कोरोना युग का रामायण,
(त्रिलोकीनाथ)
एक अनुभवहीन फिल्मी चेहरा स्मृति ईरानी को कांग्रेस की शीर्ष नेता के चुनााव क्षेत्र अमेठी से चुनाव लड़ाया गया । जब जनमत ने स्मृति ईरानी को नकार दिया तो लोकमत के खिलाफ जाकर न सिर्फ उन्हें लोकतंत्र में राज्य सत्ता पर केंद्रीय मंत्री बनाया गया बल्कि मानव संसाधन मंत्रालय जैसे मंत्रालय में उनके "अनुभव हीनता" को ही गुणवत्ता बनाकर भारतीय राजनीति की ज्ञान और विज्ञान की तथा मानव संसाधन की खुली अवमानना की गई । क्योंकि वे उस मंत्रालय का प्रतिनिधित्व कर रही थी जो भारती ज्ञान-विधा को प्रमाणित करती थी ।और यह विरोधाभास भी स्मृति ईरानी के साथ भी जुड़ा रहा कि वे जैसा कि अपने शैक्षणिक चरित्र का दावा कर रही थी, शपथ दे रही थी वह वास्तविकता से मेल नहीं खा रहा था ।बावजूद इसके इसे ही किसी एक स्त्री( जो सीता तो नहीं थी,) के बहाने राजधर्म की नई परिभाषा के रूप में स्थापित करने का काम किया गया। क्या स्मृति ईरानी के बहाने, झूठे शपथ को, राजधर्म का शपथ को स्थापित किया जा रहा था?
और इसकी क्या जरूरत रही, तब , जब भारतीय लोकमत , जनमत लोकज्ञान से निकली संत उमाभारती को सहर्ष स्वीकार कर सिर माथे मेंं बैठाया था। कभी किसी लोकमत ने उमाभारती से ना तो उनकी डिग्री को लेकर और ना ही उनके स्वरूप को लेकर कोई प्रश्न खड़े किए। लोकमत जानता था यही भारत की ज्ञान की विरासत है।
किंतु शायद सत्य यह नहीं था की स्मृति के बहाने झूठे शपथ को राजधर्म बनानेे का काम हो रहा था। बल्कि कुछ और जो छिपाना था उस "छिपाने" को ही सत्य का राजधर्म दिखानेेे वाला राजधर्म गढ़ा गया । जो जैसा कि त्रेता वाले राम का दिखाने वाले राजधर्म की तरह समतुल्य आदर्श राजधर्म की संज्ञा देना था। इसके लिए लोकमत के रूप में स्मृति को, उनकी अनुभव-हीनता को, गरिमामय बनाने के लिए न सिर्फ मंत्री बनाया बल्कि दोबारा पुन: उस स्थान पर चुनाव लड़ाया गया जहां विपक्षी कांग्रेश का मुखिया चुनकर आता रहा।
(त्रिलोकीनाथ)
दूरदर्शन द्वारा कोविड-19 महामारी के कष्टदाई अवसर पर लोगों को आध्यात्मिक सुख देने के दृष्टिकोण से पौराणिक ग्रंथों पर आधारित रामानंद सागर के बहुचर्चित सीरियल रामायण में उत्तरकांड का समापन बड़ी मार्मिकता के साथ हुआ। 2 दिन के स्पेशल 2 घंटे के प्रसारण में राम के पुत्रों लव व कुश की प्रस्तुति, स्वयं को साबित करना और वनदेवी (मां सीता ) नामक स्त्री के चरित्र सत्यापन की दशा व दिशा को भगवान बाल्मीकि द्वारा स्वयं के अस्तित्व को दांव में लगाकर स्थापित करने के प्रयासों का फिल्मांकन त्रेता युग के कथा चरित्र का अनुपम उदाहरण देखने को मिला ।
क्योंकि "राजधर्म" की उसकी उपयोगिता और उसकी सार्थकता "यूज एंड थ्रो" का मटेरियल मात्र बनकर रह गई दिखती है।
( भाग-2)
गुजरात में जो हुआ वे उसे ही राजधर्म की संज्ञा देने में लग गए । यह वह दौर था जब गुजरात की सांप्रदायिकता का खून सिर चढ़कर बोल रहा था । उसका आतंक सत्ता के संरक्षण में इस कदर हावी था कि प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों कि किसी की हिम्मत नहीं थी कि वे गुजरात को इस माहौल से उबारने का काम करते हैं तब अटल जी के संकटमोचक रहे रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस अकेले ही गुजरात की गलियों में हालात को टटोलने के लिए पहुंचे थे और लोकतंत्र के निष्ठा का वातावरण दिखाने का काम किया यह अटल जी और जॉर्ज फर्नांडिस की पीढ़ी का राजधर्म था।
यह अलग बात है की तमाम समाजवादी विचारधारा के और अन्य राजनीतिक दलों में भी जॉर्ज फर्नांडीज द्वारा किसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकले व्यक्ति को प्रधानमंत्री के स्तर पर उनका साथ देने के लिए बहुत ज्यादा विरोध सहना पड़ा। विरोध के हालात इस स्तर के थे कि उनकी अपनी पार्टी समाजवादियों के सर्वमान्य नेता जॉर्ज फर्नांडीज के खिलाफ बगावत हो गई ।और समाजवादी कुनबा टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गया।
इस तरह "अपना-अपना समाजवाद" और "अपना-अपना राजधर्म" लोगों ने बना लिया था। देश के प्रति निष्ठा आजादी के शहीदों के प्रति बलिदान को लोगों ने भुला कर राजधर्म की नई परिभाषा पर काम कर रहे थे।
बात बीत गई,समय ने करवट बदली... कभी भाजपा के लौह पुरुष रहे लालकृष्ण आडवाणी के संरक्षण में आगे बढ़ने वाले नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपनी गर्मी से पिघला दिया... और ऐसे अटल जी जैसे उदारवाद लोकतंत्र हितेषी वर्ग को "मार्गदर्शक-मंडल" में समेट कर सत्ता की राजनीति से विदा कर उन्हें सामाजिक दायित्व और राष्ट्रीय दायित्व से अलग रहने की घोषणा कर दी।
और इसके बाद विश्व के सबसे बड़े़ लोकतंत्र भारत में त्रेता युग के राम और उनके राजधर्म का आधुनिकीकरण होने लगा। "हिंदुत्व" ब्रांड के झंडे तले सीता के राम को आदर्श मानकर राजनीति लोकतंत्र को मथने लगी। स्वयं साधु संत का स्वरूप लिए आदित्य योगीनाथ को सीता के राम वाले अयोध्या क्षेत्र के राज्य उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके पहले त्रेता के राम के राजधर्म में लोकमत को तिलांजलि देकर राजधर्म की नई संज्ञा गढ़ी गई।
एक अनुभवहीन फिल्मी चेहरा स्मृति ईरानी को कांग्रेस की शीर्ष नेता के चुनााव क्षेत्र अमेठी से चुनाव लड़ाया गया । जब जनमत ने स्मृति ईरानी को नकार दिया तो लोकमत के खिलाफ जाकर न सिर्फ उन्हें लोकतंत्र में राज्य सत्ता पर केंद्रीय मंत्री बनाया गया बल्कि मानव संसाधन मंत्रालय जैसे मंत्रालय में उनके "अनुभव हीनता" को ही गुणवत्ता बनाकर भारतीय राजनीति की ज्ञान और विज्ञान की तथा मानव संसाधन की खुली अवमानना की गई । क्योंकि वे उस मंत्रालय का प्रतिनिधित्व कर रही थी जो भारती ज्ञान-विधा को प्रमाणित करती थी ।और यह विरोधाभास भी स्मृति ईरानी के साथ भी जुड़ा रहा कि वे जैसा कि अपने शैक्षणिक चरित्र का दावा कर रही थी, शपथ दे रही थी वह वास्तविकता से मेल नहीं खा रहा था ।बावजूद इसके इसे ही किसी एक स्त्री( जो सीता तो नहीं थी,) के बहाने राजधर्म की नई परिभाषा के रूप में स्थापित करने का काम किया गया। क्या स्मृति ईरानी के बहाने, झूठे शपथ को, राजधर्म का शपथ को स्थापित किया जा रहा था?
किंतु शायद सत्य यह नहीं था की स्मृति के बहाने झूठे शपथ को राजधर्म बनानेे का काम हो रहा था। बल्कि कुछ और जो छिपाना था उस "छिपाने" को ही सत्य का राजधर्म दिखानेेे वाला राजधर्म गढ़ा गया । जो जैसा कि त्रेता वाले राम का दिखाने वाले राजधर्म की तरह समतुल्य आदर्श राजधर्म की संज्ञा देना था। इसके लिए लोकमत के रूप में स्मृति को, उनकी अनुभव-हीनता को, गरिमामय बनाने के लिए न सिर्फ मंत्री बनाया बल्कि दोबारा पुन: उस स्थान पर चुनाव लड़ाया गया जहां विपक्षी कांग्रेश का मुखिया चुनकर आता रहा।
यह दूसरी बात है कि आज कांग्रेस की बात सिर्फ एक जनता की तरह मानी जाएगी ।क्योंकि राजसत्ता पर राम के नाम पर राजनीति करने और राम को आदर्श बता कर उनके पद चिन्हों में चलने वाली पार्टी
राजा के रूप में काम कर रही है...। यह भी दूसरी बात है कि कांग्रेसका वह मुखिया स्वयं को संसद में लाने के लिए केरल के वायनाड संसदीय क्षेत्र से संसद बनकर आ जाता है।
राजा के रूप में काम कर रही है...। यह भी दूसरी बात है कि कांग्रेसका वह मुखिया स्वयं को संसद में लाने के लिए केरल के वायनाड संसदीय क्षेत्र से संसद बनकर आ जाता है।
किंतु चर्चा कांग्रेस की नहीं बनती , राज्य सत्ता में बैठी राम को आदर्श मानने वाले अनुगामियों भाजपा और उसको प्रेरित करने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संग की होगी। क्योंकि इन्हीं का दावा था कि वे राम के बताएं राजधर्म के जरिए, लोकमत के जरिए उभरे थे ।और वे आज राजधर्म का आधुनिकीकरण कर रहे हैं।
राजधर्म किस प्रकार से "उपयोग करो और फेंक दो" का विषय-सामग्री बाजार मेंं बन गया था । क्योंकि सत्ता पर राम के अनुगामी बैठे थे तो राजधर्म की नई परिभाषा गढ़ी जा रही थी। लोगों ने भी श्रद्धा के साथ "राजधर्म" की मूर्ति को खंडित होते न सिर्फ देखना चालू किया बल्कि अंध भक्तों की अद्यतन बांदरी सेना ने उसे स्वीकार भी कर लिया।
समय परिवर्तित हुआ..., अपने उंगली में समय को नचाने का और खुश होने का अवसर हाथ से उस वक्त छूट रहा था जब अपना नया राजधर्म विकसित करने के लिए दुनिया को सिर्फ बाजार की तरह भोक्ता सामग्री के रूप मेंं देखने चीन अपनी रसोईघर बुहान शहर में कोविड-19 कोरोनावायरस का जन्म दिया। कथित तौर पर यह वायरस पूंजीवाद को समर्पित राष्ट्रों पर हमला करनेे के इजाद किया हुआ।
बताया गया जैसा कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार इसे दोहराया है इसी समय में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक ने तो यहां तक कह दिया कि यह पूरी तरह से जैविक इजाद किया हुआ कोविड-19 वायरस है ; और अगर मेरी यह बात गलत साबित हो जाए तो मेरे मरनेेे के बाद मुझे प्राप्त नोबेल पुरस्कार मुझसे वापस ले लिया जाए।
इतना आत्मविश्वास पर्याप्त है और यह है उसी प्रकार का दावा है जैसा कि तब रामायण के रचयिता बाल्मिक को सीता का चरित्र के सत्यापित करने के लिए स्वयंं के समस्त ज्ञान और विज्ञान का दांव लगानाा पड़ा कि "अगर वह(सीता) गलत है तो सब निष्फल हो जाएगा। बावजूद इसके सीता मां अपना चरित्र सत्यापित करना पड़ा था। यही राजा के लिए राम का "आदर्श राजधर्म" था ।
यह त्रेता युग की बातें थीं। अब कलयुग है ऊपर से कोरोना युग याने ठेठ भाषा में कहें जैसे हमारे प्रधानमंत्री सोशल डिस्टेंसिंग को काफी देर बाद 2 गज की दूरी में समझाने का काम किया हम भी समझाते हैं ।इसयुुग में कोरोनावायरस "कोढ़ में खाज" की तरह विद्वमान रहा ।
क्योंकि राजधर्म की परिभाषा भी बदल गई है।, क्योंकि जो जनता तब अयोध्या के राजाराम पर चरित्र का कलंक लगाने का साहस करती थी वह अब कोरोनावायरस युग में शहर और गांव में कीड़ों मकोड़ों की तरह चलने फिरने और मर जाने के लिए यात्रा कर रही है। उसे फुर्सत कहां है कि वह किसी आधुनिक राम पर कोई कलंक लगाएं....?
क्योंकि, लोकमत को अब यह भी मालूम है की राजधर्म की परिभाषा कोरोना के युग में कलयुग केेे राम ने बदल दिया है.... सीता को अपना चरित्र सत्यापन के लिए किसी बाल्मीकि जरूरत नहीं है..... और ना ही राम को किसी सीता की ..... क्योंकि कलयुग में एकात्मबाद का साया, छाया है।
क्योंकि, कलयुग के रामायण के अपने राम हैं.... अपनी सीता है.... अपने बाल्मिक हैं... और अपनी जनता है.... इसकेेे विरोध में कोई भी विचार हैं तो वह रामायण का चरित्र पात्र नहीं है.....
और इसलिए बाजारवाद के भारत में त्रेता का रामायण, उनकी अयोध्या और उनके सभी चरित्र पात्र, वोट-बैंक तलाशने के सिर्फ मजदूर हैं...... अगर मेहनत करें तो, हो सकता है इन्हीं चरित्रपात्रों में कोई सीता, दीपिका चिखलिया,कोई रावण, अरविंद त्रिवेदी या कोई अन्य चरित्र पात्र जिसमें वोट-बैंक लूटने की क्षमता सिद्ध कर ली हो, वह भारतीय संसद के रामायण का कठपुतली बना दिया जाएगा।
जो आधुनिक अयोध्या... जिसकी राजधानी कहीं भी हो सकती है, खुद अयोध्या में..., दिल्ली में...., या फिर अंग्रेजी शासन काल की राजधानी नागपुर में.... यही कोरोना युग का रामायण है। और ये ही कलयुग के राम हैं ...और वर्तमान मे उनका राज-धर्म भी।
आप भी अपनी भावनाओंं को तब तो व्यक्त करते जबतक आधुनिक राजधर्म प्रभावित ना हो । राजधर्म के खिलाफ यदि कोई परिस्थितियांं बदली तो आप को हानि हो सकती है।
कभी-कभी सोचता हूं कि रामानंद सागर को अखिर हम भारत रत्न क्यों नहींं दे पाए ..?आखिर उनकी रचना केे संसार के कई चरित्र नायक हमारी संसद में आधुनिक मूर्त रूप में स्थापित है।क्या यह उनका पिछड़ापन है की कथित तौर पर जब दूरदर्शन दोबारा इसे प्रसारण कर रहा था तो कहते हैं स्वर्गीय रामानंद सागर के परिवार मेंं धर्म पत्नी ने अद्यतन दूरदर्शन कमाई में "रॉयल्टी" लेने से मना कर दिया था , हाँ यह उनका पिछड़ापन है और आदिवासीपन भी... आज के भयानक बाजारवाद में भी सागर की पत्नी इसीलिए वे आज भी हमारी भावनाओं में जगह पाती हैं।
तो क्या अभी भी त्रेता के राम का आदर्श राजधर्म जीवित है......?
।।जय सियाराम।।
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