया। सब जानते हैं कहां चला गया।
अपमान का यह घूंट देर से ही सही बिसाहूलाल के समझ में आया और वे वक्त आने पर तीर्थयात्रा जाने का निर्णय ले लिया, लौट के बेखौफ स्पष्ट तौर पर कह भी दिया कि "हां, मैं नाराज हूं। क्योंकि मेरा सम्मान नहीं हुआ"
इसमें प्रश्न चिन्ह लग सकते हैं कि वे स्वयं कह रहे थे अथवा दिग्गी राजा के इशारे पर कठपुतली बोल रही थी। क्योंकि मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी शिवराज सिंह के नेतृत्व में अगर है तब तो भाजपा की सरकार बनना चाहिए। अगर शिवराज की अनदेखी हुई तो कमलनाथ की सरकार का गठन होना लाजिमी था। क्योंकि दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन नहीं सकते थे और सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाया जाना एक खतरनाक खेल था।
अब सवा साल बाद परिवर्तन की बयार है सीटें कम है.... आदतन सिंधिया के क्षेत्र में ओरछा के "रामराजा का बड़ा महोत्सव" में सिंधिया का कितना योगदान है अथवा महत्व है भी या नहीं, वह तो सिंधिया ही बता सकते हैं।
किंतु सिंधिया के नेतृत्व में "ओरछा का रामराजा महोत्सव नहीं हो रहा था", इसमें कोई राज नहीं है। यह एक प्रकार का राम के नाम पर सिंधिया के क्षेत्र में हस्तक्षेप था "छोटी सी प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष" पद पर भी सिंधिया को बर्दाश्त नहीं किया जा रहा था। क्योंकि शिवराज ने कहा था "माफ करो महाराज...."
तो क्या कमलनाथ की सरकार के पीछे शिवराज का अहम योगदान था ... ?
जो भी हो कांग्रेस की कबीलाई राजनीति में सिंधिया रोड़ा बन रहे थे। और खुद सिंधिया को भी लग रहा था कि बिना राज्य सत्ता के राजनीति कैसी...?
क्योंकि "कबीलाई राजनीति" के हिस्सा कभी नहीं रहे.. इस प्रकार मध्य प्रदेश से राज्यसभा की सीटों का निर्धारण मेें सुरक्षित एकमात्र सीट के लिए राजनीतिक खेल तय होना था।
"सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे" इस लाइन पर "ऑपरेशन लोटस" का निर्माण हुआ। लोटस यानी कमल यह फोटो ज्योतिरादित्य सिंधिया की हाथ में पेपर लिखे हुए तमाम परिस्थितियों का बखान करता है( हालांकि वर्तमान झूठे और मक्कारी के फेक न्यूज़ बनाने और चलाने वाले जमाने में यह कह पाना भी मुश्किल है की ज्योतिरादित्य के हाथ में जो पेपर से उस पर कमल चुनाव चिन्ह और ऑपरेशन लोटस वास्तव में है भी या नहीं अथवा इसे भ्रम फैलाने के लिए झूठ का कारोबार करने वाले लोगों ने बनाकर प्रस्तुत किया है हम इसकी पुष्टि नहीं करते हैं कि यह पेपर मैं दर्ज कमल और ऑपरेशन लोटस एक सच है )। दिग्विजय और ज्योतिरादित्य की मुलाकात के बाद संभवत है ऑपरेशन लोटस की स्क्रिप्ट पहले लिखी जा चुकी थी या बाद में इस पर विवाद हो सकता है। किंतु इस पर कोई विवाद नहीं था की एक सुरक्षित राज्यसभा की सीट पर दो तलवार यानी दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया नहीं रह सकते।
शायद माधवराव सिंधिया की तरह ज्योतिरादित्य में वह धैर्यता नहीं है.... जो संघर्ष की राजनीत की मांग करती है। अतः "स्क्रिप्ट स्टेटजी" के पार्ट-वन में दिग्विजय खेमे के लोग बेंगलुरु या दिल्ली तीर्थ यात्रा अथवा अपनी निजी यात्रा पर चले गए। किंतु विश्वसनीयता का अभाव 19 विधायकों बेंगलुरु यात्रियों को यात्रा करने से रोक दिया और जैसे ही छह-सात यात्री टुकड़े-टुकड़े में वापस लौटने लगे तो 19 विधायकों का एक पूरा पलटन तीन चार्टर्ड प्लेन में सवार होकर बेंगलुरु पहुंचा दिया गया। आखिर महाराजा, महाराजा होता है। श्रीमंत सिंधिया का कदम उनके स्तर पर उठा और "चट-मंगनी, पट-ब्याह" के तर्ज पर भाजपा में स्वागत के वृंदगान होने लगे...
इससे यह तय हो गया कि श्रीमंत भी सुरक्षित और कमलनाथ की दिग्विजय यात्रा भी सुरक्षित... सत्ता की राजनीति में जो बलिवेदी पर आहुति के रूप में चढ़े नरोत्तम मिश्रा को छापामारी और संजय पाठक को छापेमारी और हत्या का डर सताने लगा... भारतीय जनता पार्टी न छोड़ने की कसमें खाई गई ।
हम बाबासाहेब आंबेडकर की तथाकथित "संविधान में लिखें पांचवी अनुसूची के शामिल जिलों में आदिवासी क्षेत्र के रहने वाले लोग भी गुनगुना रहे थे.....
"हमरो बिसाहू हिरानो है..., ये दईया मिले बता दइओ"
इस प्रकार बिसाहूलाल भी तीर्थयात्रा करके लौट आए... साफ-साफ कहा कि "हां, हम भी नाराज हैं" और जैसे ही स्क्रिप्ट स्टडी में पिक्चर साफ हुई मध्यप्रदेश कांग्रेसका वरिष्ठ आदिवासी नेता बिसाहू लाल सिंह पहले कर्तव्यनिष्ठ विधायक रहे जिन्होंने पूरी निष्ठा के साथ इस्तीफा दिय.. और शिवराज की राग में राग मिलाया।
तो कह सकते हैं कि शिवराज सरकार दिग्विजय के कमल-इंडस्ट्री में जो भी निवेश किया, राजनीति का अथवा किसी का भी... वह भारी मुनाफे का सौदा रहा। क्योंकि अब ऊपर वालों को भी अंदाजा तो हो ही गया है की सवा साल भाजपा को त्याग करना पड़ा।
बिना शिवराज के राज नहीं चलने वाला क्योंकि शिवराज ही भाजपा की यात्रा का दिग्विजय तय करेंगे....
वही कमल खिलाएंगे ...।
तो बंधुओं यही है धंधा....
घनघोर वैश्विक मंदी में घनघोर मुनाफे का कारोबार....
आज और अभी इतना ही, कल का कल देखेंगे.....
और अंत में.....कमलनाथ का
नहले पर दहला ...
किंतु यह लिखते-लिखते हैं... खबर आ गई कि मध्यावधि चुनाव भी कमलनाथ करा कर अपनी राजनीतिक शैली का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करेंगे....
होली की पुनः शुभकामनायें..
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