छोटी मुंह बड़ी बात
एक और "हार की जीत....."
एक और "हार की जीत....."
या "जीत का हार...."
तो दाग अच्छे हैं.....
कैसे रंजन बने मनोरंजन....
( त्रिलोकीनाथ )
इसके बावजूद भी कि पहले भी न्यायपालिका के लोगों को राजनीति ठगा है किसी को राज्यपाल तो किसी को कुछ बनाया।
हालांकि पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने स्पष्ट किया है कि वह शपथ लेने के बाद इस पर स्पष्टीकरण देंगे की राज्यसभा की सदस्यता उन्होंने क्यों स्वीकारी...? यह तर्क और कुतर्क का विषय सामग्री राजनीति का प्रोपेगंडा है.....और राजनीतिज्ञ अक्सर ऐसी बातें करते रहते हैं।
बेहद सादगी का जीवन जीने वाले प्रचारित माननीय मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय पद पर प्रदर्शन किसी भी व्यक्ति को और अगर वह रंजन गोगोई हैं तो और विशेष रूप से उन्हें बार-बार यह सोचना चाहिए की कहानी "हार की जीत" हमें क्या संदेश देती है...।
हो सकता है बचपन में उन्होंने न पढ़ा हो, किंतु हम लोगों ने इस कहानी का सारांश जब परीक्षा में प्रश्न आते थे तो उत्तर समझ कर लिखने में पसीने छूट जाते थे ।यह मिडिल स्कूल तक की शिक्षा का अपमान भी है न सिर्फ न्यायपालिका का ।
कहानी में कुल अर्थ इतना है कि कैसे जब डाकू खड़क सिंह ने बाबा भारती के बेहद आकर्षक घोड़े को उनसे छीनने के लिए याचक की भूमिका अदा करके राहगीर बनते हुए स्वांग रचा और जैसे ही बाबा भारती ने (मेरे भारत की जनता ने) रंजन गोगोई को ख्वाबों की दुनिया में बेहद ईमानदार और नैतिक मूल्य वाला व्यक्ति चुनकर अपने शानदार सफेद घोड़े पर सवार करा दिया, रंजन गोगोई अब घोड़ा लेकर डाकू खड़क सिंह की तरह भागते नजर आ रहे हैं.... यही आरोप अन्य न्यायाधीश जो उनके समकक्ष रहे अब उन पर लगा रहे हैं। हम सब तो भारत की जनता हैं..., मूर्खता की गारंटी पर पूरा जीवन निछावर करते हैं ।क्योंकि बुद्धिमत्ता का पेटेंट पढ़ा-लिखा समाज खासतौर से उच्च पदों पर कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका में बैठा है उसके पास है, इसके बाद कि जब भारत की न्यायपालिका का सर्वोच्च पदाधिकारी करीब साढेसात सौ संसदीय सदस्यों में एक कठपुतली बनकर किसी उंगली के इशारे पर नाचेगा, उसे माननीय न्यायमूर्ति के पद पर बैठे व्यक्ति की कल्पना के रूप में हम कैसे मूर्त रूप देख सकेंगे...?
भारत की सांस्कृतिक विरासत में और धर्म में करोड़ों मूर्तियों का आकार और प्रकार उनके ज्ञान और स्वरूप के आधार पर बना है, शायद इसी तर्ज पर यह लोक ज्ञान प्रकट करता है शनि ग्रह अथवा शनि देवता का आकार और प्रकार क्या है, वह किस पक्षी पर अपनी सवारी करता है और उसकी दृष्टि ही पर्याप्त है आप को उच्चतम या पतन का कारण बनाने में अगर आप उसके सीधे प्रभाव में है, यही नहीं ढैया या साढ़ेसाती में है... अथवा कहना चाहिए सनी की कोर्ट में हैं, तो तय है कि आपको न्याय मिलेगा। क्योंकि वह न्यायाधीश कहलाते हैं। अन्य अन्य देवता जैसे धर्मराज आदि का भी आकार प्रकार है ऐसे ही आकार प्रकार की मूर्तियां हम अपने आसपास के गड़े हुए लोगों में देखते हैं ।किंतु जब कोई उच्चतम न्यायालय के शीर्ष पद पर बैठ जाता है वहां से उसका पतन, मूर्तियों का टूटना कहलाता है... मूर्तियां खंडित होती हैं और पुनः यह चिंतन निर्मित होता है कि क्या न्यायपालिका सही दिशा पर है....? अथवा हमारी पूंजीवादी व्यवस्था न्यायपालिका को कुचल कर रखती है, उसका स्वरूप छोटा या बड़ा हो सकता है।
रंजन गोगोई पर प्रश्न इसलिए भी उठेंगे कि उन्होंने मूल्यों का जीवन बताने का काम किया था, बावजूद इसके कि जब उनके चरित्र पर दाग लगे थे, तो लोगों ने उन्हें उनके मूल्यों की तुलना में शायद नजरअंदाज किया.... राजनीति पर कठपुतली बनने की दिशा में आगे बढ़ गए हैं तो यहां तो "दाग अच्छे ही हैं..." कहकर लोग गर्व करते हैं। यह वह समाज है जिससे न्यायपालिका को बचना चाहिए।
ऐसा एक पत्रकार होने के नाते मेरा बड़ा दर्द भी है.... और एक छोटी सोच भी...। क्योंकि हमने जब आदिवासी क्षेत्र में लूट के कीड़े मकोड़े जन्म ले रहे थे जो आज माफिया डॉन हैं राजनीत में भी और व्यवसाय में भी तब हमारे लिए खिलवाड़ था या कहना चाहिए आज के डान तब हमारे अधीन थे हम से अपेक्षा रखते थे कि हम माफिया गिरी को चुने क्योंकि विकास यही है तब हमने पत्रकारिता का चयन किया था, तब पत्रकारिता में मूल्य थे.. इसके बावजूद कि बीते 70 साल में आज तक भारत में इस अज्ञात शक्ति "पत्रकारिता के चौथे स्तंभ" का कोई आकार- कोई प्रकार, कोई बुनियादी ढांचा स्थापित नहीं है... कृपा, दया, करुणा और मान्यता के आधार पर इसे लोकतंत्र ढो रहा है।, कुछ पूंजीपति शुरू से इसे अपनी जागीर समझ कर इसके मूल्यों को कुचल रहे थे, आज उन पूंजीपतियों की पकड़ कुछ बड़े माफियाओं के हाथ में है जिससे माफिया और पूंजीपति ने अपने "जूती के तले" जिस पत्रकारिता को दबा रखा है यानी चौथे स्तंभ को दबा रखा है उसका दवाब शहडोल जैसे भारत के लोकतंत्र में बनाए गए संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल क्षेत्र विशेष आदिवासी क्षेत्र में रहने वाले हम जैसे पत्रकार भी उस पूंजीपतियों माफिया के जूते के दबाव को महसूस करते हैं...
और खुले हवा में सांस लेने पर कष्ट महसूस होता है... किंतु यह कहकर संतोष कर लेते हैं, कि अगर दिल्ली गुलाम हो चुकी है, तो हम तो आदिवासी क्षेत्र के लोग हैं... इसलिए कहते हैं कि इस बात की गारंटी लोकतंत्र हमें नहीं देता था कि आप स्वतंत्र हैं... क्योंकि हमारा बुनियादी ढांचा, हमारी आर्थिक अजीबका, जीवन यापन की कार्यप्रणाली कभी भी भारत के लोकतंत्र ने सुनिश्चित नहीं किया।
हमारे बारे में धारणा थी कि इनका परिवार लूटखसोट कर अथवा किसी योगियों की तरह हवा खाकर और पानी पीकर जिंदा रहने वाला परिवार है...।
कभी सोचा नहीं गया कि सम्मान की जिंदगी जीने के लिए कौन से कानून सुनिश्चित किए जाएं...? जिससे "अंतिम पंक्ति पर रहने वाला अंतिम पत्रकार" को आजीविका की सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित हो। जिस हवा में वह लोकतंत्र के हित के बारे में सोच सकता हो...? क्योंकि यही धारणा थी, पत्रकारिता की । इसलिए हमारा दब जाना, कुचल जाना एक सहज प्रवृत्ति है।
यह तो माफिया की कृपा थी कि वह हमें जिंदा रखने के लिए जुठन फेंकता था.... जिसमें कुछ अच्छे लोग भी सहयोग करते थे शायद स्वतंत्र नागरिक होने के कर्तव्यनिष्ठा के कारण...?
किंतु न्यायपालिका का पूरे देश में शानदार बुनियादी ढांचा है, उनका अपना इंफ्रास्ट्रक्चर संगठन बेहद मजबूत है... जिसमें करोड़ों-अरबों रुपए उन्हें स्वतंत्र हवा में जीने की सुरक्षा और गारंटी देते हैं....जिसमे उनका अपना आंतरिक संघर्ष भी है, उन्हें सतत स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए। किंतु वह यह नहीं कह सकते कि वह भूखे पेट मरने वाले गुलाम हैं... अथवा हवा खाकर या फिर लूट खसौट जीवन जीने के लिए बाध्य है..., और ना ही किसी की कृपा अथवा दया के मोहताज.... क्योंकि उनका अपना स्वतंत्र आवरण और पर्यावरण है।
बावजूद इसके यदि कोई व्यवस्था किसी संत जैसा होने का दावा करने वाले किसी रंजन गोगोई को राज्यसभा की सदस्यता या इस सीढ़ी के जरिए उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति का सपना का लालच का टुकड़ा फैकती है तो यह है दुर्भाग्य जनक है.... और उससे ज्यादा यह कि उसे कोई "रंजन गोगोई" स्वीकार कर लेता है...
और शपथ लेने की गारंटी के बाद उस पर स्पष्टीकरण देने की बात भी करता है...
गोगोई साहब, अब तो आप मनोरंजन ही कर रहे हैं... आपका यह रंजन ही है.... आपके ऊपर लगा दाग अच्छा नहीं लग रहा है.... भलाई आप कितना भी गंगा में डुबकी मार मार कर यह प्रमाणित करें कि दाग अच्छे हैं.... दाग तो दाग है जरा बच के रहना... पूरी जीवन की कमाई इस दाग को मिटा देने पर लग जाएगी, फिर भी दाग नहीं मिटेगा..... यह गैरेंटी है।
हम जैसे माफियाओं में दवे कुचले पत्रकारों की आवाज भी... तो जरा बचके... यह अलग बात है कि यह बचना भी डूबते को तिनके का सहारा मात्र है...
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