😶सिर्फ आलोचना;
समालोचना भी नहीं..?
समालोचना भी नहीं..?
(त्रिलोकीनाथ)
सी ए ए , एनआरसी का जब बाजार गर्म हो, तब यह बात विचार में इसलिए आई क्योंकि मैंने बहुत ताकत लगाया अपने दिमाग पर तो जितना मुझे याद रहा उसमें मैं याद नहीं कर पा रहा हूं कि शहडोल में भारत के आजादी के बाद कितनी पार्टियों के संगठन में आदिवासी अध्यक्ष नियुक्त किए गए हैं......, जितनी मेरी सीमित जागरूकता की जानकारी है तो कांग्रेस पार्टी मैं बिसाहू लाल सिंह जो वर्तमान में विधायक हैं, उनको छोड़कर संगठन में अध्यक्ष किसी राजनीतिक दल ने, किसी पार्टी में बनाया हो मुझे याद नहीं आता। मैं बड़ी पार्टियों की बात कर रहा हूं ।यह इसलिए कि कांग्रेस पार्टी के अंदर भी यह कमी बरकरार है..(. कहते हैं कभी कांग्रेस का उपाध्यक्ष अनुसूचित जनजाति का होता था... कहते हैं।) जो आज एक अखबार में भाजपा के अध्यक्ष पद के दावेदार के रूप में जो चेहरे दिखाए गए उनकी आलोचना करते वक्त मुझे याद आया कि क्या हम भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र शहडोल जिले या शहडोल संभाग के निवासी हैं। जहां हमारे मताधिकार भारतीय कानून की व्यवस्था ने आदिवासी प्रतिनिधियों को देने के लिए विवश कर रखा है, कुछ ना कुछ संविधान निर्माताओं ने अगर बुद्धिमान रहे होंगे... तो जरूर सोचा रहा होगा की आदिवासी विशेष क्षेत्रों में आदिवासियों के नेतृत्व आ जाने से आदिवासी क्षेत्र उनकी सांस्कृतिक राष्ट्रवादीता और उन्हें मुख्यधारा में लाने का यही एकमात्र उपाय है.., तब मुख्य पदों पर आदिवासी नेतृत्व की अवहेलना क्या संविधान की अवमानना के दायरे में नहीं आता है....? या फिर संविधान की आड़ में सक्षम नेतृत्व को कमजोर करने के लिए गुलामों की फौज अथवा माफियाओं की फौज खड़ी कर के आदिवासी क्षेत्रों को लूटने और डाका डालने का अड्डा बना दिया गया है....? जहां संपूर्ण राजनीतिक चेतना बहुसंख्यक नागरिकों के अधिकार में ना देकर उन्हें देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक मुख्यधारा से हमेशा दूर रखकर गुलामी के कटघरे में खड़ा कर रखने कि माफिया गिरी ही राजनीति का उद्देश्य रह गया है..... यह बात इसलिए विचार में आती है क्योंकि जब हाल में हम देखते हैं कि शहडोल जैसे विशाल पुरातात्विक, आध्यात्मिक और प्राकृतिक संपदा से भरपूर संसाधनों को नष्ट करने की जब माफियाओं ने होड़ कर रखी है तब भी विधायिका के अधीन काम कर रहे लोक ज्ञान वाले आदिवासी जनप्रतिनिधियों के हाथों में नेतृत्व नहीं देकर, उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी से महरूम रखा जा रहा है.... हो सकता है उनकी अभिव्यक्ति दबी हो.., कुचली हो.. गलत हो या फिर बैकवर्ड हो....., या फिर विशेष बैकवर्ड हो, जैसे बैगा, भरिया जनजातियों की..... तो इन्हें ही अभिव्यक्त करने के लिए संविधान में संविधान-निर्माताओं ने आरक्षण का प्रावधान किया था और इन्हें समुचित विकास के लिए सुरक्षित, सुशिक्षित, बौद्धिक समाज के तालमेल का आश्वासन भी दिया था..... क्या उस आश्वासन में गैर आदिवासी समाज आदिवासियों के साथ गद्दारी करता नजर नहीं आता.......?
जब वह पार्टी संगठनों में उसे अध्यक्ष के रूप में अथवा महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदारी नहीं देता है... कम से कम पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में यह नैतिक जिम्मेदारी लगभग नहीं के बराबर दिखाई देती है। कांग्रेस पार्टी के कभी अध्यक्ष रहे बिसाहू लाल को अगर छोड़ दे तो।
यह बात इसलिए उठ कर भी आ रही है क्योंकि आज एक अखबार में जो चेहरे सामने आए उनकी आलोचना के पीछे यह भूमिका देना जरूरी था।
तो चलिए भाजपा संगठन जो 15 साल से शहडोल में सत्ता पर रहा और जिसने शहडोल के प्राकृतिक संसाधन में खुला डाका डालने का व्यवस्था बना दिया.... जिसे कांग्रेस पार्टी भी नहीं रोक पा रही है। यदि इस झूठी खबर पर विश्वास करें कि शहडोल कलेक्टर के पुलिस सुरक्षा व्यवस्था को पुलिस विभाग ने रेत माफिया के इशारे पर हटा दिया तो, प्रतियोगिता में पांचवी अनुसूची में आदिवासियों की सुरक्षा कितनी सुरक्षित है....? यह आज एक गर्म मुद्दा है, काश ऐसा ही हो कि यह खबर पूरी तरह से निराधार और झूठी बन जाए......?
अन्यथा शहडोल क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी के 15 साल की "फसल के पक" जाने का यह घटना सबसे बड़ा प्रमाण होगा ...क्योंकि 15 साल जिस माफिया राज ने भ्रष्टाचार की फसल बोई आदिवासी क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की, उसमें यदि प्रशासनिक अमला ही सुरक्षित नहीं है... तो संविधान में प्रदत्त पांचवी अनुसूचित क्षेत्र में "अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्तियों" की सुरक्षा की गारंटी कहीं टिकती ही नहीं है......
क्योंकि प्रतियोगिता माफियाओं की है .. वन माफिया कोल माफिया रेत माफिया गैस माफिया उद्योगपति माफिया आदि आदि और राजनीतिक दल प्रमुख माफिया के रूप में स्थापित है। क्योंकि वह मूल निवासियों की यानी सुरक्षा वनवासियों की, सम्मान कर पाने में उनसे सुरक्षा की भावना सीख पाने में असफल रहा है।
सेना का एक अधिकारी जो एक फर्जी मुठभेड़ सिर्फ इसलिए करा कर सफल होता है क्योंकि उसे प्रमोशन पाना होता है तो आदिवासी क्षेत्रों में जहां करोड़ों अरबों रुपए के प्राकृतिक संसाधन लूट के लिए छोड़ दिए गए हो...
"माफियातंत्र बनाम लोकतंत्र" का यह युद्ध भी "शुद्ध के लिए युद्ध" जैसा ही है....। तो भूमिका छोड़ें भाजपा प्रेरक पार्टी संगठनात्मक स्वरूप में सिर्फ आलोचना के पहलू को क्यों ना देखा जाए।
जिन पांच चेहरों के भरोसे आदिवासी क्षेत्र का उद्धार होना है उनमें एक पाकिस्तानमूल से आए भारतीय नागरिक हैं। दो बिहार मूल के हैं और दो स्थानी हैं जो आजादी के पहले शहडोल में बस गए थे। उसमें भी एक ठाकुर हैं, और एक ब्राह्मण..., खुलकर बात करें तो प्रकाश जगवानी जो पाकिस्तान मूल के हैं और डोली शर्मा जो बिहार मूल के हैं दोनों ही उस मोहनराम तालाब के भ्रष्टाचार में डुबकी लगा चुके हैं या फिर तत्कालीन व्यवस्था की गुलामी में ओतप्रोत चुके हैं और जिसका प्रमाण भी भ्रष्टाचार के प्रमाण पत्र के रूप में पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित है.... यह इनके संपूर्ण भ्रष्टाचार और प्रशासनिक योग्यता की दक्षता का बहुत छोटा सा प्रमाण है। विस्तार इनके आर्थिक संसाधन के आधुनिक स्वरूप को देखकर किया जा सकता है। तो दूसरी तरफ कमल प्रताप सिंह भी बिहार मूल के हैं और सरस्वती शिशु मंदिर शहडोल में पूरी सफलता के साथ स्थापित भी हैं। रही बात शहडोल के आजादी के पहले बसे गिरधर प्रताप सिंह जो कि ठाकुर हैं, आदिवासी नहीं और ब्राह्मण पंडित जी अनिल द्विवेदी तो है ही। इस प्रकार से इसमें ढूंढने पर भी मुझे इनकी प्रकृति में भी पांचवी अनुसूची के आदिवासियों की महक नहीं दिखाई देती.... आदिवासियों का दर्द, उनकी संवेदना और उनका नैसर्गिक विकास उनके प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उत्थान का समर्पण क्या इन गैर आदिवासी व्यक्तियों के सोच में इनके द्वारा संभव है....शायद नहीं ...?
अध्यक्ष पद पर इनकी दावेदारी किस हेतु की जा रही है क्या सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए, संगठन की मजबूती के लिए..? भारतीय जनता पार्टी के अंदर इसका कोई बात नहीं... कम से कम अध्यक्ष पद का तो बहुत महत्व नहीं है ।
क्योंकि हमने अनुभव में पाया है कि क्या अध्यक्ष, क्या पदाधिकारी ,क्या विधायक या सांसद और मंत्री भी कोई हैसियत नहीं रखते क्योंकि भाजपा के अंदर "संगठन मंत्री" जैसा रिमोट कंट्रोल इसे संचालित करता है ।अध्यक्ष पद को भी संचालित कर सकता है.... तो दिखाने के लिए ही सही..? पांचवी अनुसूची की मंशा के अनुरूप आदिवासी वर्ग के अध्यक्ष का निर्माण भारतीय जनता पार्टी क्यों नहीं कर सकती, उसके लिए तो सहज भी है.... क्योंकि संगठन मंत्री अंततः उसे नियंत्रित ही करता है । जिसके इच्छा के बिना पार्टी संगठन में "चिड़िया पर भी नहीं मार सकती" यह बात कांग्रेस पार्टी में इसलिए सहज नहीं है क्योंकि कांग्रेस पार्टी भाजपा जैसी अनुशासनिक संगठन नहीं है। वहां अध्यक्ष जी चाहे एकमात्र व्यक्ति हो... वहीं स्वत्ताअधिकारी होता है बाकी पदाधिकारी संघर्ष साली प्रतियोगिता धारी होते हैं.....
इसके बावजूद भी यह कांग्रेस पार्टी की उदारता रही कि वह बिसाहू लाल सिंह जैसे आदिवासी व्यक्तियों को कभी अध्यक्ष बनाया था। क्योंकि संविधान के पांचवी अनुसूची में आदिवासियों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाना एक सपना है, क्योंकि पांचवी अनुसूची में शामिल क्षेत्रों में आदिवासी मूल निवासियों को उनकी सोच, सहज विकास को उनके साथ चल कर आगे बढ़ना एक सपना था....
यह अलग बात है कि सपने अक्सर टूट भी जाते हैं.. किंतु किसी दार्शनिक ने कहा है कि अगर बड़े सपने नहीं देखेंगे तो बड़ा काम नहीं करेंगे... इसलिए भी कम से कम भाजपा की संगठन में किसी आदिवासी प्रवर्ग के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जाना एक अच्छा सपना हो सकता है.....
और यह सपना तब देखा जाना चाहिए जब गुलाम पालने की प्रवृत्ति अथवा माफिया राज से मुक्ति दिलाना खासतौर से आदिवासी क्षेत्रों में जहां कि भारत का संविधान संभावना देखता हो.....
आरक्षण के अवसरों पर भाजपा यह सपना क्या देख सकती है.... हां, वह देख सकती है..., क्योंकि उसका रिमोट कंट्रोल "संगठन मंत्री" हर जिले में उसे नियंत्रित करता है.. अगर सपना भयभीत होगा तो रिमोट कंट्रोल, "चैनल" बदल सकता है... अन्यथा आदिवासियों के साथ सहज संवाद और अध्यक्ष पद मूल निवासियों के साथ होना चाहिए..।
किसी पाकिस्तान मूलनिवासी, किसी बिहार मूलनिवासी अथवा गैर आदिवासी वर्ग के व्यक्ति के हाथों ही अध्यक्ष पद क्यों आरक्षित रहे...? यही आज की आलोचना का विषय है। सिर्फ आलोचना, कोई समालोचना नहीं..... क्योंकि इसमें गलती की संभावना नहीं रहती है और दृष्टिकोण साफ सुथरा, कि हमें आदिवासियों के, उनके सहज विकास में हम उनका कितना साथ दे सकते हैं.....
उन्हें हमेशा गुलाम बनाए रखने की अपनी गुलामी सोच से, उन्हें मुक्त करके क्योंकि अंततः हमारी चाहे दिखाने वाली सोच ही क्यों ना हो आदिवासी समाज के साथ सहज विकास की ,यहां हमेशा रही है।
क्योंकि हमें याद है कि जब "बैगा सम्मेलन लालपुर में हुआ था तो हमारे मुख्यमंत्री तब वह बैगा के साथ जमकर डांस किए थे....
और भ्रष्टाचार का ही सही ढाई लाख रुपए नकद बांटे थे रेत माफिया की कृपा से तब के खनिज अधिकारी ने यह राशि उपलब्ध कराई थी.... यह शिवराज की महिमा रही है। और 2017 के इस भ्रष्टाचार के कुंड में आज भी लोग नहा रहे हैं...., बैगा सम्मेलन में भी अगर विकास होता है, तो पार्टी संगठन में भी होगा..... और बहुत विकास होगा... 100% परसेंट गारंटी है... माफिया तंत्र को भी भरोसा रखना चाहिए😊 ,तो बहुत शुभकामनाएं।
और भ्रष्टाचार का ही सही ढाई लाख रुपए नकद बांटे थे रेत माफिया की कृपा से तब के खनिज अधिकारी ने यह राशि उपलब्ध कराई थी.... यह शिवराज की महिमा रही है। और 2017 के इस भ्रष्टाचार के कुंड में आज भी लोग नहा रहे हैं...., बैगा सम्मेलन में भी अगर विकास होता है, तो पार्टी संगठन में भी होगा..... और बहुत विकास होगा... 100% परसेंट गारंटी है... माफिया तंत्र को भी भरोसा रखना चाहिए😊 ,तो बहुत शुभकामनाएं।
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