ताकि सांप भी मर जाए...,
साख भी बची रह जाए....
धुंध के साए में, भटकते आंदोलन..
सर्व समाज के बाद चिकित्सा क्षेत्र का अवकाश
मरीजों पर आएगी शामत..
( त्रिलोकीनाथ )
तमसो मा ज्योतिर्गमय दीपावली में अक्सर इस वेद मंत्र का उपयोग होता है।
शहडोल के इतिहास में यह पहला अवसर है जब मोमबत्ती की दीप लेकर दीपावली के दौरान नागरिक जागरूकता का जुगनू जगा रहे ...., अच्छा है यह सामाजिक जागरूकता "सर्व-समाज के प्रतिनिधित्व से दिखाने का प्रयास हो रहा है" इसका अर्थ यह नहीं की चिकित्सा के महान सेवा में अभी कल ही कोई बड़ी दुर्घटना हुई हो.....?
शहडोल जैसे आदिवासी क्षेत्रों में शोषणकारी व्यवस्था एक सतत कार्यक्रम की तरह बन गया है, चाहे चिकित्सा हो या शिक्षा जो संपूर्ण रूप से शासन का कर्तव्य है कि उसके नागरिक उसे पा सके। उसकी गैरेंटी होना किसी स्वस्थ मानव समाज के लिए अत्यावश्यक है।
किंतु धीरे-धीरे शिक्षा के बाद चिकित्सा को भी व्यावसायिक प्रतियोगिता के दायरे में डाल दिया गया है अब तो चिकित्सा बीमा के नाम पर बीमा सिर चढ़कर बोल रहा है। उस पर वोट की राजनीति और भ्रष्टाचार अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहा है।
आम आदमी का अधिकार "स्वस्थ जीवन प्रणाली" ,जैसे किसी धुंध के साए में भटक रहा है..., सर्व समाज की मोमबत्तियां उसी धुंध को हटाने के लिए खैरहा के वैश्य समाज की गर्भवती महिला के व उसके नवजात के दुखद निधन ने, जैसे जागरूकता पैदा की....., प्रशासन की जितनी भी योग्यता है उसने दोषी चिन्हित डॉक्टरों पर कार्यवाही किया। अब और डॉक्टर, सीएस यह संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना चिकित्सा क्षेत्र की भ्रष्ट नीतिगत धुंध में भटकने जैसा है.....?
गत 15 वर्ष रामराज्य वाले शासन कहते हैं कथित तौर पर वैश्य समाज का प्रतिनिधित्व भी करते थे। तब भी संपूर्ण चिकित्सा व्यवस्था भयानक आर्थिक प्रतियोगिता की दौड़ में थी। मुझे याद है ₹30 रुपए प्रति मरीज की दर से निजी चिकित्सक सेवा करते थे, अब यह दर 15 साल बाद 300 नहीं बल्कि ₹500 प्रति मरीज हो गई है। डॉक्टर भी इस भयानक आर्थिक प्रतियोगिता में "कोल्हू के बैल की तरह" जुड़ा हुआ है ।
व चाह कर भी इस बाजार से, जहां प्रथम सेवा अनिवार्य है प्रथम लाभ की दृष्टि से विकास के रास्ते देख रहा है...... सरकारी चिकित्सकों को निजी अस्पतालों का धंधा आकर्षित कर रहा है...... क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "बीमा का कारोबार, आयुष्मान" करोड़ों और व अरबों रुपए कमाने के अवसर दे रहा है। फिर वह आम आदमी की सेवा क्यों करके करें....?
बावजूद इसके कि सरकारी चिकित्सालय बुकिंग सेंटर बनते जा रहे हैं कुछ डॉक्टर्स निजी चिकित्सा क्षेत्र प्रैक्टिस नहीं करते.... उन्हें जिला चिकित्सालय मैं कुछ करने की अगर सोच है चाहे वह गिनती में हो... तो ऐसे आंदोलन चिकित्सकों की सोच को निराशा और हताशा में बदलते हैं....
निश्चित रूप से "सर्व समाज" का दीपावली में चिकित्सकों को दीप दर्शन कराना स्वयं के जागने जैसा है... किंतु यह लक्ष्यगत, राजनीतिक लाभ के लिए कुछ महत्वाकांक्षी आपूर्ति के लिए अथवा व्यक्तिगत तूष्टि के लिए क्यों होना चाहिए....?
यह प्रश्न क्यों नहीं खड़े होने चाहिए की गत 15 वर्षों में जिला चिकित्सालय का नामकरण बदलकर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर कब्जा कराया जा रहा था तो उसकी दूरदृष्टि वालों ने ठाकरे जी की मंशा के अनुरूप चिकित्सालय को सेवा का सदन क्यों नहीं बनाया.....?
सरकारी अमला को छोड़ दें, तो जो बड़ी समितियों में सदस्य बनकर जनभागीदारी या रोगी कल्याण समितियों के जरिए इस पर कब्जा किए रहे और अपना हिस्सा बांट कर रहे थे.... उन्होंने व्यवस्था को सुधारने के लिए कितना वक्त दिया.....?
आज यही प्रश्न कांग्रेस पार्टी के द्वारा नियुक्त जनप्रतिनिधि श्री खान के साथ खड़ा होता है..... कि क्या वे ईमानदार हैं...? क्या जिला चिकित्सालय की तमाम खामियों के लिए इन जनप्रतिनिधियों से कोई प्रश्न पूछा जा सकता है....? क्या उनके घर में जाकर ऐसे आंदोलन किए जा सकते हैं......? कि अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो इस्तीफा तो दे ही दीजिए..... आदि आदि मुद्दे, इन मोमबत्ती की रोशनी में दिखाई देते हैं?
फिर अगर इस सतत व्यवस्था में एक छोटी सी चिकित्सालय में धुंध है और उसमें खतरनाक हादसे हो रहे हैं तो क्या सभी डॉक्टरों को उसमें लपेटा जाएगा....? हर बार जांच कमेटियां बने... चिकित्सकों को परेशान करें.., इसकी बजाए एक स्वत: नियंत्रित व्यवस्था क्यों नहीं कायम किया जाना चाहिए.....?
यदि शहर के अंदर छोटे से चिकित्सालय में यह सब हो रहा है तो मेडिकल कॉलेज खोलने के बाद क्या अंधेर नगरी की स्थापना नहीं होने जा रही...? इस पर भी विचार करना चाहिए। हड़बड़ी में, जल्दबाजी में, दबाव में क्या प्रशासन गलत निर्णय नहीं ले सकता....?
यदि महिला की मृत्यु के मामले में डॉक्टर दोषी ठहराए गए हैं... तो सिर्फ दबाव बनाकर नवजात की मृत्यु के मामले में कोई निर्णय कराया जाना चाहिए....? क्या देखा नहीं जाना चाहिए की किसी की महत्वाकांक्षा के चलते, किसी राजनीति के छुपे झंडे के तहत, चिकित्सा सेवा को बदनाम करने का काम तो नहीं हो रहा है.... ताकि जिला चिकित्सालय को बदनाम करके निजी चिकित्सालयों की तरफ धंधे का रुख मोड़ आ जा सके.... आदि-आदि ।
क्योंकि जहां तक मुझे खबर है कि नवजात की मृत्यु के मामले में शहडोल से लेकर जबलपुर तक प्रथक प्रथक तौर पर चिकित्सालय में नवजात को जांचा परखा गया... क्या यह विषय-सामग्री नहीं है...? इस पर संपूर्ण चिकित्सकों को दबाव बना क्योंजिला चिकित्सालय को बदनाम करने का, यह रवैया सेवाभावी चिकित्सकों का अपमान है। जो बाजारवाद की प्रतियोगिता में चिकित्सा सेवा के उसकी शिक्षा और उसकी योग्यता के संघर्ष में उनके अंदर सेवा भाव को बनाए रखने का संघर्ष जो जीवित है, क्या हम उसका सम्मान नहीं कर सकते... यह भी सुनिश्चित होना चाहिए।
और यह सब ऐसे ही सर्व-समाज के सतत जागरूक आंदोलनों और उस पर समय समय में मोमबत्तीओ की जुगनू के प्रकाश से प्रकाशित होगा.. किंतु यह सब बहुत ठहराव से प्रशासन को निर्णय लेना चाहिए।
प्रारंभिक पत्रकार वार्ता में कलेक्टर ललित दायमा ने पत्रकारों से जो संवाद स्थापित किए, उसमें जिला चिकित्सालय पर सतत मानीटरिंग की जो व्यवस्था मोबाइल के जरिए थी ,उस पर क्रियामन का अभाव भी हमें लापरवाह बनाता है। यह उन चिकित्सकों के लिए नहीं है जो कर्तव्यनिष्ठ हैं.... जो बाजार की प्रतियोगिता से स्वयं को बचा के रख पाए हैं..., बल्कि ऐसी मानिटरिंग पूंजीवादी बाजारबाद में करोड़ों-अरबों रुपए कमाने की लालच वाले उन चिकित्सकों के लिए है...., जिन्होंने जिला चिकित्सालय को बुकिंग सेंटर बना रखा है।
कोई भी व्यवस्था स्वअनुशासन प्रणाली से ज्यादा मुखर होती है.... हम मंदिर जाते हैं तो स्वत: ही विनयवत हो जाते हैं, पत्थर की मूर्तियां हमें आदेश नहीं करती कि हम उन्हें हाथ जोड़ें....और प्रार्थना करें...? तो जिला चिकित्सालय में जीवित मनुष्य हैं... वे भटक सकते हैं किंतु मनुष्यता नहीं त्याग सकते.... वह भी हाथ जोड़कर कुछ सेवा करने के लिए मनोवृति रखते हैं... हमें ऐसी मनोवृति का पूर्ण मनोयोग से सम्मान करना चाहिए।
ऐसे सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं खासतौर से लोकतंत्र में वे सतत जागरूकता, स्वतंत्रता के लिए बनाए रखते हैं। किंतु ऐसे आंदोलन भटक न जाएं इस पर भी निगरानी बनी रहनी चाहिए। अन्यथा दूर दृष्टि वाले ऐसे महान सामाजिक आंदोलन जिला चिकित्सालय जैसी महान संस्था की तरह पतित अथवा प्रायोजित हो सकती है और फिर प्रतिकार स्वरूप चिकित्सा क्षेत्र के लोग भी अपने बचाव में वह सब करेंगे जो सामूहिक अवकाश जैसा दुर्भाग्य साली कदम होगा जिसका सीधा प्रभाव उन सभी मरीजों पर पड़ेगा जो पीड़ा और दुखदाई का कारण होगा। हमें यह भी सोचना चाहिए....
मात्र कुछ लोगों के चलते।शिकायत करें ,शिकायतों पर गंभीरता हो।
अन्यथा, सामाजिक आंदोलनों को सर्व समाज को सतत जागरूकता की व्यवस्था बनाकर रखनी होगी कि क्या प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य बीमा में निजी चिकित्सक को देने वाली ₹500 की फीस या प्रति सेवा अथवा जांच की हजारों की फीस किसी जांच या अन्य छोटी-मोटी जांच के लिए स्वास्थ्य बीमा के तहत भुगतान हो रहा है.... यदी नहीं हो रहा है तो डॉक्टर लूट रहा है.... और जनता लूट रही है.... और इन सब को मॉनिटरिंग करने वाला हमारी पॉलिसिया.., मल्टीनेशनल बाजार के बड़े कारोबार में अरबों-खरबों कमा रहे हैं... तो फिर हम सामाजिक आंदोलन किसके लिए कर रहे हैं ...?
अपने छोटे-मोटे लक्ष्य के लिए, क्यों मोमबत्तियां बेकार कर रहे हैं... यह भी हमें सोचना चाहिए.....?
बेहतर होता आंदोलनों के मांग पत्र में, पारदर्शी ढंग से स्थिरता के साथ और चिकित्सक संस्थाओं और चिकित्सकों का सम्मान व साख बचाए रखते हुए... ज्ञात-अज्ञात सभी मामलों का दूध का दूध और पानी का पानी हो... किंतु किसी भी स्थिति में चिकित्सकों का कोई हड़ताल अथवा अवकाश ना हो और उत्कृष्ट प्रशासन को प्राथमिकता के साथ इस पर निर्णय लेना चाहिए... यही उचित होगा, न्यायोचित भी....
अन्यथा हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र या फिर से भेड़तंत्र की तरह चल रहा है... और हम भेड़ की भीड़ में पीछे पीछे चल रहे हैं। और कुछ नहीं......
छठ का सूर्य हम सबके जीवन में प्रकाश लाए, सभी आनंद रहे... शुभम, मंगलम🦈
साख भी बची रह जाए....
धुंध के साए में, भटकते आंदोलन..
सर्व समाज के बाद चिकित्सा क्षेत्र का अवकाश
मरीजों पर आएगी शामत..
( त्रिलोकीनाथ )
तमसो मा ज्योतिर्गमय दीपावली में अक्सर इस वेद मंत्र का उपयोग होता है।
शहडोल के इतिहास में यह पहला अवसर है जब मोमबत्ती की दीप लेकर दीपावली के दौरान नागरिक जागरूकता का जुगनू जगा रहे ...., अच्छा है यह सामाजिक जागरूकता "सर्व-समाज के प्रतिनिधित्व से दिखाने का प्रयास हो रहा है" इसका अर्थ यह नहीं की चिकित्सा के महान सेवा में अभी कल ही कोई बड़ी दुर्घटना हुई हो.....?
शहडोल जैसे आदिवासी क्षेत्रों में शोषणकारी व्यवस्था एक सतत कार्यक्रम की तरह बन गया है, चाहे चिकित्सा हो या शिक्षा जो संपूर्ण रूप से शासन का कर्तव्य है कि उसके नागरिक उसे पा सके। उसकी गैरेंटी होना किसी स्वस्थ मानव समाज के लिए अत्यावश्यक है।
किंतु धीरे-धीरे शिक्षा के बाद चिकित्सा को भी व्यावसायिक प्रतियोगिता के दायरे में डाल दिया गया है अब तो चिकित्सा बीमा के नाम पर बीमा सिर चढ़कर बोल रहा है। उस पर वोट की राजनीति और भ्रष्टाचार अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहा है।
आम आदमी का अधिकार "स्वस्थ जीवन प्रणाली" ,जैसे किसी धुंध के साए में भटक रहा है..., सर्व समाज की मोमबत्तियां उसी धुंध को हटाने के लिए खैरहा के वैश्य समाज की गर्भवती महिला के व उसके नवजात के दुखद निधन ने, जैसे जागरूकता पैदा की....., प्रशासन की जितनी भी योग्यता है उसने दोषी चिन्हित डॉक्टरों पर कार्यवाही किया। अब और डॉक्टर, सीएस यह संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना चिकित्सा क्षेत्र की भ्रष्ट नीतिगत धुंध में भटकने जैसा है.....?
गत 15 वर्ष रामराज्य वाले शासन कहते हैं कथित तौर पर वैश्य समाज का प्रतिनिधित्व भी करते थे। तब भी संपूर्ण चिकित्सा व्यवस्था भयानक आर्थिक प्रतियोगिता की दौड़ में थी। मुझे याद है ₹30 रुपए प्रति मरीज की दर से निजी चिकित्सक सेवा करते थे, अब यह दर 15 साल बाद 300 नहीं बल्कि ₹500 प्रति मरीज हो गई है। डॉक्टर भी इस भयानक आर्थिक प्रतियोगिता में "कोल्हू के बैल की तरह" जुड़ा हुआ है ।
व चाह कर भी इस बाजार से, जहां प्रथम सेवा अनिवार्य है प्रथम लाभ की दृष्टि से विकास के रास्ते देख रहा है...... सरकारी चिकित्सकों को निजी अस्पतालों का धंधा आकर्षित कर रहा है...... क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "बीमा का कारोबार, आयुष्मान" करोड़ों और व अरबों रुपए कमाने के अवसर दे रहा है। फिर वह आम आदमी की सेवा क्यों करके करें....?
बावजूद इसके कि सरकारी चिकित्सालय बुकिंग सेंटर बनते जा रहे हैं कुछ डॉक्टर्स निजी चिकित्सा क्षेत्र प्रैक्टिस नहीं करते.... उन्हें जिला चिकित्सालय मैं कुछ करने की अगर सोच है चाहे वह गिनती में हो... तो ऐसे आंदोलन चिकित्सकों की सोच को निराशा और हताशा में बदलते हैं....
निश्चित रूप से "सर्व समाज" का दीपावली में चिकित्सकों को दीप दर्शन कराना स्वयं के जागने जैसा है... किंतु यह लक्ष्यगत, राजनीतिक लाभ के लिए कुछ महत्वाकांक्षी आपूर्ति के लिए अथवा व्यक्तिगत तूष्टि के लिए क्यों होना चाहिए....?
यह प्रश्न क्यों नहीं खड़े होने चाहिए की गत 15 वर्षों में जिला चिकित्सालय का नामकरण बदलकर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर कब्जा कराया जा रहा था तो उसकी दूरदृष्टि वालों ने ठाकरे जी की मंशा के अनुरूप चिकित्सालय को सेवा का सदन क्यों नहीं बनाया.....?
सरकारी अमला को छोड़ दें, तो जो बड़ी समितियों में सदस्य बनकर जनभागीदारी या रोगी कल्याण समितियों के जरिए इस पर कब्जा किए रहे और अपना हिस्सा बांट कर रहे थे.... उन्होंने व्यवस्था को सुधारने के लिए कितना वक्त दिया.....?
आज यही प्रश्न कांग्रेस पार्टी के द्वारा नियुक्त जनप्रतिनिधि श्री खान के साथ खड़ा होता है..... कि क्या वे ईमानदार हैं...? क्या जिला चिकित्सालय की तमाम खामियों के लिए इन जनप्रतिनिधियों से कोई प्रश्न पूछा जा सकता है....? क्या उनके घर में जाकर ऐसे आंदोलन किए जा सकते हैं......? कि अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो इस्तीफा तो दे ही दीजिए..... आदि आदि मुद्दे, इन मोमबत्ती की रोशनी में दिखाई देते हैं?
फिर अगर इस सतत व्यवस्था में एक छोटी सी चिकित्सालय में धुंध है और उसमें खतरनाक हादसे हो रहे हैं तो क्या सभी डॉक्टरों को उसमें लपेटा जाएगा....? हर बार जांच कमेटियां बने... चिकित्सकों को परेशान करें.., इसकी बजाए एक स्वत: नियंत्रित व्यवस्था क्यों नहीं कायम किया जाना चाहिए.....?
यदि शहर के अंदर छोटे से चिकित्सालय में यह सब हो रहा है तो मेडिकल कॉलेज खोलने के बाद क्या अंधेर नगरी की स्थापना नहीं होने जा रही...? इस पर भी विचार करना चाहिए। हड़बड़ी में, जल्दबाजी में, दबाव में क्या प्रशासन गलत निर्णय नहीं ले सकता....?
यदि महिला की मृत्यु के मामले में डॉक्टर दोषी ठहराए गए हैं... तो सिर्फ दबाव बनाकर नवजात की मृत्यु के मामले में कोई निर्णय कराया जाना चाहिए....? क्या देखा नहीं जाना चाहिए की किसी की महत्वाकांक्षा के चलते, किसी राजनीति के छुपे झंडे के तहत, चिकित्सा सेवा को बदनाम करने का काम तो नहीं हो रहा है.... ताकि जिला चिकित्सालय को बदनाम करके निजी चिकित्सालयों की तरफ धंधे का रुख मोड़ आ जा सके.... आदि-आदि ।
क्योंकि जहां तक मुझे खबर है कि नवजात की मृत्यु के मामले में शहडोल से लेकर जबलपुर तक प्रथक प्रथक तौर पर चिकित्सालय में नवजात को जांचा परखा गया... क्या यह विषय-सामग्री नहीं है...? इस पर संपूर्ण चिकित्सकों को दबाव बना क्योंजिला चिकित्सालय को बदनाम करने का, यह रवैया सेवाभावी चिकित्सकों का अपमान है। जो बाजारवाद की प्रतियोगिता में चिकित्सा सेवा के उसकी शिक्षा और उसकी योग्यता के संघर्ष में उनके अंदर सेवा भाव को बनाए रखने का संघर्ष जो जीवित है, क्या हम उसका सम्मान नहीं कर सकते... यह भी सुनिश्चित होना चाहिए।
और यह सब ऐसे ही सर्व-समाज के सतत जागरूक आंदोलनों और उस पर समय समय में मोमबत्तीओ की जुगनू के प्रकाश से प्रकाशित होगा.. किंतु यह सब बहुत ठहराव से प्रशासन को निर्णय लेना चाहिए।
प्रारंभिक पत्रकार वार्ता में कलेक्टर ललित दायमा ने पत्रकारों से जो संवाद स्थापित किए, उसमें जिला चिकित्सालय पर सतत मानीटरिंग की जो व्यवस्था मोबाइल के जरिए थी ,उस पर क्रियामन का अभाव भी हमें लापरवाह बनाता है। यह उन चिकित्सकों के लिए नहीं है जो कर्तव्यनिष्ठ हैं.... जो बाजार की प्रतियोगिता से स्वयं को बचा के रख पाए हैं..., बल्कि ऐसी मानिटरिंग पूंजीवादी बाजारबाद में करोड़ों-अरबों रुपए कमाने की लालच वाले उन चिकित्सकों के लिए है...., जिन्होंने जिला चिकित्सालय को बुकिंग सेंटर बना रखा है।
कोई भी व्यवस्था स्वअनुशासन प्रणाली से ज्यादा मुखर होती है.... हम मंदिर जाते हैं तो स्वत: ही विनयवत हो जाते हैं, पत्थर की मूर्तियां हमें आदेश नहीं करती कि हम उन्हें हाथ जोड़ें....और प्रार्थना करें...? तो जिला चिकित्सालय में जीवित मनुष्य हैं... वे भटक सकते हैं किंतु मनुष्यता नहीं त्याग सकते.... वह भी हाथ जोड़कर कुछ सेवा करने के लिए मनोवृति रखते हैं... हमें ऐसी मनोवृति का पूर्ण मनोयोग से सम्मान करना चाहिए।
ऐसे सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं खासतौर से लोकतंत्र में वे सतत जागरूकता, स्वतंत्रता के लिए बनाए रखते हैं। किंतु ऐसे आंदोलन भटक न जाएं इस पर भी निगरानी बनी रहनी चाहिए। अन्यथा दूर दृष्टि वाले ऐसे महान सामाजिक आंदोलन जिला चिकित्सालय जैसी महान संस्था की तरह पतित अथवा प्रायोजित हो सकती है और फिर प्रतिकार स्वरूप चिकित्सा क्षेत्र के लोग भी अपने बचाव में वह सब करेंगे जो सामूहिक अवकाश जैसा दुर्भाग्य साली कदम होगा जिसका सीधा प्रभाव उन सभी मरीजों पर पड़ेगा जो पीड़ा और दुखदाई का कारण होगा। हमें यह भी सोचना चाहिए....
मात्र कुछ लोगों के चलते।शिकायत करें ,शिकायतों पर गंभीरता हो।
अन्यथा, सामाजिक आंदोलनों को सर्व समाज को सतत जागरूकता की व्यवस्था बनाकर रखनी होगी कि क्या प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य बीमा में निजी चिकित्सक को देने वाली ₹500 की फीस या प्रति सेवा अथवा जांच की हजारों की फीस किसी जांच या अन्य छोटी-मोटी जांच के लिए स्वास्थ्य बीमा के तहत भुगतान हो रहा है.... यदी नहीं हो रहा है तो डॉक्टर लूट रहा है.... और जनता लूट रही है.... और इन सब को मॉनिटरिंग करने वाला हमारी पॉलिसिया.., मल्टीनेशनल बाजार के बड़े कारोबार में अरबों-खरबों कमा रहे हैं... तो फिर हम सामाजिक आंदोलन किसके लिए कर रहे हैं ...?
अपने छोटे-मोटे लक्ष्य के लिए, क्यों मोमबत्तियां बेकार कर रहे हैं... यह भी हमें सोचना चाहिए.....?
बेहतर होता आंदोलनों के मांग पत्र में, पारदर्शी ढंग से स्थिरता के साथ और चिकित्सक संस्थाओं और चिकित्सकों का सम्मान व साख बचाए रखते हुए... ज्ञात-अज्ञात सभी मामलों का दूध का दूध और पानी का पानी हो... किंतु किसी भी स्थिति में चिकित्सकों का कोई हड़ताल अथवा अवकाश ना हो और उत्कृष्ट प्रशासन को प्राथमिकता के साथ इस पर निर्णय लेना चाहिए... यही उचित होगा, न्यायोचित भी....
अन्यथा हमारा लोकतंत्र, भीड़तंत्र या फिर से भेड़तंत्र की तरह चल रहा है... और हम भेड़ की भीड़ में पीछे पीछे चल रहे हैं। और कुछ नहीं......
छठ का सूर्य हम सबके जीवन में प्रकाश लाए, सभी आनंद रहे... शुभम, मंगलम🦈
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें