रविवार, 20 अक्तूबर 2019

क्या तब से आज ज्यादा खतरनाक हो गई है स्वतंत्रता की लड़ाई...? (त्रिलोकीनाथ)


पतित भारत-रत्न, याने सावरकर 
संपूर्ण स्वतंत्रता के साथ कैसे हुआ था धोखा ....
क्या तब से आज ज्यादा खतरनाक हो गई है स्वतंत्रता की लड़ाई...?

(त्रिलोकीनाथ)
कुमार प्रशांत जी के बापू कथा प्रवचन से यह तो स्पष्ट हुआ कि समाज सुधारक और राजनेता यानी सत्ता की राजनीति करने वाले प्रथक प्रथक व्यक्ति होते हैं।       समाज सुधारक महात्मा गांधी वास्तव में संपूर्ण स्वराज और संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे किंतु साम्राज्यवाद इस स्वतंत्रता को सम्मान तो देना चाहता था किंतु अपनी शर्त पर.... और इसीलिए इंग्लैंड ने जब भी किसी को भारत भेजा तो उसने यह कह कर भेजा कि  गांधी से बचकर स्वतंत्रता की बात करनी चाहिए.. यही कारण था कि जब इंग्लैंड में उदारवादी स्वतंत्रता के पक्षधर लेबर पार्टी सत्ता में थी उसने माउंटबेटन वायसराय को भारत को जल्द से जल्द छोड़कर इसी स्थित में भाग जाना चाहती थी.., क्योंकि भारत की स्थितियां बेकाबू होती जा रही थी।

 गांधीजी नोवाखाली में थे जब सत्ता परिवर्तन की बात आई तो जो लोग जल्दबाजी में थे सत्ता की राजनीति करते थे उन्होंने स्वतंत्रता मैं अपना हिस्सा ढूंढना चाहा। साम्राज्यवाद की भ्रामक ताकते और उससे नियंत्रित भारतीय संगठन तत्कालीन कांग्रेस,  जो  असंतोष को  दबाने के लिए निर्माण की गई थी  वह धीरे से  स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गई ... किंतु सत्ता परिवर्तन में "आंदोलन" का मकसद भटक चुका था इसलिए गांधी की बिना राय लिए कॉन्ग्रेस ने आजाद भारत का ताना-बाना बनाने में सत्ता की राजनीति में व्यस्त हो गए। कोई "मुस्लिम लीग" बनाकर जिन्हा बन बैठा तो कोई "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" के जरिए सत्ता के पर्दे की पीछे की राजनीति साम्राज्यवाद को मजबूती दे रहा था ।गांधीजी चूकी अनशन में सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे उन्हें सब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था.... कोई उन्हें संदेश भी नहीं दे रहा था...।
 और यदि सच माना जाए तो वर्तमान में हमने सत्याग्रह के अनशन का जो शुरू अन्ना हजारे के आंदोलन में देखा 21वीं सदी में वह गांधी के आंदोलन का तत्कालीन सत्य था। तब लड़ाई "संपूर्ण स्वतंत्रता" के लिए लड़ी जा रही थी ,अन्ना के कार्यकाल में "भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई" थी अंततः अन्ना के इर्द-गिर्द बुद्धिमान वर्ग ने राजनीति में आकर सत्ता परिवर्तन का सपना देखा और जल्दबाजी में अन्ना को अकेला छोड़ गए...।
 हम समझ सकते हैं कि तब गांधी जी के साथ भी संपूर्ण स्वतंत्रता की लड़ाई में यही सब कुछ हुआ होगा। तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर्दे के पीछे से अपनी अंग्रेजी निष्ठा  में अपने स्वार्थ पूर्ण मकसद के लिए काम करता रहा। अन्ना के आंदोलन में भी स्वयंसेवक संघ ने पर्दे के पीछे से अन्ना का साथ दिया और फिर एक झटके में दोनों ने मिलकर उन्हें अकेला छोड़ दिया....।
 बेशक अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम इतनी बेईमान नहीं है किंतु अगर वह "पिछवाड़े में लात मार कर" योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण को अलग कर देती है तो वह असहमति के साथ सहमत होने के सिद्धांत को भी लात मार देती है।
 तब महात्मा गांधी संपूर्ण स्वतंत्रता और तत्कालीन स्वतंत्र हो रहा है भारत के प्रस्तुत योजना मैं जल्दबाजी से काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि वह भारत को संपूर्ण स्वतंत्र भारत के रूप में देखना चाहते थे। किंतु सांप्रदायिकता ने उन्हें अवसर नहीं दिया....। और सत्ता की राजनीति ने साम्राज्यवाद के विस्तार में अपने उद्देश्य पूर्ति "भारत के विभाजन" के मसौदे पर जिन्हा और नेहरू दोनों को भ्रम में डाल कर देश का विभाजन का खाका तैयार करा दिया । 
इस पर कुमार प्रशांत स्पष्ट करते हैं की वायसराय से गांधी जी ने कहा था जल्दबाजी न करें, उन्होंने दोनों पक्षों से बात भी की क्योंकि वे जानते थे, उनकी दूरदृष्टि देख रही थी कि इसके खतरनाक परिणाम तत्कालीन "ट्रांसफर ऑफ पॉपुलेशन" के रूप में गहरे घाव छोड़ेंगे... और दूरगामी परिणाम उसके प्रदूषण को नष्ट करने में सदियां लग जाएंगी... शायद इसीलिए उन्होंने मध्य मार्ग अपनाना चाहा किंतु साम्राज्यवाद ने सांप्रदायिकता के जरिए, अपने  भारतीय एजेंटों के जरिए भारत को संपूर्ण स्वतंत्रता ना देने में सफलता पूर्ण योजना पर काम कर चुकी थी।
 शायद तब वह पाशविक सांप्रदायिकता भ्रामक चाल बना चुकी थी, अफवाह वैमनस्यता और झूठ का बाजार तब फैलने में समय लगता था क्योंकि संचार के माध्यम आज जैसे तत्काल फैलने वाला नहीं था.... अब वह सुविधा सांप्रदायिकता को फैलाने वाली सोच बहुत सशक्त है... इसलिए वर्तमान की तुलना में तत्कालीन परिस्थितियों में भ्रामकता का धुंध कमजोर था...
 शायद यही कारण था कि तमाम गंदी राजनीति का खेल करने वाले लोगों के उपस्थिति के बावजूद देश एक अर्धसत्य की तरह एक "अर्ध-स्वतंत्र-राष्ट्र" के रूप में हमें विरासत में मिला....। इस प्रकार स्वतंत्रता की लड़ाई आज भी जारी है या यू कहना चाहिए कि अब हमें सांप्रदायिकता के अपने-हिंदुओं और अपने-मुसलमानों या क्रिश्चियनओ या फिर अलग-अलग  ढेर सारे पैदा हो गए कबीलाई वामपंथी, दक्षिणपंथी कश्मीरी, पूर्वांचल के विचारधाराओं  के साथ लड़ना है.....।


 गांधीजी को 6 बार हत्या के प्रयास हुए अंततः आजाद भारत में उन्हें किसी अंग्रेज ने नहीं मारा.... यह कलंक  स्वतंत्र भारत के नागरिक पर गया.... लेकिन इस सबसे ज्यादा खतरनाक परिस्थिति यह है गांधीजी की हत्या के बाद हत्यारों ने उनके बढ़ते महामानव बनने के स्वरूप से घबराने लगे.... और गांधीजी का नकाब पहनकर साम्राज्यवाद के लिए काम किया है। इससे सिर्फ गांधी बनकर ही स्वतंत्र भारत में हम संपूर्ण स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए काम कर सकते हैं। क्योंकि तब से ज्यादा वर्तमान खतरनाक परिस्थितियों इसलिए अब हैं, क्योंकि तब वीर सावरकर व उनकी विचारधारा अंग्रेजों के एजेंट थे.... अब वीर सावरकर भारतरत्न के अधिकारी हैं...? क्योंकि वे सत्ता पर हैं.. गांधी शांति प्रतिष्ठान के प्रमुख श्री कुमार प्रशांत कहते हैं आप जितना भारत रत्न का पतन करना चाहते हैं करें... इससे गांधी को फर्क नहीं पड़ने वाला...।
                      (बहस अभी बाकी है..)

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